Friday, July 31, 2009

डाककर्मी के पुत्र थे उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद


1920 का दौर... गाँधी जी के रूप में इस देश ने एक ऐसा नेतृत्व पा लिया था, जो सत्य के आग्रह पर जोर देकर स्वतन्त्रता हासिल करना चाहता था। ऐसे ही समय में गोरखपुर में एक अंग्रेज स्कूल इंस्पेक्टर जब जीप से गुजर रहा था तो अकस्मात एक घर के सामने आराम कुर्सी पर लेटे, अखबार पढ़ रहे एक अध्यापक को देखकर जीप रूकवा ली और बडे़ रौब से अपने अर्दली से उस अध्यापक को बुलाने को कहा । पास आने पर उसी रौब से उसने पूछा-‘‘तुम बडे़ मगरूर हो। तुम्हारा अफसर तुम्हारे दरवाजे के सामने से निकल जाता है और तुम उसे सलाम भी नहीं करते।’’ उस अध्यापक ने जवाब दिया-‘‘मैं जब स्कूल में रहता हूँ तब मैं नौकर हूँ, बाद में अपने घर का बादशाह हूँ।’’

अपने घर का बादशाह यह शख्सियत कोई और नहीं, वरन् उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद थे, जो उस समय गोरखपुर में गवर्नमेन्ट नार्मल स्कूल में सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत थे। 31 जुलाई 1880 को बनारस के पास लमही में जन्मे प्रेमचन्द का असली नाम धनपत राय था। आपकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम अजायब राय था। 

मुंशी प्रेमचंद जी के पिता अजायब राय डाक-कर्मचारी थे, अत: प्रेमचंद जी अपने ही परिवार के हुए।   डाक-परिवार अपने ऐसे सपूतों पर गर्व करता है व उनका पुनीत स्मरण करता है। मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट भी जारी किया गया.


(मुंशी प्रेमचंद जी पर कृष्ण कुमार यादव का विस्तृत आलेख साहित्याशिल्पी पर पढ़ सकते हैं)

Tuesday, July 21, 2009

चिट्ठी












बहुत दिनों बाद
घर से चिट्ठी आई है,
खुशी के साथ
आंख भी भर आई है।
पूछा है-
कब आओगे गांव,
पैसों की जरूरत है
पत्नी के
भारी हो गए हैं पांव।
मां को घुटनों
और पिता को आंखों
की बीमारी है,
सूखे से फसल
दगा दे गई
दाल रोटी की भी
दुश्वारी है।
दवा इलाज हो तो
कम हो जाता मर्ज
पर कैसे?
रूपयों के लाले हैं
महाजन भी नहीं
दे रहा है कर्ज।
फिर लिखा है-
आ न सको तो
कोई बात नहीं
अपना सब कुछ
सह लेंगे
पर बहू की बात
कुछ और है,
पेट में पहला बच्चा है
आखिर उसका भी तो
अपना खर्चा है।
तुम भी कपड़े लत्ते की
कमी न होने देना
परेशानी हम समझते हैं,
पर जैसे-तैसे-कैसे भी
कुछ रूपयों का मनीआर्डर
जल्दी भिजवा देना।

मोहन राजपूत,दैनिक जागरण, रूद्रपुर,
ऊधमसिंह नगर (उत्तराखंड)


(दैनिक जागरण में 20 जुलाई 2009 को प्रकाशित मोहन राजपूत की यह कविता बड़ी प्रभावी एवं रोचक लगी। इसे साभार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।)

Saturday, July 18, 2009

डाकघर सद्भाव तथा शुभकामनाओं का प्रतीक- टैगोर

(डाकघर पर 13 अक्टूबर 2008 को 5 रूपये का स्मारक डाक टिकट जारी किया गया। प्रतिभूति मुद्रणालय हैदराबाद में वेट-आफसेट प्रक्रिया द्वारा आठ लाख की संख्या में मुद्रित इस डाक टिकट के साथ जारी विवरणिका में अंकित शब्दों को यहां साभार हूबहू स्थान दिया जा रहा है)

आज हम टेलीफोन, मोबाइल फोन, ई-मेल जैसे इलेक्ट्रानिक उपकरणों के इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि हमने इन्हें सदा के लिए अपना मान लिया है। इन आविष्कारिक चमत्कारों के लिए हजारो समर्पित कारीगरों ने उत्साहपूर्वक कार्य किया है जिसके परिणामस्वरूप ये उपकरण अवसंरचनाएं और संस्थान आज मौजूद हैं। आज ये संस्थान हमारे हैं जिन्हें हमें सहेज कर रखना है और आगे ले जाना है। डाकघर भी एक ऐसा संस्थान है जोकि अन्य सरकारी विभागों की तुलना में, हमारी संवेदनाओं से जुड़ा हुआ है। यह संदेशों का आदान-प्रदान करता है, लोगों को जोड़ने में मदद करता है तथा पत्र के माध्यम से लोगों के मध्य संप्रेषण करता है।

जब तक हम इसके बारे में सोचते हैं तो पत्र के नाम से ही रोमांच उत्पन्न हो जाता है। कितनी बेसब्री से पत्र की प्रतीक्षा की जाती है। हममे से कितनों ने रविन्द्र नाथ टैगोर के नाटक ‘‘डाकघर‘‘ के छोटे से लड़के की तरह महसूस किया होगा जो गांव में नये खुले डाकघर के माध्यम से राजा से मिलने वाले पत्र की उत्सुकता से प्रतीक्षा करता है।

डाकघर को दुनिया में संचार का माध्यम माना गया है। डाकिया प्राकृतिक आपदाओं, जंगली जानवरों, भूभागी कठिनाइयों तथा डाकुओं आदि की बाधाओं को पार करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करता है। ‘‘डाकघर‘‘ नाटक चैकीदार द्वारा छोटे लड़के को इस तथ्य को कितनी अच्छी तरह बताया गया हैः-

‘‘हा...हा....डाकिया, यकीनन बरसात हो या लू, अमीर हो या गरीब, सबको घर-घर जाकर चिट्ठी बांटना उसका काम है यह बहुत बड़ी बात है।‘‘

