घर का दरवाजा खोलता हूँ
नीचे एक पत्र पड़ा है
शायद डाकिया अंदर डाल गया है
उत्सुकता से खोलता हूँ
माँ का पत्र है
एक-एक शब्द
दिल में उतरते जाते हैं
बार-बार पढ़ता हूँ
फिर भी जी नहीं भरता
पत्र को सिरहाने रख
सो जाता हूँ
रात को सपने में देखता हूँ
माँ मेरे सिरहाने बैठी
बालों में उंगलियाँ फिरा रही है।
- कृष्ण कुमार यादव-
एक नया ब्लॉग..एक नई शुरुआत..मुबारक हो मेरे यार !!
ReplyDeleteबार-बार पढ़ता हूँ
ReplyDeleteफिर भी जी नहीं भरता
पत्र को सिरहाने रख
सो जाता हूँ
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very nice poem.
रात को सपने में देखता हूँ
ReplyDeleteमाँ मेरे सिरहाने बैठी
बालों में उंगलियाँ फिरा रही है।.....सुंदर और भावभीनी कविता.
संचार के साधन आज कहाँ-से-कहाँ पहुँच गए पर चिट्ठियों को कोई नहीं भूला...अति सुन्दर भाव और विचार.
ReplyDeleteमाँ का पत्र है
ReplyDeleteएक-एक शब्द
दिल में उतरते जाते हैं
बार-बार पढ़ता हूँ
फिर भी जी नहीं भरता *****दिल को छूने वाली कविता..बधाई.
बेहतरीन रचना है...बहुत भाव पूर्ण...माँ होती ही ऐसी है...
ReplyDeleteनीरज
मेरे ब्लॉग पर आने के लिया आप सभी का आभार.
ReplyDeletevery nice poem.
ReplyDeleteblog shuru karne aur ek acchi kavita prakashit karne ke liye badhai
ReplyDeleteApki yah kavita padhkar dil bag-bag ho gaya. Apne door ja chuki maan ki yad dila di.
ReplyDeleteवाह डाकिया बाबू,
ReplyDeleteक्या बढिया कविता है आपकी 'पत्र को सिरहाने रख़ता हूं और रात को माँ मेरे सपने में सिरहाने बैठी उंगलियां फिरा रही है, वाह वाह वाह।
.....और लो हम भी आ गए नए साल की सौगातें लेकर...खूब लिखो-खूब पढो मेरे मित्रों !!नव वर्ष-२००९ की शुभकामनायें !!
ReplyDelete......अद्भुत, भावों की सरस अभिव्यंजना. कभी हमारे 'शब्दशिखर' www.shabdshikhar.blogspot.com पर भी पधारें !!
ReplyDeleteThank u for supporting this blog.
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