Monday, December 27, 2010

वो खत के पुरजे


कितना सुहाना दौर हुआ करता था, जब खत लिखे पढे और भेजे जाते थे । हमने पढे लिखे और भेजे इसलिये कहा क्योकि ये तीनो ही कार्य बहुत दुष्कर लेकिन अनन्त सुख देने वाले होते थे ।

खत लिखना कोई सामान्य कार्य नही होता था, तभी तो कक्षा ६ मे ही यह हमारे हिन्दी के पाठ्यक्रम मे होता था । मगर आज के इस भागते दौर मे तो शायद पत्र की प्रासंगिकता ही खत्म होने को है । मुझे याद है वो समय जब पोस्ट्कार्ड लिखने से पहले यह अच्छी तरह से सोच लेना पडता था कि क्या लिखना है, क्योकि उसमे लिखने की सीमित जगह होती थी, और एक अन्तर्देशीय के तो बँटवारे होते थे, जिसमे सबके लिखने का स्थान निश्चित किया जाता था । तब शायद पर्सनल और प्राइवेट जैसे शब्द हमारे जिन्दगी मे शामिल नही हुये थे । तभी तो पूरा परिवार एक ही खत मे अपनी अपनी बातें लिख देता था । आज तो मोबाइल पर बात करते समय भी हम पर्सलन स्पेस ढूँढते है ।

पत्र लिखने के हफ्ते दस दिन बाद से शुरु होता था इन्तजार – जवाब के आने का ।जब डाकिया बाबू जी को घर की गली में आते देखते ही बस भगवान से मनाना शुरु कर देते कि ये मेरे घर जल्दी से आ जाये । और दो चार दिन बीतने पर तो सब्र का बाँध टूट ही जाता था, और दूर से डाकिये को देखते ही पूँछा जाता – चाचा हमार कोई चिट्ठी है का ? और फिर चिट्ठी आते ही एक प्यारे से झगडे का दौर शुरु होता– कि कौन पहले पढेगा ? कभी कभी तो भाई बहन के बीच झगडा इतना बढ जाता कि खत फटने तक की नौबत आ जाती । तब अम्मा आकर सुलह कराती । अब तो वो सारे झगडे डाइनासोर की तरह विलुप्त होते जा रहे हैं ।

और प्रेम खतों का तो कहना ही क्या उनके लिये तो डाकिये अपनी प्रिय सहेली या भरोसेमंद दोस्त ही होते थे । कितने जतन से चिट्ठियां पहुँचाई जाती थी , मगर उससे ज्यादा मेहनत तो उसको पढ्ने के लिये करनी पडती थी । कभी छत का एकान्त कोना ढूँढना पडता था तो कभी दिन मे ही चादर ओढ कर सोने का बहाना करना पडता था । कभी खत पढते पढते गाल लाल हो जाते थे तो कभी गालो पर आसूँ ढल आते थे । और अगर कभी गलती से भाई या बहन की नजर उस खत पर पढ जाये तो माँ को ना बताने के लिये उनकी हर फरमाइश भी पूरी करनी पडती थी।

खत पढते ही चिन्ता शुरु हो जाती कि इसे छुपाया कहाँ जाय ? कभी तकिये के नीचे , कभी उसके गिलाफ के अंदर , कभी किताब के पन्नो के बीच मे तो कभी किसी तस्वीर के फ्रेम के बीच में । इतने जतन से छुपाने के बाद भी हमेशा एक डर बना रहता कि कही किसी के हाथ ना लग जाय, वरना तो शामत आई समझो ।