आज डाकघर न केवल पत्र वितरित करता है बल्कि अपने व्यापक नेटवर्क के माध्यम से विभिन्न प्रकार की सेवाएं भी प्रदान करता है। वित्तीय लेनदेनों का संवहन करने की क्षमता रखता है तथा स्थानीय इलाके की जानकारी होने के कारण यह जनता को विभिन्न सेवायें उपलब्ध करवाने के लिए दक्ष एवं लागत प्रभावी भी सुलभ कराता है। भारतीय डाक आज पारम्परिकता और आधुनिकता दोनों की झलक प्रस्तुत करता है। डाकघर निरंतरता एवं परिवर्तन की पहचान बन गया है।

गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने अपने नाटक ‘‘डाकघर‘‘ के माध्यम से डाकघर को सद्भाव, शुभकामनाओं का प्रतीक तथा राजा का प्रजा के प्रति वात्सल्य दिखाया है।

Thursday, July 16, 2009

डार्विन के अप्रकाशित पत्रों का होगा प्रकाशन

आपने कभी सोचा है कि पत्रों द्वारा किसी के व्यवहार को जांचा जा सकता है। जी हां, यह फार्मूला महान वैज्ञानिक डार्विन पर अपनाया जा रहा है। डार्विन का विचार था कि महिलाएं घरेलू काम और बच्चों की देखभाल के लिए उपयुक्त होती हैं पर जिन महिलाओं ने उन्हें खत लिखा, उनमें वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने में डार्विन ने काफी सार्थक भूमिका निभाई थी। महिलाओं और यौन व्यवहार पर चाल्र्स डार्विन के ऐसे ही विचारों के अध्ययन के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने एक परियोजना ‘डार्विन और जेंडर‘ की शुरूआत की है। डार्विन के जीवन के अनछुए पहलुओं के अलावा स्त्री-पुरूष संबंधों की वैज्ञानिक और सामाजिक नजरिए से पड़ताल की जाएगी। ‘डार्विन और जेंडर‘ परियोजना में पहली बार इस महान प्रकृति विज्ञानी के अनछुए और अब तक प्रकाशित नहीं किए गए पत्रों और लेखों को लोगों के सामने लाया जाएगा। तीन साल की इस परियोजना को कैंब्रिज विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी के ‘‘डार्विन पत्राचार प्रोजेक्ट‘‘ के अंतर्गत चलाया जाएगा। इस परियोजना के बाद अपनी बड़ी बेटी हेनरीएटा से डार्विन के संबंध सामने आएंगे। डार्विन ने जब ‘ओरिजिन आॅफ द स्पीसीज‘ लिखी, उस वक्त हेनरीएटा बहुत छोटी थी पर बाद में उसका अपने पिता की लेखनी पर बहुत प्रभाव था। डार्विन का अपनी जिंदगी में कई महिलाओं से खतों के जरिए रिश्ता था। इनकी संख्या 148 तक बताई जाती है।

Wednesday, July 15, 2009

चिट्ठी का फ्यूचर

भाई लोगों का ऐसा कहना, मेरे अक्ल की स्क्रीन पर कतई डिस्प्ले नहीं होता कि मुए मोबाइल के आने से चिट्ठियां लिखने का चलन चैपट हो गया। डाकिए खाली हाथ चलने लगे और तो और एसएमएस ने संक्षिप्त संदेशों की ऐसी हैबिट डाल रखी है कि अब कोई दिल खोल के अपनी बातें नहीं लिखता। याद कीजिए पहले के जमाने में भी जब लेटर लिखे जाते थे, तब भी तो यह वाला जुमला आखिर में टांक ही दिया जाता था- थोड़े लिखे को ज्यादा समझना। यह सूत्र वाक्य ही एसएमएस का बीजमंत्र है। कुछ भी नया नहीं हुआ बस, लेटर लिखने की स्टाइल चेंज हो गई है।

हम सबको एसएमएस नामक डिवाइस का थैंकफुल होना चाहिए, इस एसएमएस विधि के आ जाने से स्टेशनरी और टाइम दोनों की बचत हो रही है। जो जितना ज्यादा पढ़ा-लिखा है, अंगूठे से उतना ही अधिक लिखने में पारंगत है। वह संपूर्ण मोबाइल टेक्नोलाजी अपने ठेंगे पर रखके चलता है।

हाल-फिलहाल, मैं इस बात से भी इत्तेफाक नहीं रखता कि संचार क्रांति के चलते पत्र-लेखन जैसा आदिकालीन कर्म विलुप्त होने की कगार पर है। गाँवों में आज भी चिट्ठी-पत्री का चलन आम है। जिसके यहाँ कंप्यूटर नहीं है, वह साइबर और इंटरनेट कैफे में सर्फिंग-चैटिंग करने जाता है। एक छोटे से दड़बे, जिसे केबिन कहा जाता है में बैठकर अगले की लाइफ के असंख्य घंटे किस रास्ते से निकल गए, यह स्वयं उस ध्यानस्थ जीवात्मा को भी पता नहीं चल पाता। डेस्कटाप, पामटाप और लैपटाप के इस काल में युवक-युवतियों की गोदें तो जैसे सदा-सवैदा भरी ही मिलती हैं। पता नहीं किससे-किससे और किसको-किसको मेल कर रहे हैं। भाई मेरे, पत्र प्रेषण ही तो है। जितना चाहो और जो चाहो, लिखो फिर पासवर्ड के लिफाफे में बंद करके रवाना कर दो। पाने वाला ही बांचेगा। लेटर राइटिंग के भविष्य को लेकर एक और तरह से भी निश्चिंत हुआ जा सकता है। इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं में इधर एक नई आदत तरक्की पर है। वे जो पहले चिट्ठियों के जवाब देने तक से कतराते थे, वे इन दिनों दनादन चिट्ठे लिख रहे हैं। बड़ी ही संक्रामक बीमारी है यह ब्लागेंटाइटिस भी। इस रोग की एक खासियत यह भी है कि यह हते पंद्रह दिनों में ही क्रानिक हो लेता है। तब इसकी चपेट में आने वाले पोथा लिखने लग जाते हैं। मेरी बात का सहज ऐतबार न हो तो आप ऐसे तमाम अनामदासी पोथाकारों की साइट्स पर जाइए।

