Saturday, January 9, 2010

चिठ्ठी में बंद यादें

मेहरुन्निसा परवेज़ का नाम साहित्य की दुनिया में जाना-पहचाना है. उनसे मेरा परिचय "समर लोक" पत्रिका के "युवा विशेषांक" के प्रकाशन के दौरान हुआ, उस समय मैं भोपाल में ट्रेनिंग ले रहा था. बाद में मेहरुन्निसा परवेज़ जी को पद्मश्री भी मिला. हाल ही में उन्होंने समर लोक का 'डाक' पर एक विशेषांक भी निकाला था. पत्रों पर मेरा भी एक लेख प्रकाशित किया, पर उसकी प्रति मुझे आज तक नहीं मिली....वैसे भी इंतजार का अपना अलग मजा होता है. कभी-न-कभी कोई शुभचिंतक पत्रिका की प्रति दे ही जायेगा. अभी मेहरुन्निसा परवेज़ जी का एक संस्मरण "चिठ्ठी में बंद यादें" पढ़ रहा था, जिसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है, आप भी इसके साझीदार बनें-

कहते हैं व्यक्ति के निर्माण में उसकी जन्म कुंडली के शुभ और अशुभ ग्रहों का विशेष प्रभाव होता है। हर ग्रह अपने भावों के साथ बैठा होता है, जिससे व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का आकलन किया जा सकता है। ऐसे ही बचपन में पाए संस्कार हमारे साथ जीवन भर रहते हैं। हमारी उंगली पकड़कर हमें दौड़ाते हैं।

उस दिन पुरानी आलमारी की सफाई कर रही थी। उसमें जाने कितने वर्षों पुराना अटाला भरा था। एक गट्ठर वहाँ रखा था। खोला तो पुरानी चिट्ठियों का बँधा ढेर था। हर चिट्ठी के साथ एक स्मृति और उसका इतिहास जुड़ा था। अम्मा के खत, अब्बा के लम्बे कई-कई पन्नों वाले पत्र और भी जाने कितने मित्रों के, पाठकों के पत्र थे। याने खत ही खत मेरे सामने थे। लिखने वालों में अब अधिकांश इस संसार में जीवित नहीं थे, पर उन चिट्ठियों में उस व्यक्ति की अपनी छवि, आब और वजूद वैसा ही बरकरार था। पोस्टकार्ड पर, लिफ़ाफ़ों पर उस समय की तारीखें और सन के साथ डाकघर की मोहर मौजूद थी। पोस्टकार्ड केवल अम्मा के थे। वह अपने खत पोस्टकार्ड पर ही लिखवाती थीं। आज भी किसी का पोस्टकार्ड पर लिखा खत आया है, तो एकदम से अम्मा की याद की फुरेरी कौंध जाती हैं। कितनी ढेर-ढेर स्मृतियों ने एक साथ आकर मुझे घेर लिया। स्मृतियों के हो-हल्ले और शोर ने मुझे बीते दिनों में पहुँचा दिया। हर स्मृति की अपनी अलग-अलग महक थी। जैसे किसी पुराने इत्रदान में रखे फोहा की महक। इत्र खत्म हो गया पर उसकी खुशबू उसमें अभी भी बसी थी। अब्बा के लम्बे पत्रों में दुनिया की, समाज की बातें और अन्त में नन्हा-सा एक आश्वासन, जो हमेशा मेरे काँपते कमज़ोर पैरों को ताकत देता था।

