Monday, April 1, 2013

चिट्ठी मनोभावों की संवाहिका

वह चिट्ठी थी मेरी बुआ की। मेरी दादी को मालूम था कि उनके द्वारा बेटी के यहां भेजे गए पकवान, चूड़ा, दही और साड़ी-चूड़ी-सिन्दूर को पहुंचाकर लगन महतो बेटी की चिट्ठी लेकर आएगा। घर में मेरे पिताजी, भैया, भाभी और मैं भी तो पढ़ी-लिखी थी। पर दादी बार-बार भाभी को अपने पास बुलातीं। कहतीं-'देख! जब रामलगन वापस आ जाए तो तुम मुझे सुशीला की चिट्ठी पढ़कर सुनाना। किसी काम का बहाना मत करना।'

 भाभी हंसतीं और कहतीं-'हां-हां, मैं सब काम छोड़कर पहले बुआ जी की चिट्ठी पढूंगी। पहले रामलगन को लौटने तो दीजिए।'
दादी द्वारा इंतजार करवाकर ही लगन लौटा था। दरवाजे स्थित कुएं पर बैठी दादी दातून कर रही थीं। नजर सड़क पर ही थी। रामलगन को आते देख वे दातून फेंककर रामलगन के साथ आंगन में आ गईं। भाभी को पुकारा। वे नाश्ता कर रही थीं। नाश्ता छोड़कर ही आ गईं। भला बेटी की चिट्ठी जो आई थी।
उन्हें चिट्ठी थमा कर बोलीं-'चलो! मेरी खटिया पर बैठो। मुझे चिट्ठी सुनाओ। जल्दबाजी मत करना।'
भाभी ने चिट्ठी खोली। उस पर पानी के दो चार बूंदों के दाग थे। दादी ने देखा। बोलीं-'देख! चिट्ठी लिखते समय सुशीला जरूर रोई होगी। उसके आंसू की ही बूंदें हैं।' और इतना कहकर दादी स्वयं आंचल से अपनी आंखें पोंछने लगीं। भाभी ने चिट्ठी पढ़नी प्रारंभ की। प्रारंभ में घर का कुशलक्षेम था। उसके बाद घर के सभी बड़े सदस्यों का नाम (रिश्ता) लेकर प्रणाम और एक-एक बच्चे को नाम से आशीष! एक बड़ी दादी और सबसे छोटे ननका का नाम छूट गया था। दादी बोल पड़ीं-'जल्दबाजी में होगी न। खाना बनाना, परोसना, खेतीबाड़ी का काम देखना, उस पर गोद का बच्चा।'
भाभी ने पूछा-'अब मैं आगे पढूं?'
'हां, हां पढ़ो दुलहिनिया। जुग-जुग जिओ। तुम्हारा सुहाग बना रहे।'
भाभी आशीर्वाद ग्रहण कर पढ़ना प्रारंभ करतीं। गाय, बैल, बगीचे के साथ पड़ोस की घटनाओं की भी चर्चा थी। सुशीला बुआ ने अपने पति की भी शिकायत लिखी थी। उन्होंने गांजा पीना शुरू कर दिया था। फिर क्या था। दादी का रोनाधोना प्रारंभ। एक घंटे में अनेक रुकावटों और दादी की समीक्षा के बाद चिट्ठी का वाचन समाप्त होता। दादी, उस कागज के पन्ने को ऐसे सहेजतीं-संभालतीं मानो अपनी नन्हीं बिटिया की तेल मालिश करके सुला रही हों। उस पन्ने को उलटतीं, पुलटतीं, सहलातीं, मोड़तीं, खोलतीं अपने बेटी के जन्म से लेकर विवाह तक के प्रसंगों के पन्ने पलट लेतीं।
भाभी को मालूम रहता कि उन्हें और कई बार चिट्ठी पढ़नी पड़ेगी। पढ़ने भर से काम नहीं चलता। भाभी को चिट्ठी लिखनी भी पड़ती।