अब तो हालत यह है कि अखबारों तक ने अपने पाठकों के पन्नों वाली स्पेस को इन ब्लागर्स के नाम आवंटित कर दिया है। दिनोदिन ब्लागियों की फिगर में इजाफा हो रहा है। बिना डाक टिकट, लेटरबाक्स के ही चिट्ठे लिखे जा रहे हैं। जवाब आ रहे हैं। जिनके पास एक अदद कंप्यूटर और नेट की सुविधा उपलब्ध है, वे इस चिट्ठाकारिता में अपना योगदान करने को स्वतंत्र हैं। कर भी रहे हैं। अब अंकल एसएमएस के बिग ब्रदर बाबू ब्लागानंद प्रकट हो चुके हैं। उनकी कृपा से बबुआ लव लेटरलाल, चाचा चिट्ठाचंद और पापा पोथाप्रसाद समेत फैमिली के टोटल मेंबर्स की लाइफ सुरक्षित है। सो चिट्ठी बिटिया की भी।
सूर्य कुमार पांडेय,
साभार- आई नेक्स्ट, 13 जुलाई, 2009

Monday, July 13, 2009

अब डाकिया बाबू लायेंगे काशी विश्वनाथ व उज्जैन के महाकालेश्वर का प्रसाद

सावन के मौसम में भगवान शिव की पूजा होती है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा जाता है और काशी विश्वनाथ मंदिर यहाँ का प्रमुख धार्मिक स्थल है। डाक विभाग और काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट के बीच वर्ष 2006 में हुए एक एग्रीमेण्ट के तहत काशी विश्वनाथ मंदिर का प्रसाद डाक द्वारा भी लोगों को उपलब्ध कराया जा रहा है। इसके तहत साठ रूपये का मनीआर्डर प्रवर डाक अधीक्षक, बनारस (पूर्वी) के नाम भेजना होता है और बदले में वहाँ से काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट के सौजन्य से मंदिर की भभूति, रूद्राक्ष, भगवान शिव की लेमिनेटेड फोटो और शिव चालीसा प्रेषक के पास प्रसाद रूप में भेज दिया जाता है।

काशी विश्वनाथ मंदिर के अलावा उज्जैन के प्रसिद्ध श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर का प्रसाद भी डाक द्वारा मंगाया जा सकता है। इसके लिए प्रशासक, श्री महाकालेश्वर मंदिर प्रबन्धन कमेटी, उज्जैन को 151 रूपये का मनीआर्डर करना पड़ेगा और इसके बदले में वहाँ से स्पीड पोस्ट द्वारा प्रसाद भेज दिया जाता है। इस प्रसाद में 200 ग्राम ड्राई फ्रूट, 200 ग्राम लड्डू, भभूति और भगवान श्री महाकालेश्वर जी का चित्र शामिल है।

इस प्रसाद को प्रेषक के पास एक वाटर प्रूफ लिफाफे में स्पीड पोस्ट द्वारा भेजा जाता है, ताकि पारगमन में यह सुरक्षित और शुद्ध बना रहे। तो अब आप भी घर बैठे भोले जी का प्रसाद ग्रहण कीजिये और मन ही मन में उनका पुनीत स्मरण कर आशीर्वाद लीजिए !!

Thursday, July 9, 2009

डाक टिकटों पर कानपुर

कानपुर आरम्भ से ही राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-औद्योगिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है और यही कारण है कि कानपुर से जुड़े- गणेश शंकर विद्यार्थी (25 मार्च 1962, 15 पैसे), दीन दयाल उपाध्याय (5 मई 1978, 25 पैसे), तात्या टोपे (10 मई 1984, 50 पैसे)े, नाना साहब (10 मई 1984, 50 पैसे), चन्द्रशेखर आजाद (27 फरवरी 1988, 60 पैसे), बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ (8 दिसम्बर 1989, 60 पैसे), श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’ (4 मार्च 1997, 1 रूपये), नरेन्द्र मोहन (14 अक्टूबर 2003, 5 रूपया), पदमपत सिंहानिया (3 फरवरी 2005, 5 रूपया) जैसी विभूतियों पर अभी तक डाक टिकट जारी हो चुके हैं। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की 150वीं जयन्ती पर कानपुर व लखनऊ में हुए घमासान युद्वों को दर्शाते हुए 9 अगस्त 2007 को 5 रूपये व 15 रूपये मूल्यवर्ग के डाक टिकट व मिनीएचर शीट जारी किये गये। इसके अलावा बिठूर से जुड़े होने के कारण रानी लक्ष्मीबाई (15 अगस्त 1957, 15 पैसे) व महर्षि बाल्मीकि (14अक्टूबर 1970, 20 पैसे) पर जारी डाक टिकटों को भी इसी क्रम में रखा जाता है। यही नहीं फूलबाग स्थित राजकीय संग्राहलय में भी डाक टिकटों के संकलन का एक अलग सेक्शन है। डाक टिकटों के मामले में एक रोचक तथ्य कानपुर से जुड़ा हुआ है। वर्ष 1957 में बाल दिवस पर पहली बार तीन स्मारक डाक टिकट जारी किये गये, जो पोषण (8 पैसे, केला खाता बालक), शिक्षा (15 पैसे, स्लेट पर लिखती लड़की) व मनोरंजन (90 पैसे, मिट्टी का बना बांकुरा घोड़ा) पर आधारित थे। दस हजार फोटोग्रास में से चयनित शेखर बार्कर व रीता मल्होत्रा को क्रमशः पोषण व शिक्षा पर जारी डाक टिकटों पर अंकित किया गया। स्लेट पर लिखती लड़की रीता मल्होत्रा कानपुर की थी। ठीक पचास वर्ष बाद वर्ष 2007 में बाल दिवस पर डाक टिकट जारी होने के दौरान शेखर बार्कर व रीता मल्होत्रा को भी आमंत्रित किया गया, पर रीता मल्होत्रा को शायद खोजा न जा सका। इस प्रकार कानपुर की विभूतियों पर जारी डाक टिकटों के क्रम में रीता मल्होत्रा का नाम भी शामिल किया जा सकता है।

