विशेषज्ञों का मानना है कि ग्रामीण जनता के बीच वित्तीय सेवाओं को पहुंचाना जरूरी है। वंचितों तक वित्तीय सुविधा पहुंचाने का असर व्यक्ति, समूह और समाज सब पर पड़ता है। वित्तीय सेवाओं को सुलभ कराने के नतीजे सकारात्मक रहेंगे। वर्ल्ड बैंक की क्रिस्टिन कियांग का कहना है कि मोबाइल टेलीफोनी में दस फीसदी की बढ़ोतरी के साथ ही सकल राष्ट्रीय घरेलू उत्पादन में 0.8फीसदी की बढ़ोतरी हो जाती है। इस तरह माइक्रोफाइनेंस जैसी वित्तीय सेवाओं का उन लोगों की जिंदगी पर व्यापक असर पड़ रहा है, जिन्हें बैंकिंग सुविधा हासिल नहीं है।
वित्तीय समावेश का आखिर अर्थ क्या है? वित्तीय समावेश का मतलब है लोगों को उन लागतों पर वित्तीय सेवा मुहैया कराना, जिन्हें वे वहन कर सकें। इसके लिए सार्वजनिक और निजी बैंक दोनों कोशिश कर रहे हैं, लेकिन समाज का एक बड़े वर्ग तक बैंकिंग सेवाओं की पहुंच नहीं बन पाई है। वर्ष, 2004 के एक सर्वे के मुताबिक निम्न आय वर्ग में 100 लोगों में से सिर्फ 59 लोगों के पास बैंक खाता है। इसमें क्षेत्रीय विषमता भी है। मणिपुर में 100 में सिर्फ 17 लोगों के पास बैंक खाता है।
ज्यादातर नीति-निर्माता अनुदान, पेंशन, सब्सिडी जैसे तरीकों पर विश्वास करते हैं। नरेगा इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है, जिसमें गरीब मजदूरों को 100 दिन रोजगार की गारंटी है। लेकिन ये योजनाएं लीकेज से आक्रांत हैं। दरअसल सब्सिडी लंबे समय तक चलने वाले उपाय नहीं हैं। ये समस्या के फौरी इलाज हैं। सब्सिडी से समस्या का समाधान नहीं होता। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र अलग से ढीले रवैये से ग्रस्त हैं। इसलिए इस बात पर आश्चर्य होता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की अनोखी पहल का व्यापक असर क्यों हो रहा है। इंडिया पोस्ट बोर्ड के सदस्य डॉ. उदय बालकृष्णन से बात करने पर दो चीजों का पता चला। पहली यह कि सार्वजनिक क्षेत्र में खुद को एक नए रूप में ढालने की क्षमता है और दूसरी गरीबों की इच्छा हो तो उन्हें छोटी बचत योजनाओं की ओर आकर्षित कर वित्तीय बाजार से जोड़ा जा सकता है।
दरअसल वित्तीय समावेश के लिए अभी भारतीय डाक विभाग का पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ है। डाक विभाग की विश्वसनीयता और पहुंच जबरदस्त है। देश के 1,55,000 डाकघरों में 50000 कर्मचारी नियुक्त हैं। एक वितरण चैनल के तौर पर इनका काफी अच्छा इस्तेमाल हो सकता है। नरेगा में शामिल पांच करोड़ लोगों के भुगतान का भी यह विश्वसनीय माध्यम है। लोगों का डाकघर पर भरोसा है इसलिए वे अपनी वित्तीय प्लानिंग में इसकी भूमिका को शामिल कर लेते हैं। लगभग 20 करोड़ लोगों के पास डाकघर का बचत खाता है।
भारतीय डाक विभाग ने 1995 से ग्रामीण बीमा योजना शुरू की थी। लेकिन एक मुख्य कारोबार के तौर पर शायद ही इस पर जोर दिया हो। लेकिन हाल में जब इसने इस पर जोर देना शुरू किया तो नतीजे काफी उत्साहजनक निकले। ग्रामीण बीमा योजना पर जोर दिए जाने से कर्मचारी इससे जुड़ने लगे और कामकाज में दिलचस्पी लेने लगे। कुछ ही महीनों में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले एक करोड़ बीस लाख लोगों ने डाकघर बीमा योजना की पॉलिसी खरीदी। दस हजार रुपये तक बीमित राशि के लिए एक रुपये प्रति दिन के प्रीमियम के हिसाब से पॉलिसी बेची गई। यानी एक बीड़ी के बंडल की कीमत (छह रुपये) के बराबर प्रीमियम (प्रतिदिन) पर इससे बड़ी पॉलिसियां बेची गईं। इस तरह डाक विभाग बीमा क्षेत्र का एक बड़ा खिलाड़ी बन गया है। डाक विभाग दूसरी सारी बीमा कंपनियों की तुलना में दोगुना पॉलिसी बेच रहा है। हर महीने यह दस लाख पॉलिसीधारकों को जोड़ रहा है।