अब आज के दौर मे जब हम ई – मेल का प्रयोग करते है, हमे कोई इन्तजार भले ही ना करना पडता हो , लेकिन वो खत वाली आत्मियता महसूस नही हो पाती । अब डाकिये जी मे भगवान नजर नही आते । आज गुलाब इन्तजार करते है किसी खत का , जिनमे वो सहेज कर प्रेम संदेश ले जाये । शायद खत हमारी जिन्दगी मे बहुत ज्यादा अहमियत रखते थे तभी तो ना जाने कितने गाने बन गये थे – चाहे वो – वो खत के पुरजे उडा रहा था हो या ये मेरा प्रेम पत्र पढ कर हो , चाहे चिट्ठी आई है हो या मैने खत महबूब के नाम लिखा हो । आज चाहे ई –मेल हमारी जिन्दगी का हिस्सा जरूर बन गये हो मगर हमारी यादो की किताब मे उनका एक भी अध्याय नही , शायद तभी आज तक एक भी गीत इन ई-मेल्स के हिस्से नही आया ।

आज भी मेरे पास कुछ खत है जिन्हे मैने बहुत सहेज कर रक्खा है , मै ही क्यो आप के पास भी कुछ खत जरूर होंगे (सही कहा ना मैने) और उन खतों को पढने से मन कभी नही भरता जब भी हम अपनी पुरानी चीजों को उलटते है , खत हाथ में आने पर बिना पढे नही रक्खा जाता ।

साभार : अपर्णा त्रिपाठी - पलाश

Thursday, December 16, 2010

जिंदगी का लेटर बाक्स


इंतजार कर रहा हूँ
वर्षों से......
दोस्तों के खतों का
नाते-रिश्तेदारों के हाल-समाचार का
महसूसना चाहता हूँ फिर से
सजीव संबंधों की गर्माहट को

लेटर बाक्स से मिलता है सिर्फ
बिजली का बिल
काॅरपोरेशन का टैक्स
बैंक का स्टेटमेंट
या फिर
विज्ञापन के निर्जीव पर्चे !!

राज्यवर्धन
सचिव प्रलेस (पश्चिम बंगाल), एकता हाईट्स,

ब्लाक-2/11 ई0, 56,राजा एस. सी. मल्लिक रोड, कोलकाता-700032

Sunday, December 12, 2010

सोने के डाक टिकट


(आज 12 दिसंबर, 2010 के जनसत्ता अख़बार के रविवारी पृष्ठ पर 'सोने के डाक टिकट' शीर्षक से मेरा एक लेख प्रकाशित है. आप इस लेख को यहाँ भी पढ़ सकते हैं. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा)

डाक टिकटों के बारे में तो सभी जानते हैं लेकिन सोने के डाक-टिकट की बात सुनकर ताज्जुब होता है। हाल ही में भारतीय डाक विभाग ने 25 स्वर्ण डाक टिकटों का एक संग्रहणीय सेट जारी किया है। इसके लिए राष्ट्रीय फिलेटलिक म्यूजियम (नई दिल्ली) के संकलन से 25 ऐतिहासिक व विशिष्ट डाक टिकट इतिहासकारों व डाक टिकट विशेषज्ञों द्वारा विशेष रूप से भारत की अलौकिक कहानी का वर्णन करने के लिए चुने गए हैं, ताकि भारत की सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी धरोहरों की जानकारी दी जा सके और महापुरूषों को सच्ची श्रद्धांजलि।

सोने के इन डाक टिकटों को जारी करने के लिए डाक विभाग ने लंदन के हाॅलमार्क ग्रुप को अधिकृत किया है। हाॅलमार्क ग्रुप द्वारा हर चुनी हुई कृति के अनुरूप विश्व प्रसिद्ध कलाकारों द्वारा समान आकार व रूप के मूल टिकट के अनुरूप ही ठोस चांदी में डाक टिकट ढाले गये हैं और उन पर 24 कैरेट सोने की परत चढ़ायी गयी है। ‘‘प्राइड आफ इण्डिया‘‘ नाम से जारी किये गए ये डाक टिकट डायमण्ड कट वाले छिद्र के साथ 2.2 मि0मी0 मोटा है। 25 डाक टिकटों का यह पूरा सेट 1.5 लाख रूपये का है यानि हर डाक टिकट की कीमत 6,000 रूपये है। इन डाक टिकटों के पीछे भारतीय डाक और हाॅलमार्क का लोगो है।