डाक टिकट संग्रह को बढ़ावा देने हेतु कानपुर जी0पी0ओ0 में जुलाई 1973 में फिलेटलिक ब्यूरो की स्थापना की गयी जिसमें तमाम डाक टिकटों और उनसे जुड़ी सामग्रियों का अवलोकन किया जा सकता है। कानपुर में 30 अक्टूबर-1 नवम्बर 1982, 17-18 फरवरी 2001, 22-23 मार्च 2003, 24-25 नवम्बर 2004 और 22-23 दिसम्बर 2006 को डाक टिकटों के प्रति लोगों को आकर्षित करने हेतु और इससे जुड़े विभिन्न पहलुओं से रूबरू कराने हेतु डाक टिकट प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इन प्रदर्शनियों में 30 अक्टूबर-1 नवम्बर 1982 को ‘फिलकाॅन-82‘ के दौरान क्रमशः प्रथम भारतीय पोस्टमास्टर जनरल राय बहादुर सालिगराम, रानी लक्ष्मीबाई व श्री राधाकृष्ण मन्दिर (जे0के0मन्दिर) पर, तत्पश्चात 24 नवम्बर 2004 को ’कानफिलेक्स-2004‘ के दौरान कानपुर जी0पी0ओ0 भवन पर और 22 व 23 दिसम्बर 2006 को ‘कानपेक्स-2006‘ के दौरान क्रमशः ’कानपुर की स्थापत्य कला’ (कानपुर जी0पी0ओ0, लालइमली, फूलबाग, कानपुर सेण्ट्रल रेलवे स्टेशन, चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के भवनों के चित्र अंकित) एवं ’बिठूर की धरोहरें’ (नानाराव पेशवा का किला, स्वर्ग नसेनी, ब्रहमावर्त घाट, लवकुश जन्मस्थली के चित्र अंकित) पर विशेष आवरण जारी किये गये। इसी प्रकार 17 जनवरी 2009 को महाराज प्रयाग नारायण मंदिर, शिवाला पर विशेष आवरण जारी किया गया। इन जारी आवरणों द्वारा कानपुर की समृद्ध ऐतिहासिक विरासतों को दर्शाने का प्रयास किया गया है।

Wednesday, July 8, 2009

क्रान्तिकारियों के निशाने पर रहे डाकघर

स्वतन्त्रता आन्दोलन में कानपुर की प्रमुख भूमिका रही है। 1857 के बाद से डाकघर बराबर क्रान्तिकारियों के निशाने पर रहे और आगजनी तथा लूटपाट का दौर कानपुर के डाकघरों ने भी देखा। इस दौर में तमाम क्रान्तिकारी नायकों ने भी बड़ी संख्या में हरकारों की भर्ती कर रखी थी, जो उनके लिए गुप्त खबरें भी लाते थे। कानपुर में नाना साहब के दरबार में एक हरकारे गिरधारी ने ही मेरठ विद्रोह की खबर सर्वप्रथम पहुँचाई थी, जिसे बाद में अंग्रेजों ने मौत के घाट उतार दिया। 1857 की क्रान्ति के दौरान जब क्रान्तिकारियों ने कानपुर में अंग्रेजों की संचार व्यवस्था ध्वस्त कर दी तो सेनापति कोलिन थेंप विल ने पत्र द्वारा गर्वनर जनरल लार्ड केनिंग को यहाँ के बारे में सूचित करते हुए सलाह दी कि जब तक अंग्रेजी सेनायें अवध को काबू में नहीं करेंगी, तब तक क्रान्ति की चिंगारी यँू ही फैलती रहेगी। कालान्तर में भी डाक सेवायें लोगों के निशाने पर रहीं, क्योंकि अंग्रेजों के पास संचार माध्यम का यह सबसे सशक्त साधन था। 1940 के दौरान राजस्थान के देवली नामक स्थान में बनाये गये कैम्प में समग्र भारत से लगभग 400 क्रान्तिकारियों को अंग्रेजी हुकूमत ने बन्द कर दिया था, जिसमें कानपुर के भी तमाम लोग थे। इसके विरोध में 8 नवम्बर 1940 को कानपुर में छात्रों ने देवली दिवस की घोषण कर जुलूस निकाले। डी0ए0वी0 से चले जुलूस को सिरकी मोहाल चैकी के पीछे वाली गली में पहुँचने पर पुलिस ने दोनों ओर से घेर कर लाठीचार्ज किया और कुछ लोगों को गिरतार भी कर लिया। इससे आक्रोशित होकर 16 वर्षीय छात्र सूरजबली नादिरा ने अपने साथी शिवशंकर सिंह और अन्य के साथ बड़ा चैराहा स्थिति डाकघर में धावा बोलकर 1,36,000 रूपये अपने कब्जे में कर लिये और पुलिस द्वारा घिर जाने पर नोट लुटाते भाग गये। यद्यपि बाद में पुलिस ने नादिरा को गिरतार कर लिया। इसी प्रकार भारत छोड़ो आन्दोलन के आवह्यन के अगले दिन 10 अगस्त 1942 को आन्दोलित भीड़ ने मेस्टन रोड डाकघर में हमला बोलकर 50,000 रूपये की नकदी लूट ली व सारा सामान आग के हवाले कर दिया। नयागंज डाकखाने का भी सारा सामान लूट लिया गया और जनरलगंज व नरौना एक्सचेन्ज डाकघरों में आग लगाने के साथ-साथ तमाम लेटरबाक्सों को भी नुकसान पहुँचाया गया।