आखिर ग्रामीण जनता की इतनी बड़ी आबादी इस तरह की इंश्योरेंस पॉलिसी क्यों खरीद रही हैं? ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों को अपने बच्चों के लिए पैदा होने वाले अवसरों के बारे में पता चल रहा है। उनकी आकांक्षाएं बढ़ रही हैं। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपने बच्चों को सही शिक्षा दिलाई तभी इन अवसरों का लाभ उठा सकेंगे। माता-पिता अपने बच्चों के लिए बलिदान करने के लिए तैयार हैं और वह बच्चों के भविष्य के लिए रकम जोड़ने लगे हैं।
डाकघर बीमा योजना की सफलता के पीछे यह एक बड़ी वजह है। सबसे अहम वजह यह है लोग सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी स्कीमें खरीदने के लिए अपनी बचत का एक हिस्सा खर्च कर रहे हैं। एक बड़ी आबादी इसलिए निवेश कर रही है कि परिवार में किसी की मृत्यु की स्थिति में बच्चों की शिक्षा-दीक्षा बाधित न हो। इस तरह लोग सरकार के अनुदान,पेंशन और सब्सिडी नीति पर मोहताज न रह कर खुद ही वित्तीय समावेश की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। अगर आज सी के प्रह्लाद जिंदा होते तो उन्हें इस पर गर्व होता। आखिर उनके बॉटम ऑफ पिरामिड में मौजूद 30 करोड़ गरीबी से बाहर निकलने की ओर जो बढ़ रहे हैं।
साभार : बिजनेस भास्कर
वित्तीय समावेश का आखिर अर्थ क्या है? वित्तीय समावेश का मतलब है लोगों को उन लागतों पर वित्तीय सेवा मुहैया कराना, जिन्हें वे वहन कर सकें। इसके लिए सार्वजनिक और निजी बैंक दोनों कोशिश कर रहे हैं, लेकिन समाज का एक बड़े वर्ग तक बैंकिंग सेवाओं की पहुंच नहीं बन पाई है। वर्ष, 2004 के एक सर्वे के मुताबिक निम्न आय वर्ग में 100 लोगों में से सिर्फ 59 लोगों के पास बैंक खाता है। इसमें क्षेत्रीय विषमता भी है। मणिपुर में 100 में सिर्फ 17 लोगों के पास बैंक खाता है।
ज्यादातर नीति-निर्माता अनुदान, पेंशन, सब्सिडी जैसे तरीकों पर विश्वास करते हैं। नरेगा इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है, जिसमें गरीब मजदूरों को 100 दिन रोजगार की गारंटी है। लेकिन ये योजनाएं लीकेज से आक्रांत हैं। दरअसल सब्सिडी लंबे समय तक चलने वाले उपाय नहीं हैं। ये समस्या के फौरी इलाज हैं। सब्सिडी से समस्या का समाधान नहीं होता। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र अलग से ढीले रवैये से ग्रस्त हैं। इसलिए इस बात पर आश्चर्य होता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की अनोखी पहल का व्यापक असर क्यों हो रहा है। इंडिया पोस्ट बोर्ड के सदस्य डॉ. उदय बालकृष्णन से बात करने पर दो चीजों का पता चला। पहली यह कि सार्वजनिक क्षेत्र में खुद को एक नए रूप में ढालने की क्षमता है और दूसरी गरीबों की इच्छा हो तो उन्हें छोटी बचत योजनाओं की ओर आकर्षित कर वित्तीय बाजार से जोड़ा जा सकता है।