इन 25 खूबसूरत डाक टिकटों में स्वतंत्र भारत का प्रथम डाक टिकट ‘जयहिन्द‘, थाणे और मुंबई के बीच चली पहली रेलगाड़ी पर जारी डाक टिकट, भारतीय डाक के 150 साल पर जारी डाक टिकट, 1857 के महासंग्राम के 150वें साल पर जारी डाक टिकट, प्रथम एशियाई खेल (1951), क्रिकेट विजय-1971, मयूर प्रतिरूप: 19वीं शताब्दी मीनाकारी, राधा किशनगढ़, कथकली, भारतीय गणराज्य, इण्डिया गेट, लालकिला, ताजमहल, वन्देमातरम्, भगवदगीता, अग्नि-2 मिसाइल पर जारी डाक टिकट शामिल किये गये हैं। इनके अलावा महात्मा बुद्ध, महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, जे.आर.डी.टाटा, होमी जहांगीर भाभा, मदर टेरेसा, सत्यजित रे, अभिनेत्री मधुबाला और धीरूभाई अम्बानी पर जारी डाक टिकटों की स्वर्ण अनुकृति भी जारी की जा रही है।

भूटान ने 1996 में 140 न्यू मूल्य वर्ग का ऐसा विशेष डाक टिकट जारी किया था जिसके मुद्रण में 22 कैरेट सोने के घोल का उपयोग किया गया था। विश्व के पहले डाक टिकट ‘पेनी ब्लैक‘ के सम्मान में जारी किये गये इस टिकट पर ‘22 कैरेट गोल्ड स्टेम्प 1996‘ लिखा है। इस टिकट की स्वर्णिम चमक को देखकर इसकी विश्वसनीयता के बारे में कोई संदेह नहीं रह जाता। यह खूबसूरत डाक टिकट अब दुर्लभ डाक टिकटों की श्रेणी में माना जाता है क्योंकि अब यह आसानी से उपलब्ध नहीं है।

भारतीय डाक विभाग ने हाॅलमार्क ग्रुप के साथ जारी किये जा रहे इन डाक टिकटों के बारे में सबसे रोचक तथ्य यह है कि ये स्वर्ण डाक टिकट डाकघरों में उपलब्ध नहीं हैं और न ही किसी शोरूम में। इन्हें प्राप्त करने के लिए विशेष आर्डर फार्म भर कर हाॅलमार्क को भेजना होता है। इसके साथ संलग्न विवरणिका जो इसकी खूबसूरती की व्याख्या करती है, आपने आप में एक अनूठा उपहार है। साथ ही वैलवेट लगी एक केज, ग्लब्स व स्विस निर्माणकर्ता द्वारा सत्यापित शुद्धता का प्रमाण पत्र इन डाक टिकटों को और भी संग्रहणीय बनाते हैं। इन डाक टिकटों की ऐतिहासिकता बरकरार रखने और इन्हें मूल्यवान बनाने के लिए सिर्फ 7,500 सेट ही जारी किया गया है।

सोने के ये डाक टिकट न सिर्फ डाक टिकट संग्रहकर्ताओं बल्कि अपनी सभ्यता व संस्कृति से जुड़े हर व्यक्ति के लिए एक अमूल्य धरोहर हैं. इसीलिए डाक टिकटों के पहले सेट को नई दिल्ली के राष्ट्रीय फिलेटलिक म्यूजियम में भी प्रदर्शन के लिए सुरक्षित रखने का फैसला किया गया है ।