Tuesday, July 7, 2009

भारत के 8 जी0पी0ओ0 में से एक कानपुर में

डाक विभाग की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार समस्त भारत में 8 जी0पी0ओ0 हैं, जो कि मुम्बई, कोलकाता, अहमदाबाद, बेंगलूर, चेन्नई, दिल्ली, लखनऊ और कानपुर में स्थित हैं। इनमें कानपुर जी0पी0ओ0 चीफ पोस्टमास्टर के अधीन कानपुर नगर के व्यस्ततम बड़ा चैराहा पर अवस्थित है। यह एकमात्र ऐसा जी0पी0ओ0 है जो कि अपनी स्थापना के समय राजधानी में अवस्थित नहीं था। एक डाकघर के रूप में इसने 1901 में कार्य करना आरम्भ किया। उस समय यह एक अंग्रेज अधिकारी के बंगले में अवस्थित था। कालान्तर में वर्तमान स्थान पर जी0पी0ओ0 भवन का शिलान्यास 9 सितम्बर 1962 को भारत सरकार के तत्कालीन परिवहन एवं संचार मंत्री श्री जगजीवन राम ने और उद्घाटन 11 अगस्त 1969 को संचार विभाग के तत्कालीन सचिव श्री लक्ष्मी चंद जैन (आई0सी0एस0) ने किया। पहले यह कानपुर डाक मण्डल के अधीन था। 4 जनवरी 1972 को प्रधान डाकघर के रूप में इसका अपग्रेडेशन हुआ और श्री एच0पी0त्रिवेदी (04 जनवरी 72-15 जुलाई 72) इसके प्रथम चीफ पोस्टमास्टर बने। 124 लेटर बाक्स और 187 डाकियों के माध्यम से डाक सेवा जी0पी0ओ0 के अधीनस्थ क्षेत्रों में कार्य कर रही है। 40 उपडाकघर, 02 अतिरिक्त विभागीय उपडाकघर और 23 शाखा डाकघर इसके लेखा क्षेत्र के अन्र्तगत आते हैं। कानपुर जी0 पी0 ओ0 परिसर का क्षेत्रफल 8750 वर्गमीटर है और 3915 वर्गमीटर में इसका भवन बना है। इस चार मंजिला भवन, जिसमें कि एक भूतल भी है, में चीफ पोस्टमास्टर कानपुर जी0पी0ओ0 के अलावा पोस्टमास्टर जनरल कानपुर रीजन, प्रवर डाक अधीक्षक कानपुर नगर मण्डल, प्रवर अधीक्षक रेल डाक सेवा ‘केपी’ मण्डल कानपुर, डाक अधीक्षक कानपुर (मुफस्सिल), अधीक्षक सर्किल स्टैम्प डिपो और प्रबन्धक मेल मोटर सर्विस के कार्यालय भी अवस्थित हैं। कानपुर नगर मण्डल द्वारा आयोजित डाक टिकट प्रदर्शनी ’कानफिलेक्स’ के दौरान 24 नवम्बर 2004 को कानपुर जी0पी0ओ0 भवन पर एक विशेष आवरण भी जारी किया गया । कानपुर जी0पी0ओ0 की विशिष्टता को देखते हुए ही उत्तर प्रदेश में सर्वप्रथम राष्ट्रीय स्पीड पोस्ट केन्द्र यहीं पर 15 नवम्बर 1986 को खोला गया। 14नवम्बर 2006 को कानपुर जी0पी0ओ0 में सभी वित्तीय सेवाएं एक छत के नीचे उपलब्ध कराने हेतु पोस्टल फाइनेंस मार्ट की स्थापना की गई। बचत सेवाओं से प्राप्त सकल जमा के मामले में उ0प्र0 में कानपुर का द्वितीय स्थान है। इस समय यह एक ‘‘प्रोजेक्ट एरो‘‘ डाकघर है.

Sunday, July 5, 2009

कानपुर में निदेशक डाक सेवाएं पद सर्वप्रथम स्थापित

डाक विभाग ने विकेन्द्रीकरण की नीति अपनाते हुये प्रायोगिक तौर पर देश के तीन प्रमुख क्षेत्रों में जुलाई 1973 के दौरान निदेशक डाक सेवाएं पद स्थापित किया। इनमें से एक कानपुर और दो अन्य कोयम्बटूर व नागपुर थे। भारतीय डाक सेवा के अधिकारी श्री एस0आर0 फारूखी को कानपुर क्षेत्र में प्रथम निदेशक बनाया गया। कालान्तर में इस व्यवस्था को समाप्त करते हुए अखिल भारतीय स्तर पर 2 अप्रैल 1979 को सभी क्षेत्रों में रीजनल स्तर की स्थापना की गयी और निदेशक डाक सेवायें पद को इस स्तर पर स्थापित किया गया। कानपुर रीजन में प्रथम निदेशक के रूप में भारतीय डाक सेवा के अधिकारी श्री आर0एस0 गुप्ता की नियुक्ति हुयी। कानपुर में 27 नवम्बर 1986 को अपग्रेडेशन द्वारा अतिरिक्त पोस्टमास्टर जनरल पद का सृजन किया गया और इस पद को 1 मार्च 1989 से पोस्टमास्टर जनरल के रूप में तब्दील कर दिया गया। अतिरिक्त पोस्टमास्टर जनरल के पद सृजन के समय श्री एल0सी0राम कानपुर रीजन के निदेशक (4 मई 1982 से 1 फरवरी 1986 तक) थे। श्री के0एल0 मल्होत्रा कानपुर रीजन के प्रथम अतिरिक्त पोस्टमास्टर जनरल (27 नवम्बर 1986 से 28 फरवरी 1989 तक) नियुक्त हुए व तत्पश्चात 1 मार्च 1989 से 14 मार्च 1990 तक वे कानपुर रीजन के प्रथम पोस्टमास्टर जनरल भी रहे।