दरअसल वित्तीय समावेश के लिए अभी भारतीय डाक विभाग का पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ है। डाक विभाग की विश्वसनीयता और पहुंच जबरदस्त है। देश के 1,55,000 डाकघरों में 50000 कर्मचारी नियुक्त हैं। एक वितरण चैनल के तौर पर इनका काफी अच्छा इस्तेमाल हो सकता है। नरेगा में शामिल पांच करोड़ लोगों के भुगतान का भी यह विश्वसनीय माध्यम है। लोगों का डाकघर पर भरोसा है इसलिए वे अपनी वित्तीय प्लानिंग में इसकी भूमिका को शामिल कर लेते हैं। लगभग 20 करोड़ लोगों के पास डाकघर का बचत खाता है।
भारतीय डाक विभाग ने 1995 से ग्रामीण बीमा योजना शुरू की थी। लेकिन एक मुख्य कारोबार के तौर पर शायद ही इस पर जोर दिया हो। लेकिन हाल में जब इसने इस पर जोर देना शुरू किया तो नतीजे काफी उत्साहजनक निकले। ग्रामीण बीमा योजना पर जोर दिए जाने से कर्मचारी इससे जुड़ने लगे और कामकाज में दिलचस्पी लेने लगे। कुछ ही महीनों में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले एक करोड़ बीस लाख लोगों ने डाकघर बीमा योजना की पॉलिसी खरीदी। दस हजार रुपये तक बीमित राशि के लिए एक रुपये प्रति दिन के प्रीमियम के हिसाब से पॉलिसी बेची गई। यानी एक बीड़ी के बंडल की कीमत (छह रुपये) के बराबर प्रीमियम (प्रतिदिन) पर इससे बड़ी पॉलिसियां बेची गईं। इस तरह डाक विभाग बीमा क्षेत्र का एक बड़ा खिलाड़ी बन गया है। डाक विभाग दूसरी सारी बीमा कंपनियों की तुलना में दोगुना पॉलिसी बेच रहा है। हर महीने यह दस लाख पॉलिसीधारकों को जोड़ रहा है।
आखिर ग्रामीण जनता की इतनी बड़ी आबादी इस तरह की इंश्योरेंस पॉलिसी क्यों खरीद रही हैं? ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों को अपने बच्चों के लिए पैदा होने वाले अवसरों के बारे में पता चल रहा है। उनकी आकांक्षाएं बढ़ रही हैं। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपने बच्चों को सही शिक्षा दिलाई तभी इन अवसरों का लाभ उठा सकेंगे। माता-पिता अपने बच्चों के लिए बलिदान करने के लिए तैयार हैं और वह बच्चों के भविष्य के लिए रकम जोड़ने लगे हैं।
डाकघर बीमा योजना की सफलता के पीछे यह एक बड़ी वजह है। सबसे अहम वजह यह है लोग सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी स्कीमें खरीदने के लिए अपनी बचत का एक हिस्सा खर्च कर रहे हैं। एक बड़ी आबादी इसलिए निवेश कर रही है कि परिवार में किसी की मृत्यु की स्थिति में बच्चों की शिक्षा-दीक्षा बाधित न हो। इस तरह लोग सरकार के अनुदान,पेंशन और सब्सिडी नीति पर मोहताज न रह कर खुद ही वित्तीय समावेश की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। अगर आज सी के प्रह्लाद जिंदा होते तो उन्हें इस पर गर्व होता। आखिर उनके बॉटम ऑफ पिरामिड में मौजूद 30 करोड़ गरीबी से बाहर निकलने की ओर जो बढ़ रहे हैं।
साभार : बिजनेस भास्कर
यह डाक-टिकट वाली पिक्चर तो बहुत प्यारी लग रही है..
ReplyDeleteडाक बीमा योजना सरकार की अच्छी योजना है, पर इसे मात्र सरकारी-अर्द्ध सरकारी लोगों तक सीमित रखने की बजाय आम जन हेतु भी खोलना चाहिए.
ReplyDeleteडाक बीमा योजना सरकार की अच्छी योजना है, पर इसे मात्र सरकारी-अर्द्ध सरकारी लोगों तक सीमित रखने की बजाय आम जन हेतु भी खोलना चाहिए.
ReplyDelete