Thursday, December 9, 2010

गौरैया और कबूतर के साथ उडेंगी चिट्ठियाँ

भारतीय डाक विभाग ने 9 जुलाई सन 2010 को गौरैया व कबूतर पर डाक टिकट जारी किए। गौरैया व कबूतर हमारी संस्कृति और परंपराओं का हिस्सा रहे हैं, लोकजीवन में इनसे जुड़ी कहानियां व गीत आप को लोक साहित्य में मिलेंगें। इधर कुछ वर्षों से पक्षी वैज्ञानिकों एंव सरंक्षणवादियों का ध्यान घट रही गौरैया की तरफ़ गया। नतीजतन इसके अध्ययन व सरंक्षण की बात शुरू हुई, जैसे की पूर्व में गिद्धों व सारस के लिए हुआ। डाक टिकटों में एक नर व मादा गौरैया को एक मिट्टी के घड़े पर बैठे हुए दर्शाया गया है, दूसरे सेट में कबूतरों का एक जोड़ा चित्रित है। एक डाक टिकट की कीमत पाँच रुपये हैं। जो पूरे भारत में आप के पत्र को पहुंचाने में सक्षंम हैं.डाक टिकटों को इकट्ठा करने वाले लोगों के संग्रह में कबूतर और गौरैया की तस्वीर वाले डाक टिकटों की बढ़ोत्तरी हो सकेगी।पक्षी प्रेमियों के लिए भी यह एक सुखद अनुभव होगा जब वह गौरैया या कबूतर वाले डाक टिकट लगे पत्रों को प्राप्त करेंगे या किसी को भेजेंगे।

हांलाकि ई-मेल व मोबाइल ने चिठ्ठियों के चलन को काफ़ी हद तक कम किया हैं, लेकिन हाथ से लिखे खत और उन पर चिपके हुए रंग-बिरंगी तस्वीरों वाले टिकट मानव मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ते हैं, साथ ही वह खत व टिकट लिफ़ाफ़े हमारे अतीत की यादों को सुरक्षित रखने में भी मदद करते हैं। क्योंकि जब भी आप इन धूल चढ़े लिफ़ाफ़ों से वह परत हटायेंगे तो बरबस ही वह पुराना वक्त और वह बाते ताजा होंगी जो इस खत में लिखी हुई हैं। खास बात है कि कागज के यह खत जो कहते हैं, उस बात का पालन करने के लिए हम अधिक तत्पर व संवेदनशील होते हैं। वह प्रभाव इलेक्ट्रानिक संपर्क के किसी माध्यम में मौजूद नही हैं।

इसलिए इस बार जब आप किसी को खत लिखे तो गौरैया व कबूतर वाले टिकट लगाना मत भूलिएगा, और यह भी जरूर लिखिएगा कि हमारें घरों व उनके आस-पास रहने वाले इन खूबसूरत परिन्दों के खाने-पीने का खयाल रखते है या नही।

साभार :दुधवा लाइव डेस्क

Saturday, December 4, 2010

डाक टिकट बनीं पत्र मित्रता

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी संग्रह करना बहुत से बच्चों की हॉबी का हिस्सा होता है, कोई अखबार में छपी रेसीपीज तो कोई विभिन्न देशों की मुद्राएं इकटी करने में लगा रहता है। डाक-टिकटों का संग्रह विश्व के सबसे लोकप्रिय शौकों में से एक है। डाक-टिकटों का संग्रह हमें स्वाभाविक रूप से सीखने को प्रेरित करता है, इसलिए इसे प्राकृतिक शिक्षा-उपकरण कहा जाता है। डाक-टिकट किसी भी देश की विरासत की चित्रमय कहानी हैं। डाक टिकटों का एक संग्रह विश्वकोश की तरह है, जिसके द्वारा हम अनेक देशों के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, ऎतिहासिक घटनाएं, भाषाएं, मुद्राएं, पशु-पक्षी, वनस्पतियों और लोगों की जीवनशैली एवं देश के महारथियों के बारे में बहुत सारी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

डाक टिकट का इतिहास
डाक-टिकट का इतिहास करीब 169 साल पुराना है। विश्व का पहला डाक टिकट 1 मई 1840 को ग्रेट ब्रिटेन में जारी किया गया था, जिसके ऊपर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का चित्र छपा था। एक पेनी मूल्य के इस टिकट के किनारे सीधे थे यानी टिकटों को अलग करने के लिए जो छोटे छोटे छेद बनाए जाते हैं, वे प्राचीन डाक टिकटों में नहीं थे। इस समय तक उनमें लिफाफे पर चिपकाने के लिए गोंद भी नहीं लगा होता था। इसके उपयोग का प्रारंभ 6 मई 1840 से हुआ। टिकट संग्रह करने में रूचि रखने वालों के लिए इस टिकट का बहुत महत्व है, क्योंकि इस टिकट से ही डाक-टिकट संग्रह का इतिहास भी शुरू होता है।