डाक सेवाओं को सुचारु रूप से चलाने के लिए विभिन्न क्रियात्मक गतिविधियों हेतु समय-समय पर डाक विभाग द्वारा तमाम इकाईयाँ स्थापित की गई। डाक को विभिन्न डाकघरों से एकत्र करने और उन्हें आर0एम0एस0 व अन्य गन्तव्य स्थानों तक पहुँचाने हेतु दिसम्बर 1963 में कानपुर में मेल मोटर सेवा आरम्भ की गई। इसी प्रकार डाकघरों में डाक टिकट, डाक स्टेशनरी- पोस्टकार्ड, अन्तर्देशीय पत्र, लिफाफा इत्यादि, केन्द्र्रीय भर्ती शुल्क, इण्डियन पोस्टल आर्डर एवं बचत-पत्रों इत्यादि की आपूर्ति के लिये कानपुर में सर्किल स्टैम्प डिपो की 24 फरवरी 1981 को स्थापना की गई। भारतीय प्रतिभूति मुद्रणालय, नासिक से प्राप्त डाक टिकट, डाक स्टेशनरी, केन्द्र्रीय भर्ती शुल्क, राष्ट्रीय बचत पत्र व किसान विकास पत्र एवं सिक्यूरिटी प्रिन्टिंग प्रेस, हैदराबाद से प्राप्त इण्डियन पोस्टल आर्डर को सर्किल स्टैम्प डिपो, कानपुर उत्तर प्रदेश डाक परिमण्डल के 62 प्रधान डाकघरों को आपूर्ति करता है। लखनऊ रीजन के अलावा उत्तर प्रदेश डाक परिमण्डल के सभी रीजनों की आपूर्ति यहीं से होती है। कानपुर की विशिष्टता को देखते हुए ही उत्तर प्रदेश में सर्वप्रथम राष्ट्रीय स्पीड पोस्ट केन्द्र यहीं पर 15 नवम्बर 1986 को खोला गया। 14नवम्बर 2006 को कानपुर जी0पी0ओ0 में सभी वित्तीय सेवाएं एक छत के नीचे उपलब्ध कराने हेतु पोस्टल फाइनेंस मार्ट की स्थापना की गई। बचत सेवाओं से प्राप्त सकल जमा के मामले में उ0प्र0 में कानपुर का द्वितीय स्थान है।

डाक सेवाओं में महत्वपूर्ण कानपुर

व्यवस्थित तौर पर कानपुर में डाक सेवाओं का इतिहास काफी पुराना है। आरम्भ में कानपुर डाक मण्डल के अन्तर्गत कानपुर, फतेहपुर, उन्नाव, रायबरेली, इटावा, फतेहगढ़ और मैनपुरी जनपद शामिल थे। कालान्तर में फतेहगढ़, मैनपुरी और इटावा को कानपुर डाक मण्डल से पृथक कर 15 फरवरी 1935 को फतेहगढ़ डाक मण्डल की स्थापना की गई। बाद में प्रतापगढ़ डाक मण्डल की स्थापना उपरान्त रायबरेली को कानपुर डाक मण्डल से पृथक कर 1जनवरी 1955 को प्रतापगढ़ डाक मण्डल का भाग बना दिया गया। 4 जनवरी 1972 को कानपुर प्रधान डाकघर का अपग्रेडेशन हुआ और यह कानपुर मण्डल से स्वतन्त्र इकाई के रूप में संचालित होने लगा। पुनः 28 फरवरी 1973 को कानपुर देहात, उन्नाव और फतेहपुर को कानपुर डाक मण्डल से पृथक करते हुये एक अलग कानपुर (मुफस्सिल) डाक मण्डल बनाया गया। उस समय कानपुर देहात कानपुर जनपद का और उन्नाव लखनऊ जनपद के भाग थे, जो कि कालान्तर में पृथक जनपद के रूप में अवस्थित हुये। इसके बाद कानपुर डाक मण्डल में सिर्फ कानपुर नगर राजस्व जनपद का क्षेत्र बचा। बाद में 1 फरवरी 1981 को कानपुर (मुफस्सिल) से पृथक कर फतेहपुर डाक मण्डल की स्थापना की गई।

वर्तमान रूप में कानपुर नगर डाक मण्डल की स्थापना 28 फरवरी 1973 को हुई। कानपुर नगर मण्डल में कुल 174 डाकघर हैं, जिनमें 02 प्रधान डाकघर, 94 उप डाकघर, 02 अतिरिक्त विभागीय उपडाकघर और 76 शाखा डाकघर हैं। इसके अलावा 08 पंचायत संचार सेवा केन्द्र व एक फ्रेन्चाइजी आउटलेट भी चल रहे हैं। 31 वितरण डाकघर, 317 डाकियों और 640 लेटर बाक्सों के माध्यम से डाक सेवा नगर मण्डल में कार्य कर रही है। इसके अलावा तमाम ग्रामीण डाक सेवक भी वितरण कार्य में संलग्न हैं। कानपुर नगर मण्डल के कार्यक्षेत्र में अवस्थित नरोना एक्सचेंज डाकघर में लगे शिलापट के अनुसार इस डाकघर का शुभारम्भ 4 अप्रैल 1911 को मिस्टर सी0आर0क्लार्क (आई0सी0एस0), तत्कालीन पोस्टमास्टर जनरल उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया था, जो कि कानपुर में अग्रणी डाक सेवाओं को दर्शाता है। कानपुर जी0पी0ओ0 के अलावा नगर के समस्त डाकघर प्रवर डाक अधीक्षक, कानपुर नगर मण्डल के प्रशासकीय नियन्त्रण के अधीन हैं। इस मण्डल के अधीनस्थ नवाबगंज और कैण्ट डाकघरों को अपग्रेडेशन द्वारा क्रमशः 1 अक्टूबर 1973 व 1 जनवरी 1979 को प्रधान डाकघरों में तब्दील कर दिया गया। वर्तमान में नवाबगंज प्रधान डाकघर के लेखा क्षेत्र में 38 और कैण्ट प्रधान डाकघर के लेखा क्षेत्र में 39 उपडाकघर कार्यरत हैं। कानपुर नगर मण्डल के अधीनस्थ शेष 19 उपडाकघर कानपुर जी0पी0ओ0 के लेखा क्षेत्र में आते हैं।

