डाकियाछोड़ दिया है उसने
लोगों के जज्बातों को सुनना
लम्बी-लम्बी सीढियाँ चढ़ने के बाद
पत्र लेकर
झट से बंद कर
दिए गए
दरवाजों की आवाज
चोट करती है उसके दिल पर
चाहता तो है वह भी
कोई खुशी के दो पल उससे बाँटे
किसी का सुख-दुःख वो बाँटे
पर उन्हें अपने से ही फुर्सत कहाँ?
समझ रखा है उन्होंने, उसे
डाक ढोने वाला हरकारा
नहीं चाहते वे उसे बताना
चिट्ठियों में छुपे गम
और खुशियों के राज
फिर वो परवाह क्यों करे?
वह भी उन्हें कागज समझ
बिखेर आता है सीढ़ियों पर
इन कागजी जज्बातों में से
अब लोग उतरकर चुनते हैं
अपनी-अपनी खुशियों
और गम के हिस्से
और कैद हो जाते हैं अपने में।
(जनसत्ता, 6 फरवरी 2010 में प्रकाशित उपरोक्त रिपोर्ट को देखकर बरबस मुझे अपनी यह कविता " डाकिया" याद आ गई. आप भी कुछ कहें !!)
कृष्ण कुमार यादव
चिट्ठियों में छुपे गम
ReplyDeleteऔर खुशियों के राज..
अब वह दौर कहाँ .
बेहतरीन प्रस्तुति_
ReplyDelete_______________ _________________
"शब्द-शिखर" पर सेलुलर जेल के यातना दृश्य....और वेलेंटाइन-डे पर "पहला प्यार" !
जो लोग परीक्षाएं दे रहे हैं, उनसे पूछें कि कितनी बेसब्री से प्रवेश-पत्र हेतु डाकिये का इंतजार करते हैं.
ReplyDeleteफिर वो परवाह क्यों करे?
ReplyDeleteवह भी उन्हें कागज समझ
बिखेर आता है सीढ़ियों पर
...संवेदनाएं खोती हैं तो यही होता है.
डाकिया आया और चिट्ठी देकर चला गया...हा..हा..हा..
ReplyDeleteडाकिये का इंतजार कम भले ही हो गया हो पर उसकी महत्ता अभी भी बनी हुई है.
ReplyDeleteसुन्दर कविता..बधाई.
ReplyDeleteसहज शब्दों में गूंथी गई सुन्दर अभिव्यक्तियाँ...बधाई.
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