भारत में पहला डाक-टिकट
1 जुलाई 1852 में सिंध प्रांत में जारी किया गया, जो केवल सिंध प्रांत में उपयोग के लिए सीमित था। आधे आने मूल्य के इस टिकट को भूरे कागज पर लाख की लाल सील चिपका कर जारी किया गया था। यह टिकट बहुत सफल नहीं रहा क्योंकि लाख टूटकर झड़ जाने के कारण इसको संभालकर रखना संभव नहीं था। फिर भी ऎसा अनुमान किया जाता है कि इस टिकट की लगभग 100 प्रतियां विभिन्न संग्रहकर्ताओं के पास सुरक्षित हैं। डाक-टिकटों के इतिहास में इस टिकट को सिंध डाक के नाम से जाना जाता है। बाद में सफेद और नीले रंग के इसी प्रकार के दो टिकट वोव कागज पर जारी किए गए लेकिन इनका प्रयोग बहुत कम दिनों तक रहा, क्योंकि 30 सितंबर 1854 को सिंध प्रांत पर ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार होने के बाद इन्हें बंद कर दिया गया।ये एशिया के पहले डाक-टिकट तो थे ही, विश्व के पहले गोलाकार टिकट भी थे। संग्रहकर्ता इस प्रकार के टिकटों को महत्वपूर्ण समझते हैं और आधे आने मूल्य के इन टिकटों को आज सबसे बहुमूल्य टिकटों में गिनते हैं।

डाकटिकट संग्रह बना मनोरंजन
समय के साथ जैसे-जैसे टिकटों का प्रचलन बढ़ा टिकट संग्रह का शौक भी पनपने लगा। 1860 से 1880 के बीच बच्चों और किशोरों ने टिकटों का संग्रह करना शुरू कर दिया था। दूसरी ओर अनेक वयस्क लोगों में भी यह शौक पनपने लगा और उन्होंने टिकटों को जमा करना शुरू किया, संरक्षित किया, उनके रेकार्ड रखे और उन पर शोध आलेख प्रकाशित किए। जल्दी ही इन संरक्षित टिकटों का मूल्य बढ़ गया क्योंकि इनमें से कुछ तो ऎतिहासिक विरासत बन गए थे और बहुमूल्य बन गए थे। ग्रेट ब्रिटेन के बाद अन्य कई देशों द्वारा डाक-टिकट जारी किये गए।

1920 तक यह टिकट संग्रह का शौक आम जनता तक पहुंचने लगा। उनको अनुपलब्ध तथा बहुमूल्य टिकटों की जानकारी होने लगी और लोग टिकट संभालकर रखने लगे। नया टिकट जारी होता तो उसे खरीदने के लिए डाकघर पर भीड़ लगनी शुरू हो जाती थी। लगभग 50 वर्षो तक इस शौक का नशा जारी रहा। इसी समय टिकट संग्रह के शौक पर आधारित टिकट भी जारी किए गए। जर्मनी के टिकट में टिकटों के शौकीन एक व्यक्ति को टिकट पर अंकित बारीक अक्षर आवर्धक लेंस (मैग्नीफाइंग ग्लास) की सहायता से पढ़ते हुए दिखाया गया है। आवर्धक लेंस टिकट-संग्रहकर्ताओं का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। एक रूपये मूल्य का भारतीय टिकट, यू.एस. का टिकट तथा बांग्लादेश के लाल रंग के तिकोने टिकटों का एक जोड़ा टिकट संग्रह के शौक पर आधारित महत्वपूर्ण टिकटों में से हैं।