Friday, July 3, 2009

कानपुर में रेल डाक सेवा

रेलवे सेवा आरम्भ होने के बाद इलाहाबाद और कानपुर के बीच अखिल भारतीय स्तर पर प्रथम बार रेलवे सार्टिंग सेक्शन की स्थापना 1 मई 1864 को की गई, जो कि कालान्तर में रेलवे डाक सेवा में तब्दील हो गया। आरम्भ में कानपुर की रेलवे डाक सेवा इलाहाबाद से संचालित होती थी, पर 30 अगस्त 1972 को पोस्टमास्टर जनरल, उत्तर प्रदेश के एक आदेश द्वारा ‘ए’ मण्डल इलाहाबाद को विभक्त कर ‘के0पी0’ मण्डल कानपुर का गठन किया गया। वर्तमान में इस मण्डल द्वारा कुल 12 जनपदों, यथा- कानपुर नगर, कानपुर देहात, उन्नाव, फतेहपुर, फर्रूखाबाद, इटावा, मैनपुरी, औरैया, फिरोजाबाद, महामाया नगर, बुलन्दशहर, अलीगढ़ की डाक का आदान-प्रदान व पारेषण किया जाता है। वर्तमान में रेलवे डाक सेवा की अवधारणा को और व्यापक बनाते हुए इन्हे ‘मेल बिजनेस सेन्टर‘ में तब्दील किया जा रहा है, जहाँ इसका कार्य डाक-प्रोसेसिंग तक सीमित न होकर डाक के एकत्रीकरण, वितरण और विपणन तक विस्तृत हो जायेगा। ‘के0पी0’ मण्डल कानपुर को यह सौभाग्य प्राप्त है कि उत्तर प्रदेश के प्रथम ‘मेल बिजनेस सेन्टर’ का शुभारम्भ इसके अधीनस्थ अलीगढ़ आर0एम0एस0 में 27 दिसम्बर 2006 को हुआ।
(चित्र में- उत्तर प्रदेश के प्रथम ‘मेल बिजनेस सेन्टर’ के शुभारम्भ के दौरान डाक सेवा बोर्ड सदस्य आई. एम. जी. खान और तत्कालीन एस.एस.आर.एम. के.के.यादव )

डाक व्यवस्था में प्रथम कम्पनी स्थापित किया लाला ठंठीमल ने

सामरिक व औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण होने के कारण ब्रिटिश शासन काल से ही अंग्रेजों ने कानपुर में संचार साधनों की प्रमुखता पर जोर दिया। इनमें डाक सेवायें सर्वप्रमुख थीं। कानपुर में सर्वप्रथम डाकघर की स्थापना कैण्ट स्थित नहरिया पर 1840 में हुई। 6 मई 1840 को ब्रिटेन में विश्व के प्रथम डाक टिकट जारी होने के अगले वर्ष 1841 मंे इलाहाबाद और कानपुर के मध्य घोड़ा गाड़ी द्वारा डाक सेवा आरम्भ की गई। इलाहाबाद के एक धनी व्यापारी लाला ठंठीमल, जिनका व्यवसाय कानपुर तक विस्तृत था को इस घोड़ा गाड़ी डाक सेवा को आरम्भ करने का श्रेय दिया जाता है, जिन पर अंग्रेजों ने भी अपना भरोसा दिखाया। जी0टी रोड बनने के बाद उसके रास्ते भी पालकी और घोड़ा गाड़ी से डाक आती थी, जिसमें एक घोड़ा 7 किलोमीटर का सफर तय करता था। आधा तोला वजन का एक पैसा किराया तुरन्त भुगतान करना होता था। इलाहाबाद से बिठूर तक डाक का आवागमन गंगा नदी के रास्ते से होता था। सन् 1850 में लाला ठंठीमल ने कुछ अंग्रेजों के साथ मिलकर ‘इनलैण्ड ट्रांजिट कम्पनी’ की स्थापना की और कलकत्ता से कानपुर के मध्य घोड़ा गाड़ी डाक व्यवस्थित रूप से आरम्भ किया। अगले वर्षों में इसका विस्तार मेरठ, दिल्ली, आगरा, लखनऊ, बनारस इत्यादि प्रमुख शहरों में भी किया गया। कानपुर की अवस्थिति इन शहरों के मध्य में होने के कारण डाक सेवाओं के विस्तार के लिहाज से इसका महत्वपूर्ण स्थान था। इस प्रकार लाला ठंठीमल को भारत में डाक व्यवस्था में प्रथम कम्पनी स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है। 1854 में डाक सेवाओं के एकीकृत विभाग में तब्दील होने पर इनलैण्ड ट्रांजिट कम्पनी’ का विलय भी इसमें कर दिया गया।

Wednesday, July 1, 2009

डाकिया: बदलते हुए रूप

पिछले दिनों आफिस में बैठकर कुछ जरूरी फाइलें निपटा रहा था, तभी एक बुजुर्गवार व्यक्ति ने अन्दर आने की इजाजत मांगी। वे अपने क्षेत्र के डाकिये की शिकायत करने आये थे कि न तो उसे बड़े छोटे की समझ है एवं न ही वह समय से डाक पहुंचाता है। बात करते-करते वे अतीत के दिनों में पहुंच गये और बोले-साहब! हमारे जमाने के डाकिये बहुत समझदार हुआ करते थे। हमारा उनसे अपनापन का नाता था। इससे पहले कि हम अपना पत्र खोलें वे लिखावट देखकर बता दिया करते थे-अच्छा! राकेश बाबू (हमारे सुपुत्र) का पत्र आया है, सब ठीक तो है न। वे सज्जन बताने लगे कि जब हमारे पुत्र का नौकरी हेतु चयन हुआ तो डाकिया बाबू नियुक्ति पत्र लेकर आये और मुझे आवाज लगाई। मेरी अनुपस्थिति में मेरी श्रीमती जी बाहर्र आइं व पत्र को खोलकर देखा तो झूम उठीं। डाकिया बाबू ने पूछा- अरे भाभी, क्या बात है, कुछ हमें भी तो बताओ। श्रीमती जी ने जवाब दिया कि आपका भतीजा साहब बन गया है।