अम्मा के खुद के लिखे उर्दू के या फिर किसी के द्वारा लिखाए हिन्दी के खत और अन्त में बतौर तसदीक में उनके वही टेढ़े-मेढ़े हिन्दी के हस्ताक्षर, जिसे मैंने उन्हें कभी चौथी कक्षा में पढ़ते समय लिखना सिखाया था। टूटे-फूटे शब्द वाले हस्ताक्षर जो बाद में बैंक से लेकर जायदाद के दस्तावेज़ों में भी चलने लगे थे। अम्मा के हस्ताक्षर उनकी उपस्थिति को दर्ज कराता था। यह सारे पत्र अब मेरे लिए ज़िन्दगी के कीमती धरोहर थे। अम्मा के खतों में घर-परिवार और उनकी अपनी निजी बातें। लगता जैसे अम्मा बस सामने बैठी हैं और बोल रही हैं। हर शब्द के साथ उनकी ममता होती और दबी-छुपी गुप्त रहस्य की बातें होतीं। हर शब्द के पीछे तहखाना छुपा होता। अम्मा की इन्हीं बातों ने क्या मुझे हमेशा थामे नहीं रखा था? संसार के किसी कानून को नहीं मानने वाला मन इन्हीं हिदायतों की पाबंदी को कभी लांघ नहीं पाया था।

छोटी थी तब अम्मा के दुख-सुख की इकलौती गवाह थी। अम्मा की कितने दिनों की चिरौरी पर स्कूल के रास्ते में जो डाकघर पड़ता था, वहाँ से एक पोस्टकार्ड ख़रीद कर लाती और लौटकर अम्मा के हाथ में पोस्टकार्ड रख देती, जिसे वह झट अपने आँचल में छुपा लेतीं। अपने विद्वान पति से वह डरती थीं। देख लेने पर वह मखौल उड़ाते। इसलिए जब वह लम्बे दौरे पर होते और रात जब मैं पढ़ रही होती, तो कई बार झाँक कर देखतीं फिर चुपचाप आकर बैठ जातीं। मैं भी उनकी उत्सुकता, बेचैनी को ताड़ जाती, इसलिए जल्दी ही पढ़ाई खत्म करके उनका खत लिखने बैठ जाती। वह अपने अब्बा को और अपने इकलौते भाई को खत लिखातीं। वह बोलती जातीं और याद कर-कर रोती जातीं। कितनी ढेर बातें वह कहतीं फिर मना करतीं, "नहीं, नहीं, इसे मत लिखना वह लोग मेरे दु:खों का पता पा लेंगे।" अम्मा की कितनी ढेर बातें जो लिखाई नहीं जातीं। उन रद्द की गई बातों का ढेर मेरे आगे कचरे की तरह इकठ्ठा होता रहता। मुझे भी पता था अम्मा दस बात कहेंगी और एक बात लिखने कहेंगी इसलिए खुद ही उन बातों को संशोधन कर जो ठीक लगता उसे लिख देती। क्या आज के संपादक होने का गुण अम्मा के द्वारा लिखाए गए ख़तों से आया था? बचपन में अब्बा के दो वर्ष बीमार रहने के कारण उनके द्वारा लिखाए कोर्ट के फ़ैसले लिखते-लिखते मैं लेखिका बन गईं थी। क्या बाल मज़दूर की भूमिका में मुझे भविष्य के लिए मेरे माता-पिता गढ़ रहे थे? गीली माटी को सान-सान कर पच-पच लोंदो को थोप-थोप कर एक मूरत तैयार कर रहे थे? आज अम्मा नहीं हैं, ज़िंदा होतीं तो कहती, "रहने दे इसे मत लिख, ऐसा कहीं कोई संपादकीय लिखता है?"