1940-50 तक डाक-टिकटों के शौक ने देश-विदेश के लोगों को मिलाना शुरू कर दिया था। टिकट इकटा करने के लिए लोग पत्र-मित्र बनाते थे। अपने देश के डाक-टिकटों को दूसरे देश के मित्रों को भेजते थे और दूसरे देश के डाकटिकट मंगवाते थे। पत्र-मित्रता के इस शौक से डाक-टिकटों का आदान प्रदान तो होता ही था लोग विभिन्न देशों के विषय में अनेक ऎसी बातें भी जानते थे, जो किताबों में नहीं लिखी होती हैं। उस समय टीवी और आवागमन के साधन आम न होने के कारण देश विदेश की जानकारी का ये बहुत ही रोचक साधन बने। पत्र-पत्रिकाओं में टिकट से संबंधित स्तंभ होते और इनके विषय में बहुत सी जानकारियों को जन सामान्य तक पहुंचाया जाता। पत्र-मित्रों के पतों की लंबी सूचियां भी उस समय की पत्रिकाओं में प्रकाशित की जाती थीं।

धीरे धीरे डाक टिकटों के संग्रह की विभिन्न शैलियों का भी जन्म हुआ। लोग इसे अपनी जीवन शैली, परिस्थितियों और रूचि के अनुसार अनुकूलित करने लगे। इस परंपरा के अनुसार कुछ लोग एक देश या महाद्वीप के डाक-टिकट संग्रह करने लगे तो कुछ एक विषय से संबंधित डाक-टिकट। आज अनेक लोग इस प्रकार की शैलियों का अनुकरण करते हुए और अपनी-अपनी पसंद के किसी विशेष विषय के डाक टिकटों का संग्रह करके आनंद उठाते है। विषयों से संबंधित डाक टिकटों के संग्रह में अधिकांश लोग पशु, पक्षी, फल, फूल, तितलियां, खेलकूद, महात्मा गांधी, महानुभावों, पुल, इमारतें आदि विषयों और दुनिया भर की घटनाओं के रंगीन और सुंदर चित्रों से सजे डाक टिकटों को एकत्रित करना पसंद करते है।

प्रत्येक देश हर साल भिन्न भिन्न विषयों पर डाक-टिकट जारी करते हैं और जानकारी का बड़ा खजाना विश्व को सौप देते हैं। इस प्रकार किसी विषय में गहरी जानकारी प्राप्त करने के लिए उस विषय के डाक टिकटों का संग्रह करना एक रोचक अनुभव हो सकता है। डाक-टिकट संग्रह का शौक हर उम्र के लोगों को मनोरंजन प्रदान करता है। बचपन में ज्ञान एवं मनोरंजन, वयस्कों में आनंद और तनावमुक्ति तथा बड़ी उम्र में दिमाग को सक्रियता प्रदान करने वाला इससे रोचक कोई शौक नहीं। इस तरह सभी पीढियों के लिए डाक टिकटों का संग्रह एक प्रेरक और लाभप्रद अभिरूचि है।

Thursday, December 2, 2010

डाक टिकटों में भारत दर्शन

प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की मुखिया श्रीमती सोनिया गांधी को उनकी इलाहाबाद यात्रा के दौरान 25 नवंबर 2010 को वरिष्ठ पत्रकार और रेल मंत्रालय में परामर्शदाता अरविंद कुमार सिंह ने अपनी हाल में प्रकाशित पुस्तक डाक टिकटों में भारत दर्शन की प्रथम प्रति भेंट की। इस अवसर पर उन्होंने श्रीमती सोनिया गांधी को यह भी जानकारी दी कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में शामिल रहे सेनानियों तथा कांग्रेस के 278 नेताओं पर अब तक भारत में डाक टिकट जारी हो चुके हैं। पर इन सभी डाक टिकटों में पंडित जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद जारी डाक टिकट सबसे महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक माना जाता है जो इलाहाबाद में ही उ.प्र. की तत्कालीन मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी ने 12 जून 1964 को जारी किया था। यह डाक टिकट दो करोड़ की संख्या में छपा था और दुनिया के तमाम हिस्सों में लोकप्रिय रहा था। आज तक किसी भी व्यक्तित्व पर इतनी बड़ी संख्या में डाक टिकट नहीं जारी हुए।

