Monday, January 4, 2010

चिठ्ठियाँ

आज एक ब्लॉग पढ़ा जिसमे चिठ्ठियों का जिक्र था, पढ़ कर कई सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं। मैं जब कक्षा ४ में थी तब हम लोग रतलाम से झाबुआ जिले के एक छोटे से गांव रानापुर में ट्रान्सफर हो कर गए थे । वह अपनी सहेलियों से बिछड़ने का पहला मौका था। आंसू भरी आँखों से उन सभी से उनका पता लिया और चिठ्ठी लिखने का वादा भी लिया। बचपन के वादे ज्यादा सच्चे होते है,इसीलिए सभी सहेलियों ने उसे ईमानदारी से निभाया, लगभग हर हफ्ते मुझे एक पोस्टकार्ड मिलाता, और मै उतनी ही ईमानदारी से उसका जवाब भी देती। हाँ इतना जरूर था की में एक हफ्ते में एक सहेली को पत्र लिखती थी और उसमे ही बाकियों को भी उनके प्रशनों या कहें की जिज्ञासाओं का जवाब दे देती थी। उस गाँव से ट्रान्सफर होने पर हम इंदौर आये । अब मेरा सखियों का संसार विस्तृत हो गया था,उसमे रतलाम और रानपुर की सहेलिया थीं,और सभी पूरे मन से इस दोस्ताने को निभा रही थी। इंदौर में ४ सालो के दौरान कई सहेलियां बनी पर शायद किसी से भी उतने मन से नहीं जुड़ पायी,इसी लिए इंदौर छोड़ने के बाद किसी से पत्रों के जरिये सतत संपर्क नहीं रहा। अब तक रतलाम की सहेलियों से भी पत्रों का सिलसिला टूट सा गया था ,एक तो उनसे दुबारा मिलाना नहीं हुआ ,दूसरे उनका भी एक नया दायरा बन गया था,पर हाँ उनकी यादे जरूर दिमाग के किसी कोने में बसी थी कुछ टूटी-फूटी ही सही पर थी जरूर। इसके आगे भी यादों, दोस्ती और पत्रों का सफ़र जारी रहा...!!

साभार : kase kahun?

9 comments:

  1. अजी हम तो अभी भी चिट्ठियां लिखते हैं.

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  2. हमारे पिता जी का जब तबादला होता था,पुराने संगी साथी छूट जाते थे,और नये बनते थे ।

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  3. अपने जीवन में बहुत कम पत्र लिखे .. इसका अफसोस है !!

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