स्कूल के रास्ते में डाकघर था। सड़क पर ही लाल पोस्ट बॉक्स लगा था जिसे हम बच्चे भानुमती का डिब्बा कहते थे। हमारी यह परिकल्पना थी कि इसके अन्दर एक जिन्न बंद है जो हर समस्या को सुलझा सकता है। बहुत छोटी थी, शायद पहली कक्षा में पढ़ती थी। किसी ने बताया था इसमें चिट्ठी डालते है जो कहीं भी पहुँच सकती है। नन्हें मन में एक विचार कौंधा और झट से अपनी कक्षा की कापी का पन्ना फाड़कर एक पत्र टूटी भाषा में दौरे पर गए अब्बा को लिखा था। ढेर सारे तोहफ़े लाने की फ़रमाइशें थीं, मेरे जीवन का वह पहला पत्र था। वह तोहफ़े तो कभी नहीं आए पर एक दिन जब उसी पत्र को डाकघर के पीछे कचरे के ढेर पर पड़ा देखा तो डाकघर वालों पर बहुत गुस्सा आया और उन्हें सजा देने का सोचा। रोज़ पोस्ट बॉक्स में ढेर-ढेर कंकड़-पत्थर-मेंढक डालने लगी। डाकघर वाले परेशान। एक दिन पोस्ट-मास्टर ने छुपकर पकड़ लिया। मेरी शिकायत पर उन्होंने समझाया, बेटा, पत्र लिफ़ाफ़े में रख, पता लिखकर उसे गोंद से चिपका कर भेजा जाता है। वह सबक आज तक रटा हुआ है। उसके बाद कभी मेरा कोई पत्र गुम नहीं हुआ। मुझे लिखे मेरे पाठकों के पत्र भी कभी गुम नहीं हुए। किसी ने सिर्फ़ मेरा नाम तथा भारत लिखा तो वह पत्र घूम-घूमकर सालों बाद भी मिला पर ज़रूर मिला। कई बार तो डेड-बॉक्स में पड़े रहने के बाद पोस्ट-मास्टर के लिखे पत्र के साथ मुझे भेजा गया। मैंने जो बचपन में डाकघर वालों को सजा दी थी, क्या यह उसी का परिणाम था?

खाकी वर्दी में पत्रों का थैला लटकाए हाथों में पत्रों का गट्ठर लिए उस अजनबी व्यक्ति का सबको इंतज़ार रहता है। खुशी की खबर, दु:खों की सूचना लिए दौड़ता वह डाकिया कितना अपना, निकट का व्यक्ति लगता है। वह सरकारी व्यक्ति है, यह बात मानने को मन तैयार नहीं होता। डाकिया की जो परिभाषा हमने जानी और समझी है, उसमें वह केवल सन्देश वाहक ही नहीं हैं बल्कि दूरस्थ अंचलों में बसे अनपढ़ों के लिए तो वह पत्रवाचक तथा पत्रलेखक भी है। वह हमारी संवेदना का श्रोत और खुशियों का हिस्सेदार भी है। एक छोटा-सा कर्मचारी हमारी ज़िन्दगी में किस तरह घुल-मिल गया है, कि उसका आगमन एक सरकारी कर्मचारी की तरह नहीं, भावनाओं के बादलों की तरह वह हमारे आँगन में दुख-सुख की बरसात करने वाले व्यक्ति के रूप में हम उसे जानते हैं। उसके थैले में हमारे अरमानों के और खुशियों के हीरे-मोती भरे होते हैं। सूरज के साथ वह निकलता है और मनुष्य के निस्सार जीवन में कितना रंग, कितनी हलचल और उथल-पुथल भर देता है।

'विरहा प्रेम की जागृत गति है और सुषुप्ति मिलन है।' वियोग की असह्य पीड़ा का निदान सन्देश से ही संभव है। सीताहरण के पश्चात राम निर्जन कानन में भटकते हुए पूछते हैं, "हे खग मृग हो मधुकर श्रेनी, तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।" मारू के बाल विवाह के पश्चात जब वह यौवन को प्राप्त होती है तब वह अपने पति ढोला से मिलने के लिए बेचैन है। मन के अंतरतम दर्द की गोपनीयता बनाए रखने के लिए तोते के माध्यम से सन्देश भेजती है। इस प्रकार अपने प्रियतम को सन्देश पहुँचाने की बेचैनी में लोगों ने वृक्ष, पर्वत, तोते, कबूतर, भँवरे एवं बादलों का सहारा लिया। कुटनी के सहारे अपने सन्देश पहुँचाने की कोशिश की है। कहीं अपनी अंगूठी, वस्त्र चिन्ह और रंग के माध्यम से अपने संदेश पहुँचाए हैं। मनुष्य को अपने सामाजिक संबंधों को निभाने तथा मन की भावनाओं को दूसरे तक पहुँचाने के उपक्रम में कितना भटकना पड़ा है। सदियों बाद डाकिया के उदय होने के पश्चात उसने राहत की सांस ली है। सन्देश संप्रेषण के रूप में जनभावना के संरक्षक की तरह उसने मानव इतिहास में एक अद्वितीय भूमिका निभाई है।