श्री सिंह की यह पुस्तक नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया (भारत सरकार) द्वारा प्रकाशित की गयी है और इसमें डाक टिकटों से संबंधित सभी पक्षों पर महत्वपूर्ण जानकारियां देने के साथ देश के सभी प्रमुख फिलैटलिस्ट, फिलैटली संस्थाओं आदि का भी विवरण दिया गया है। इसके अलावा उनकी एक और पुस्तक भारतीय डाक भी नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा हिंदी में प्रकाशित की गयी है जिसका उर्दू, अंग्रेजी तथा असमिया भाषा में प्रकाशन किया जा चुका है और इसका एक खंड एनसीईआरटी द्वारा आठवीं कक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम वसंत भाग-3 में भी शामिल किया गया है।

श्री सिंह ने इलाहाबाद में जनसत्ता के संवाददाता के रूप में अपना कैरियर 1983 में शुरू किया था और 1986 के बाद दिल्ली में चौथी दुनिया, अमर उजाला में लंबे समय तक कार्य करने के बाद हरिभूमि के दिल्ली संस्करण के संपादक समेत कई पदों पर कार्य किया। राष्ट्रपति तथा अकादमी पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित श्री सिंह संप्रति रेल मंत्रालय में परामर्शदाता हैं।

साभार : हिन्दीलोक

भारतीय डाक विभाग ट्विटर पर

दो सरकारी महकमों के प्रति बचपन से बहुत ही आकर्षण रहा है – रेल और डाक । आकर्षण अभी भी है। हांलाकि इन दो महान सेवाओं पर कई आक्रमण शुरु हो गये हैं ।

काशी के राजघाट किले स्थित साधना केन्द्र परिसर में मेरा शैशव बीता । इस परिसर की दो तरफ़ गंगा-वरुणा बहती हैं और तीसरी ओर काशी स्टेशन है। गंगा-वरुणा की भांति काशी स्टेशन से भी हमारी वानर-सेना का आकर्षण था। माल-गोदाम और स्टेशन पर मटर-गश्ती खूब होती थी। माल-वाहक डिब्बों को माल गोदाम में छोड़ने और ले जाने के लिए इंजन की शन्टिंग दिन भर होती । आम तौर पर कुकुर-मुँहा कोयले के इंजन यह काम करते । बिलार-मुँहा इंजन आम तौर पर एक्सप्रेस गाड़ियों में लगे होते। इंजन ड्राईवर और गार्ड अत्यन्त श्रद्धा और आकर्षण के पात्र होते। इंजन ड्राइवरों द्वारा रुमाल गँठिया कर टोपी बनाने की दो शैलियों पर गौर किया था लेकिन सीख एक ही पाये थे- रुमाल के चारों कोनों को गँठियाने वाली शैली। माल-गोदाम में शन्टिंग करने वाले इंजनों के ड्राइवर बहुत प्यासी दृष्टि से हम ताकते। कभी वे खुद पूछते,’ क्या बात है?’ -’ऊपर चढ़ कर अन्दर से इंजन देखना है।’ बेलचे से एक सधी हुई लय में कोयला उठाना और उसे धधकती भट्टी में डालना,भांप के दबाव की घड़ी पर ध्यान रखना, बाहर की तरफ़ लटक कर जायजा लेना,गोल हैण्डल घुमाकर इंजन को आगे या पीछे ले जाना ! गार्ड के डिब्बे से भी बहुत आकर्षण था।

