Wednesday, December 24, 2008

माँ का पत्र



घर का दरवाजा खोलता हूँ 
नीचे एक पत्र पड़ा है 
शायद डाकिया अंदर डाल गया है 
उत्सुकता से खोलता हूँ 
माँ का पत्र है 
एक-एक शब्द दिल में उतरते जाते हैं 
बार-बार पढ़ता हूँ
 फिर भी जी नहीं भरता 
पत्र को सिरहाने रख सो जाता हूँ 
रात को सपने में देखता हूँ 
माँ मेरे सिरहाने बैठी बालों में उंगलियाँ फिरा रही है। 

- कृष्ण कुमार यादव-

14 comments:

  1. एक नया ब्लॉग..एक नई शुरुआत..मुबारक हो मेरे यार !!

    ReplyDelete
  2. बार-बार पढ़ता हूँ
    फिर भी जी नहीं भरता
    पत्र को सिरहाने रख
    सो जाता हूँ
    *******************
    very nice poem.

    ReplyDelete
  3. रात को सपने में देखता हूँ
    माँ मेरे सिरहाने बैठी
    बालों में उंगलियाँ फिरा रही है।.....सुंदर और भावभीनी कविता.

    ReplyDelete
  4. संचार के साधन आज कहाँ-से-कहाँ पहुँच गए पर चिट्ठियों को कोई नहीं भूला...अति सुन्दर भाव और विचार.

    ReplyDelete
  5. माँ का पत्र है
    एक-एक शब्द
    दिल में उतरते जाते हैं
    बार-बार पढ़ता हूँ
    फिर भी जी नहीं भरता *****दिल को छूने वाली कविता..बधाई.

    ReplyDelete
  6. बेहतरीन रचना है...बहुत भाव पूर्ण...माँ होती ही ऐसी है...
    नीरज

    ReplyDelete
  7. मेरे ब्लॉग पर आने के लिया आप सभी का आभार.

    ReplyDelete
  8. blog shuru karne aur ek acchi kavita prakashit karne ke liye badhai

    ReplyDelete
  9. Apki yah kavita padhkar dil bag-bag ho gaya. Apne door ja chuki maan ki yad dila di.

    ReplyDelete
  10. वाह डाकिया बाबू,

    क्या बढिया कविता है आपकी 'पत्र को सिरहाने रख़ता हूं और रात को माँ मेरे सपने में सिरहाने बैठी उंगलियां फिरा रही है, वाह वाह वाह।

    ReplyDelete
  11. .....और लो हम भी आ गए नए साल की सौगातें लेकर...खूब लिखो-खूब पढो मेरे मित्रों !!नव वर्ष-२००९ की शुभकामनायें !!

    ReplyDelete
  12. ......अद्भुत, भावों की सरस अभिव्यंजना. कभी हमारे 'शब्दशिखर' www.shabdshikhar.blogspot.com पर भी पधारें !!

    ReplyDelete