पत्रों ने जहाँ प्रेमियों को राहत दी, वहीं कई षड़यंत्र भी रचे और गवाह भी बने, पत्रों ने क्रांति की। बड़े साम्राज्यों के उत्थान-पतन के कारण बने। पत्रों से ग़लतफहमियाँ भी हुईं। इस तरह पत्रों ने उत्पात भी मचाया। पत्रों के माध्यम से अपराध पकड़े गए। आत्महत्या के समय लोग पत्र लिखकर मर जाते हैं, अन्त समय भी मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति पत्र से ही कर पाता है। सामाजिक संबंधों के पत्र, शादी-ब्याह के संदेश। आदिवासी इलाकों में लाल मिर्च, कमल का फूल युद्ध के संदेश माने जाते थे। बादशाह अकबर को रानी दुर्गावती ने पत्र लिखा था। रानी दुर्गावती ने सूत कातने का करघा अकबर को भेजा था कि बूढ़े हो गए घर बैठकर सूत कातो। अकबर ने उत्तर में चूड़ियाँ भेजी थीं कि - चूड़ी पहनो और घर बैठो। मीराबाई जब सामाजिक तानों और यातना से परेशान थी। साधु संगत से जोड़कर उस पर नाना प्रकार के आरोप लगाए जा रहे थे तब उसने तुलसी को पद में पत्र लिखा था। तुलसी ने भी उसका उत्तर पद से ही दिया था।

क्या टेलीफ़ोन, इन्टरनेट के फैलते जाल में अब डाकिया गुम होकर रह जाएगा? हर घर, हर गली में लगी फ़ोन सुविधा अब चिट्ठियाँ लिखने का रिवाज़ ही ख़त्म कर देंगी। सेलुलर फोन पर सड़क चलते, कार में, ट्रेन एवं एरोप्लेन में भी लोग खबर लेते रहते हैं कि पहुँच रहे हैं, क्या खाना पका, नींद आई या नहीं, तबीयत कैसी है, आदि। इसी प्रकार इंटरनेट संदेशों के आदान-प्रदान के साथ ही किसी विषय पर विचार, दवा के नुसख़े तथा अजनबियों से विचार-विमर्श। यहाँ तक कि सबेरे आनेवाला अखबार, लेख एवं पुस्तकों की पांडुलिपि तक बिना समय बिताए पढ़ सकते हैं। इतनी ढेर-ढेर सुविधाओं ने क्या मानवीय संवेदनाओं की बेल को सुखा नहीं दिया है? आज समय ही समय है परन्तु एहसास की, भावनाओं की कमी हो गई है, मन के भावों का समूचा ताल ही जैसे सूख गया है। नए संचार माध्यमों की जलकुंभी में सहज संदेशों के मनोहारी कमल क्या गुम हो जाएँगे, यह समय ही बताएगा।

7 comments:

Akanksha Yadav said...

खूबसूरत संस्मरण....वाकई इसका अनुभव हम सभी को होता है.

kavita verma said...

bahut rochak,aur bhavanapoorn hai,patraviheen sansaar ki peedha patra paane aur bhejane vaala hi samajh sakata hai.sunder rachana.

डॉ. मनोज मिश्र said...

बेहतरीन प्रस्तुति.

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति बधाई

Bhanwar Singh said...

नए संचार माध्यमों की जलकुंभी में सहज संदेशों के मनोहारी कमल क्या गुम हो जाएँगे, यह समय ही बताएगा....Behad samsamyik bat.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World said...

बेहद मासूम पोस्ट...सुन्दर भावनाएं. परवेज जी का आभार.

Anupama Tripathi said...

पत्रों की अहमियत आज भी बहुत है ...हाँ अब ई मेल ने पत्रों की जगह ले ली है ...समय बदल जाये ,पात्र बदल जाएँ पर भावनाएं नहीं बदलतीं ...
बहुत सुंदर लिखा है आपने ..