दो सरकारी महकमों के प्रति बचपन से बहुत ही आकर्षण रहा है – रेल और डाक । आकर्षण अभी भी है। हांलाकि इन दो महान सेवाओं पर कई आक्रमण शुरु हो गये हैं ।
काशी के राजघाट किले स्थित साधना केन्द्र परिसर में मेरा शैशव बीता । इस परिसर की दो तरफ़ गंगा-वरुणा बहती हैं और तीसरी ओर काशी स्टेशन है। गंगा-वरुणा की भांति काशी स्टेशन से भी हमारी वानर-सेना का आकर्षण था। माल-गोदाम और स्टेशन पर मटर-गश्ती खूब होती थी। माल-वाहक डिब्बों को माल गोदाम में छोड़ने और ले जाने के लिए इंजन की शन्टिंग दिन भर होती । आम तौर पर कुकुर-मुँहा कोयले के इंजन यह काम करते । बिलार-मुँहा इंजन आम तौर पर एक्सप्रेस गाड़ियों में लगे होते। इंजन ड्राईवर और गार्ड अत्यन्त श्रद्धा और आकर्षण के पात्र होते। इंजन ड्राइवरों द्वारा रुमाल गँठिया कर टोपी बनाने की दो शैलियों पर गौर किया था लेकिन सीख एक ही पाये थे- रुमाल के चारों कोनों को गँठियाने वाली शैली। माल-गोदाम में शन्टिंग करने वाले इंजनों के ड्राइवर बहुत प्यासी दृष्टि से हम ताकते। कभी वे खुद पूछते,’ क्या बात है?’ -’ऊपर चढ़ कर अन्दर से इंजन देखना है।’ बेलचे से एक सधी हुई लय में कोयला उठाना और उसे धधकती भट्टी में डालना,भांप के दबाव की घड़ी पर ध्यान रखना, बाहर की तरफ़ लटक कर जायजा लेना,गोल हैण्डल घुमाकर इंजन को आगे या पीछे ले जाना ! गार्ड के डिब्बे से भी बहुत आकर्षण था।
दरजा चार से रिश्तेदारों को ख़त लिखने की माँ ने आदत डलवाई थी। यह झेलाऊ इसलिए नहीं लगता था कि उनके जवाब पा कर मानो पर लग जाते थे। हमारे स्कूल में भी सप्ताह में एक दिन हॉ्स्टल में रहने वाले लड़के-लड़कियों को क्लास में पोस्ट कार्ड दिए जाते थे। घर वालों को लिखने के लिए। शुरु में उन पर स्केल से लाईन खींच कर तब लिखा जाता। डाक-पेटी से डाकिए द्वारा पत्र निकालना , निकट के डाकघर में आने जाने वाली चिट्ठियों की छँटाई,बाहर से आई चिट्ठियों का वितरण इस पूरी प्रक्रिया को बहुत गौर से देखा समझा था। दरअसल एक छोटी सी किताब थी जिसमें अत्यन्त रोचक शैली में पूरी प्रक्रिया का सचित्र विवरण था। अपनी चिट्ठी डाक पेटी में डाल देने के बाद जब डाकिया पेटी को अपनी खाकी बोरी में खाली कर रहा होता है तो बच्चा उत्तेजित होकर माँ से कहता है-’देखो माँ, मेरी चिट्ठी भी यह आदमी चुराकर ले जा रहा है’। डाक घर के अन्दर के कमरे में एक गड्ढे में एक तिजोरी हुआ करती थी। बड़े डाक खाने से लाई गई सामग्री और नगद उसमें रखा होता था । इसके साथ उस तिजोरी में एक छुरा देखा था जिसमें दो घुँघरू लगे थे। इसका रहस्य तो कोई सुधी पाठक बतायेगा ।
मेरे गुरु का कहना था कि जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की सरकार यदि ठान लेगी तो उससे ही रोजगार का सृजन होगा। इस प्रकार पैदा रोजगार ’गड्ढ़े खोद कर उसे पाटने’ वाले काम जैसे नहीं होते। आज भी भारतीय डाक विभाग में डाकियों की भर्ती की जा सकती है। देश के कई गाँवों में हफ़्ते-पखवारे में एक बार डाक आती है,कई बार गाँव का कोई व्यक्ति हफ़्ते-पन्द्रह दिन में एक बार निकट के डाकखाने से पत्र ले आता है । देश की जनता की कपड़े की जरूरत को पूरा करने का मन यदि सरकार बना ले तो उसे हैण्डलूम को प्राथमिकता देनी होगी। पूरे देश को शिक्षित करने के लिए आज भी शिक्षकों की बहाली की गुंजाइश है। जब सभी सेवायें-सुविधाएं मुट्ठी-भर लोगों को ही मुहैय्या करने की नीति हो तब तमाम जरूरी रोजगार के अवसरों को समाप्त किया जाता है। सुना है बरसों से डाकियों की नियुक्ति बन्द है।