दरजा चार से रिश्तेदारों को ख़त लिखने की माँ ने आदत डलवाई थी। यह झेलाऊ इसलिए नहीं लगता था कि उनके जवाब पा कर मानो पर लग जाते थे। हमारे स्कूल में भी सप्ताह में एक दिन हॉ्स्टल में रहने वाले लड़के-लड़कियों को क्लास में पोस्ट कार्ड दिए जाते थे। घर वालों को लिखने के लिए। शुरु में उन पर स्केल से लाईन खींच कर तब लिखा जाता। डाक-पेटी से डाकिए द्वारा पत्र निकालना , निकट के डाकघर में आने जाने वाली चिट्ठियों की छँटाई,बाहर से आई चिट्ठियों का वितरण इस पूरी प्रक्रिया को बहुत गौर से देखा समझा था। दरअसल एक छोटी सी किताब थी जिसमें अत्यन्त रोचक शैली में पूरी प्रक्रिया का सचित्र विवरण था। अपनी चिट्ठी डाक पेटी में डाल देने के बाद जब डाकिया पेटी को अपनी खाकी बोरी में खाली कर रहा होता है तो बच्चा उत्तेजित होकर माँ से कहता है-’देखो माँ, मेरी चिट्ठी भी यह आदमी चुराकर ले जा रहा है’। डाक घर के अन्दर के कमरे में एक गड्ढे में एक तिजोरी हुआ करती थी। बड़े डाक खाने से लाई गई सामग्री और नगद उसमें रखा होता था । इसके साथ उस तिजोरी में एक छुरा देखा था जिसमें दो घुँघरू लगे थे। इसका रहस्य तो कोई सुधी पाठक बतायेगा ।

मेरे गुरु का कहना था कि जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की सरकार यदि ठान लेगी तो उससे ही रोजगार का सृजन होगा। इस प्रकार पैदा रोजगार ’गड्ढ़े खोद कर उसे पाटने’ वाले काम जैसे नहीं होते। आज भी भारतीय डाक विभाग में डाकियों की भर्ती की जा सकती है। देश के कई गाँवों में हफ़्ते-पखवारे में एक बार डाक आती है,कई बार गाँव का कोई व्यक्ति हफ़्ते-पन्द्रह दिन में एक बार निकट के डाकखाने से पत्र ले आता है । देश की जनता की कपड़े की जरूरत को पूरा करने का मन यदि सरकार बना ले तो उसे हैण्डलूम को प्राथमिकता देनी होगी। पूरे देश को शिक्षित करने के लिए आज भी शिक्षकों की बहाली की गुंजाइश है। जब सभी सेवायें-सुविधाएं मुट्ठी-भर लोगों को ही मुहैय्या करने की नीति हो तब तमाम जरूरी रोजगार के अवसरों को समाप्त किया जाता है। सुना है बरसों से डाकियों की नियुक्ति बन्द है।

पिछले कुछ समय से डाक विभाग में रंग-रोगन ,ताम झाम में कुछ चमक-दमक बढ़ी है। डाकियों की संख्या नहीं बढ़ानी है।

हिन्दी में दो ब्लॉग डाक-डाकिया-डाक घर से जुड़े हैं – भारतीय डाक सेवा से जुड़े कृष्ण कुमार यादव ’डाकिया डाक लाया’ नामक ब्लॉग चलाते हैं तथा पप्पू ’डाकखाना’ नामक ब्लॉग चलाते हैं । निश्चित तौर पर हिन्दी ब्लॉग जगत को एक व्यापक आधार देने में इन दोनों चिट्ठों की अहम भूमिका मानी जाएगी। युनुस खान द्वारा शुरु किए गए रेडियोनामा नामक समूह चिट्ठे से इन दोनों चिट्ठों की तुलना की जा सकती है ।

भारतीय डाक विभाग ने पोस्ट ऑफ़िस इंडिया नाम से ट्विटर पर खाता खोला है । ट्विटर पर इस महकमे से जुड़कर हम इस पर हिन्दी को बढ़ा सकते हैं। डाक खानों में टंगी- ’शब्दों के लिए अटिकिए नहीं ,हिन्दी लिखते- लिखते आयेगी’ तख्ती को याद करें और डाक विभाग को हिन्दी में ट्विट करें !!