कहाँ गये वो दिन, जब आती थी चिट्ठियाँ
दुख-सुख का पैगाम, लाती थी चिट्ठियाँ।
दिल से लिखी इबारत, दिल में उतर जाती थी,
लिखने वाले की यादें, तरोताजा कर जाती थी चिट्ठियाँ।
पढ़ते-पढ़ते लिखने वाले की, तस्वीर उभर आती थी,
जब हाल-ए-दिल सुनाकर, बतियाती थी चिट्ठियाँ।
आँसू से लिखी चिट्ठियाँ, नयन डबडबाती थी,
भाव-विहवल कर ऑंखें, बरसाती थी चिट्ठियाँ।
चिट्ठी में लिख हर बात, दिल को छू जाती थीं,
दिल के तार हिलाती, कागज भिगों जाती थी चिट्ठियाँ।
गाँॅव का हाल सुनाकर, गाँव की याद कराती थी
अम्मा-बाबुजी की दुआओ, आशीषों से सहलाती थी चिट्ठियाँ।
खैर-खबर सुनाती नाचती-नचाती, हर्षाती थी,
बावला बनाती थी जब, हाथ में आती थी चिट्ठियाँ।
खुशियो की सौगात, प्यार की बरसात बन जाती थी,
भावनाओं के सागर में, गोते लगाती थी चिट्ठियाँ।
सब्र का बाँध तोड़कर बेकरारों सा बेचैन बनाती थी,
डाकिया का इंतजार करवाती, राह तकवाती थी चिट्ठियाँ।
जिन्हें पढ़ते-पढ़ते हम, खो जाते थे सीने से लगा,
सो जाते थे, ख्यालो-ख्वाबों में डूबाती थी चिट्ठियाँ ।
जिन्हें सहेज रखते थे, मीठी यादों की की तरह-दीवानों को तरह,
नायाब खजानों की तरह, जब संदूक में मिल जाती थी चिट्ठियाँ ।
अपनेपन का अहसास कराती हिचकियों का
राज बताती थी, तकिये के नीचे मिल जाती थी चिट्ठियाँ।
संदेशों का पैगाम सुनाती, बहुत सुकून पहुँचाती थी
जब अम्बा माथे से लगा, सीने से लगाती थी चिट्ठियाँ।
कहाँ गई वे अनमोल चिट्ठियाँ, जो जीने का सहारा बन जाती थी,
प्यार-दुलार जताती, हर्षो-उल्लास, उमंग से भर जाती चिट्ठियाँ।
-महेंद्र कुमार सिरोठिया, 119, मानस भवन,11, आर.एन.टी.मार्ग इंदौर
दुख-सुख का पैगाम, लाती थी चिट्ठियाँ।
दिल से लिखी इबारत, दिल में उतर जाती थी,
लिखने वाले की यादें, तरोताजा कर जाती थी चिट्ठियाँ।
पढ़ते-पढ़ते लिखने वाले की, तस्वीर उभर आती थी,
जब हाल-ए-दिल सुनाकर, बतियाती थी चिट्ठियाँ।
आँसू से लिखी चिट्ठियाँ, नयन डबडबाती थी,
भाव-विहवल कर ऑंखें, बरसाती थी चिट्ठियाँ।
चिट्ठी में लिख हर बात, दिल को छू जाती थीं,
दिल के तार हिलाती, कागज भिगों जाती थी चिट्ठियाँ।
गाँॅव का हाल सुनाकर, गाँव की याद कराती थी
अम्मा-बाबुजी की दुआओ, आशीषों से सहलाती थी चिट्ठियाँ।
खैर-खबर सुनाती नाचती-नचाती, हर्षाती थी,
बावला बनाती थी जब, हाथ में आती थी चिट्ठियाँ।
खुशियो की सौगात, प्यार की बरसात बन जाती थी,
भावनाओं के सागर में, गोते लगाती थी चिट्ठियाँ।
सब्र का बाँध तोड़कर बेकरारों सा बेचैन बनाती थी,
डाकिया का इंतजार करवाती, राह तकवाती थी चिट्ठियाँ।
जिन्हें पढ़ते-पढ़ते हम, खो जाते थे सीने से लगा,
सो जाते थे, ख्यालो-ख्वाबों में डूबाती थी चिट्ठियाँ ।
जिन्हें सहेज रखते थे, मीठी यादों की की तरह-दीवानों को तरह,
नायाब खजानों की तरह, जब संदूक में मिल जाती थी चिट्ठियाँ ।
अपनेपन का अहसास कराती हिचकियों का
राज बताती थी, तकिये के नीचे मिल जाती थी चिट्ठियाँ।
संदेशों का पैगाम सुनाती, बहुत सुकून पहुँचाती थी
जब अम्बा माथे से लगा, सीने से लगाती थी चिट्ठियाँ।
कहाँ गई वे अनमोल चिट्ठियाँ, जो जीने का सहारा बन जाती थी,
प्यार-दुलार जताती, हर्षो-उल्लास, उमंग से भर जाती चिट्ठियाँ।
-महेंद्र कुमार सिरोठिया, 119, मानस भवन,11, आर.एन.टी.मार्ग इंदौर
पंजाबी में हंसराज हंस का गाया एक गाना है 'असीं चिट्ठियां पाणियां भुल गए जदों दा टेलिफ़ोन लग्गेया'
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