पिछले कुछ समय से डाक विभाग में रंग-रोगन ,ताम झाम में कुछ चमक-दमक बढ़ी है। डाकियों की संख्या नहीं बढ़ानी है।
हिन्दी में दो ब्लॉग डाक-डाकिया-डाक घर से जुड़े हैं – भारतीय डाक सेवा से जुड़े कृष्ण कुमार यादव ’डाकिया डाक लाया’ नामक ब्लॉग चलाते हैं तथा पप्पू ’डाकखाना’ नामक ब्लॉग चलाते हैं । निश्चित तौर पर हिन्दी ब्लॉग जगत को एक व्यापक आधार देने में इन दोनों चिट्ठों की अहम भूमिका मानी जाएगी। युनुस खान द्वारा शुरु किए गए रेडियोनामा नामक समूह चिट्ठे से इन दोनों चिट्ठों की तुलना की जा सकती है ।
भारतीय डाक विभाग ने पोस्ट ऑफ़िस इंडिया नाम से ट्विटर पर खाता खोला है । ट्विटर पर इस महकमे से जुड़कर हम इस पर हिन्दी को बढ़ा सकते हैं। डाक खानों में टंगी- ’शब्दों के लिए अटिकिए नहीं ,हिन्दी लिखते- लिखते आयेगी’ तख्ती को याद करें और डाक विभाग को हिन्दी में ट्विट करें !!
काशी के राजघाट किले स्थित साधना केन्द्र परिसर में मेरा शैशव बीता । इस परिसर की दो तरफ़ गंगा-वरुणा बहती हैं और तीसरी ओर काशी स्टेशन है। गंगा-वरुणा की भांति काशी स्टेशन से भी हमारी वानर-सेना का आकर्षण था। माल-गोदाम और स्टेशन पर मटर-गश्ती खूब होती थी। माल-वाहक डिब्बों को माल गोदाम में छोड़ने और ले जाने के लिए इंजन की शन्टिंग दिन भर होती । आम तौर पर कुकुर-मुँहा कोयले के इंजन यह काम करते । बिलार-मुँहा इंजन आम तौर पर एक्सप्रेस गाड़ियों में लगे होते। इंजन ड्राईवर और गार्ड अत्यन्त श्रद्धा और आकर्षण के पात्र होते। इंजन ड्राइवरों द्वारा रुमाल गँठिया कर टोपी बनाने की दो शैलियों पर गौर किया था लेकिन सीख एक ही पाये थे- रुमाल के चारों कोनों को गँठियाने वाली शैली। माल-गोदाम में शन्टिंग करने वाले इंजनों के ड्राइवर बहुत प्यासी दृष्टि से हम ताकते। कभी वे खुद पूछते,’ क्या बात है?’ -’ऊपर चढ़ कर अन्दर से इंजन देखना है।’ बेलचे से एक सधी हुई लय में कोयला उठाना और उसे धधकती भट्टी में डालना,भांप के दबाव की घड़ी पर ध्यान रखना, बाहर की तरफ़ लटक कर जायजा लेना,गोल हैण्डल घुमाकर इंजन को आगे या पीछे ले जाना ! गार्ड के डिब्बे से भी बहुत आकर्षण था।
दरजा चार से रिश्तेदारों को ख़त लिखने की माँ ने आदत डलवाई थी। यह झेलाऊ इसलिए नहीं लगता था कि उनके जवाब पा कर मानो पर लग जाते थे। हमारे स्कूल में भी सप्ताह में एक दिन हॉ्स्टल में रहने वाले लड़के-लड़कियों को क्लास में पोस्ट कार्ड दिए जाते थे। घर वालों को लिखने के लिए। शुरु में उन पर स्केल से लाईन खींच कर तब लिखा जाता। डाक-पेटी से डाकिए द्वारा पत्र निकालना , निकट के डाकघर में आने जाने वाली चिट्ठियों की छँटाई,बाहर से आई चिट्ठियों का वितरण इस पूरी प्रक्रिया को बहुत गौर से देखा समझा था। दरअसल एक छोटी सी किताब थी जिसमें अत्यन्त रोचक शैली