शाम को मैं लौटकर घर आया तो पत्नी ने मुझे भी खुशखबरी सुनाई और पल्लू से पैसे निकालते हुए कहा कि जाइये अभी डाकिया बाबू को एक किलो मोतीचूर लड्डू पहुंँचा आइये। मैंने तुरंत साइकिल उठायी और लड्डू खरीद कर डाकिया बाबू के घर पहुंँचा। उस समय वे रात्रि के खाने की तैयारी कर रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने गले लगकर बेटे के चयन की बधाई दी और जवाब में मैंने लड्डू का पैकेट उनके हाथों में रख दिया। डाकिया बाबू बोले- ‘‘अरे ये क्या कर रहे हैं आप? चिट्ठियाँं बांँटना तो मेरा काम है। किसी को सुख बांटता हूँ तो किसी को दुःख।‘‘ मैंने कहा नहीं साहब, आप तो हमारे घर हमारा सौभाग्य लेकर आये थे, अतः आपको ये मिठाई स्वीकारनी ही पड़ेगी।

ये बताते-बताते उन बुजुर्ग की आंखों से आँसू झलक पड़े। और बोले, साहब! जब मेरे बेटे की शादी हुई तो डाकिया बाबू रोज सुबह मेरे घर पर आते और पूछ जाते कि कोई सामान तो बाजार से नहीं मंगवाना है। इसके बाद वे अपने वर्तमान डाकिया के बारे में बताने लगे, साहब! उसे तो बात करने की भी तमीज नही। डाक सीढ़ियों पर ही फेंककर चला जाता है। पिछले दिनों मेरे नाम एक रजिस्ट्री पत्र आया। घर में मात्र मेरी बहू थी। उसने कहा बाबू जी तो घर पर नहीं हैं, लाइये मुझे ही दे दीजिए। जवाब में उसने तुनक कर कहा जब वह आ जाएं तो बोलना कि डाकखाने से आकर पत्र ले जाएं।

मैं उस बुजुर्ग व्यक्ति की बात ध्यान से सुन रहा था और मेरे दिमाग में भी डाकिया के कई रूप कौंध रहे थे। कभी मुझे एक प्रतिष्ठित साहित्यकार की कहानी का वह अंश याद आता, जिसमें डाकिये ने एक व्यक्ति को उसके रिश्तेदार की मौत की सूचना वाला पत्र इसलिए मात्र नहीं दिया, क्योंकि इस दुःखद समाचार से उस व्यक्ति की बेटी की शादी टल सकती थी, जो कि बड़ी मुश्किलों के बाद तय हुई थी। तो कभी विदेश से लौटकर आये एक व्यक्ति की बात कानों में गूँजती कि- कम से कम भारत में अपने यहाँ डाकिया हरेक दरवाजे पर जाता तो है। तो कभी अपने गांँव का वह डाकिया आता, जिसकी शक्ल सिर्फ वही लोग पहचानते थे जो कभी बाजार गये हों। क्योंकि वह डाकिया पत्र-वितरण हेतु कभी गाँव में आता ही नहीं था। हर बाजार के दिन वह खाट लगाकर एक निश्चित दुकान के सामने बैठ जाता और सभी पत्रों को खाट पर सजा देता। गाँव वाले हाथ बांधे खड़े इन्तजार करते कि कब उनका नाम पुकारा जायेगा। जो लोग बाजार नहीं आते, उनके पत्र पड़ोसियों को सौंप दिये जाते। तो कभी एक महिला डाकिया का चेहरा सामने आता जिसने कई दिन की डाक इकट्ठा हो जाने पर उसे रद्दी वाले को बेच दी। या फिर इलाहाबाद में पुलिस महानिरीक्षक रहे एक आई.पी.एस. अधिकारी की पत्नी को जब डाकिये ने उनके बेटे की नियुक्ति का पत्र दिखाया तो वह इतनी भावविह्नल हो गईं कि उन्होंने नियुक्ति पत्र लेने हेतु अपना आंचल ही फैला दिया, मानो मुट्ठी में वो खुशखबरी नहीं संभल सकती थी।

मैं इस तथ्य का प्रतिपादन नहीं करना चाहता कि हर डाकिया बुरा ही होता है या अच्छा ही होता है। पर यह सच है कि ‘‘डाकिया‘‘ भारतीय सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी है। डाकिया द्वारा डाक लाना, पत्रों का बेसब्री से इंतजार, डाकिया से ही पत्र पढ़वाकर उसका जवाब लिखवाना इत्यादि तमाम महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आप डाकिये के रहन-सहन, वेश-भूषा एवं वेतन पर मत जाइये, क्योंकि उसके परिचित सभी तबके के लोग हैं। कभी-कभी जो काम बड़े अधिकारी भी नहीं करा पाते वह डाकिया चंद मिनटों में करा देता है। कारण डाक विभाग का वह सबसे मुखर चेहरा है। जहाँ कई अन्य देशों ने होम-टू-होम डिलीवरी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाये हैं, या इसे सुविधा-शुल्क से जोड़ दिया है, वहीं भारतीय डाकिया आज भी देश के हर होने में स्थित गाँव में निःशुल्क अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है।

जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया। कल तक लोग थके-हारे धूप, सर्दी व बरसात में चले आ रहे डाकिये को कम से कम एक गिलास पानी तो पूछते थे, पर आज की पीढ़ी डाकिये को एक हरकारा मात्र समझकर पत्र लेने के तत्काल बाद दरवाजा धड़ाम से बन्द कर कर लेती है, फिर भावनात्मकता व आत्मीयता कहाँ? कहां गया वह अपनापन जब डाकिया चीजों को ढोने वाला हरकारा मात्र न मानकर एक ही थैले में सुख और दुःख दोनों को बांटने वाला दूत समझा जाता था?

वे बुजुर्ग व्यक्ति मेरे पास लम्बे समय तक बैठकर अपनी व्यथा सुनाते रहे और मैंने उनकी शिकायत के निवारण का भरोसा भी दिलाया, पर तब तक मेरा मनोमस्तिष्क ऊपर व्यक्त की गई भावनाओं में विचरण कर चुका था।