में पूरी प्रक्रिया का सचित्र विवरण था। अपनी चिट्ठी डाक पेटी में डाल देने के बाद जब डाकिया पेटी को अपनी खाकी बोरी में खाली कर रहा होता है तो बच्चा उत्तेजित होकर माँ से कहता है-’देखो माँ, मेरी चिट्ठी भी यह आदमी चुराकर ले जा रहा है’। डाक घर के अन्दर के कमरे में एक गड्ढे में एक तिजोरी हुआ करती थी। बड़े डाक खाने से लाई गई सामग्री और नगद उसमें रखा होता था । इसके साथ उस तिजोरी में एक छुरा देखा था जिसमें दो घुँघरू लगे थे। इसका रहस्य तो कोई सुधी पाठक बतायेगा ।
मेरे गुरु का कहना था कि जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की सरकार यदि ठान लेगी तो उससे ही रोजगार का सृजन होगा। इस प्रकार पैदा रोजगार ’गड्ढ़े खोद कर उसे पाटने’ वाले काम जैसे नहीं होते। आज भी भारतीय डाक विभाग में डाकियों की भर्ती की जा सकती है। देश के कई गाँवों में हफ़्ते-पखवारे में एक बार डाक आती है,कई बार गाँव का कोई व्यक्ति हफ़्ते-पन्द्रह दिन में एक बार निकट के डाकखाने से पत्र ले आता है । देश की जनता की कपड़े की जरूरत को पूरा करने का मन यदि सरकार बना ले तो उसे हैण्डलूम को प्राथमिकता देनी होगी। पूरे देश को शिक्षित करने के लिए आज भी शिक्षकों की बहाली की गुंजाइश है। जब सभी सेवायें-सुविधाएं मुट्ठी-भर लोगों को ही मुहैय्या करने की नीति हो तब तमाम जरूरी रोजगार के अवसरों को समाप्त किया जाता है। सुना है बरसों से डाकियों की नियुक्ति बन्द है।
पिछले कुछ समय से डाक विभाग में रंग-रोगन ,ताम झाम में कुछ चमक-दमक बढ़ी है। डाकियों की संख्या नहीं बढ़ानी है।
हिन्दी में दो ब्लॉग डाक-डाकिया-डाक घर से जुड़े हैं – भारतीय डाक सेवा से जुड़े कृष्ण कुमार यादव ’डाकिया डाक लाया’ नामक ब्लॉग चलाते हैं तथा पप्पू ’डाकखाना’ नामक ब्लॉग चलाते हैं । निश्चित तौर पर हिन्दी ब्लॉग जगत को एक व्यापक आधार देने में इन दोनों चिट्ठों की अहम भूमिका मानी जाएगी। युनुस खान द्वारा शुरु किए गए रेडियोनामा नामक समूह चिट्ठे से इन दोनों चिट्ठों की तुलना की जा सकती है ।
भारतीय डाक विभाग ने पोस्ट ऑफ़िस इंडिया नाम से ट्विटर पर खाता खोला है । ट्विटर पर इस महकमे से जुड़कर हम इस पर हिन्दी को बढ़ा सकते हैं। डाक खानों में टंगी- ’शब्दों के लिए अटिकिए नहीं ,हिन्दी लिखते- लिखते आयेगी’ तख्ती को याद करें और डाक विभाग को हिन्दी में ट्विट करें !!
bahut hi badhiya jaankari di aapne
ReplyDeleteडाक विभाग तो सर्वत्र मौजूद है...
ReplyDeleteके.के. भाई, डाक सेवाओं पर आपका कार्य सराहनीय है. शैशव पर इसकी चर्चा पढ़कर अच्छा लगा...बधाई.
ReplyDeleteके.के. भाई, डाक सेवाओं पर आपका कार्य सराहनीय है. शैशव पर इसकी चर्चा पढ़कर अच्छा लगा...बधाई.
ReplyDeleteजो सर्वत्र पहुंचे, वही डाक है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर जानकारी मिली...आभार.
ReplyDeleteके.के. सर जी,
ReplyDeleteजिस तरह से आप डाक विभाग से जुडी बातों और रचनाओं को यहाँ स्थान दे रहे हैं, आपकी सक्रियता को सिर्फ नमन ही कर सकता हूं .
...डाक विभाग नई टेक्नालाजी को अपना रहा है.
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