चिट्ठी पत्री के आगमन और प्रस्थान की प्रक्रिया स्मरण करती हूं तो उसके लिखे जाने का अनुष्ठान सामने जीवंत हो उठता है। चिट्ठी लिखने की प्रक्रिया में ही साहित्य के नौ रसों का रसास्वादन हो जाता था। चिट्ठी सबसे पहले तो मन पर लिखी जाती थी। अधिकतर लोग निरक्षर होते थे। घर या मुहल्ले में एक दो व्यक्ति ही पढ़े-लिखे। उन पर ही चिट्ठी लिखने और पढ़ने की जिम्मेदारी होती थी। एक बार कह देने पर कोई चिट्ठी लिखने नहीं बैठ जाता था। चिट्ठी लिखना प्रारंभ करने से पूर्व लिखने वाला जितना साधक की मन:स्थिति में आता था उतना ही लिखवाने वाला या वालियां भी।
दोनों आमने-सामने बैठ जाते। लिखवाने वाला कहता था-'सबसे पहले लिखने वाली बात सब लिख जाओ।' फिर घर से लेकर गांव के सभी लोगों का नाम ले-लेकर आशीष या प्रणाम लिखवाया जाता था। घर के समाचारों में भैंस, गाय के बच्चे देने और उनमें से किसी किसी के मरने से लेकर खेतों की फसलों और बाढ़-सुखाड़ का भी वर्णन। फिर अपने मन का वर्णन। लिखने वाला उन समाचारों और भावों के संक्षेपण में सिद्धस्थ होता था। समाचार के रस के अनुसार लिखवाने वाले भी उन्हीं रसों में डूबे रहते थे। बिलख-बिलख कर रोते हुए लोगों के लम्बे प्रसंगों में से छोटा समाचार छांटना भी सहज काम नहीं होता था। चिट्ठी तैयार करके लिखवाने वाले को सुनाना भी। घंटों की मेहनत से चिट्ठी तैयार होती थी। रसों से लबालब भरी हुई। उसको ले जाने वाला कोई साधारण व्यक्ति तो होगा नहीं। वह असाधारण व्यक्ति होता था डाकिया। उन सभी लोगों की प्रतीक्षा का पात्र, जिनके आत्मीय बाहर रहते थे। अधिकांश वैसे लोगों में चिट्ठियों का आदान-प्रदान होता था जो स्वयं पढ़े-लिखे नहीं होते थे। डाकिए को कहीं-कहीं चिट्ठियां लिखनी भी पड़ती थीं और बांचनी भी। कभी-कभी तो एक बार चिट्ठी सुनाकर डाकिए नहीं जा सकता था। एक ही पत्र को दो तीन बार सुनाना पड़ता था।
डाकिया। वह डाकतार विभाग का सबसे निचले तबके का कर्मचारी नहीं, वह तो घर-घर की समस्याओं से परिचित समाज मन की गहरी समझ रखने वाला पुरुष होता था।
लोग उसके झोले से अपनी चिट्ठी निकलवाने के लिए उसे बाध्य करते थे। उनकी चिट्ठी हो तो डाकिया निकाले। डाकिया गांव का बहुत ही महत्त्वपूर्ण सदस्य होता था और डाक व्यवस्था की पूछिए मत। चिट्ठियों में भरे भावों और समाचारों के वजन का आकलन ही नहीं किया जा सकता।
चिट्ठियों के भी कई प्रकार होते हैं। चिट्ठियां समाचारवाहिका तो होती ही हैं, वे प्रेम की संवाहिका भी होती हैं, जिसे पाते ही हमारी पांचों ज्ञानेन्द्रियां सक्रिय हो जाती हैं। आंखें देखकर तृप्त होती हैं। कान सुनकर। त्वचा स्पर्श कर रोमांचित होती है, वहीं जिह्वा पर भी खट्टा-मीठा स्वाद तिर आता है। चिट्ठियों की सुगंध भी होती है। पांचों ज्ञानेन्द्रियों को सक्रिय करती चिट्ठियां लम्बे समय का संदेश दे जाती हैं।
हमारे लोकगीतों में चिट्ठियों का बड़ा ही सटीक और मार्मिक वर्णन मिलता है। पुरातन साहित्यों में भी चिट्ठियों के वर्णन हैं। आज भले ही चिट्ठियां डाक व्यवस्था के माध्यम से जाती हैं। हर काल में डाक व्यवस्था तो थी, उनके रूप भिन्न थे। कहा जाता है कि रुक्मिणी द्वारा श्रीकृष्ण को लिखी गई चिट्ठी 'विश्व का पहला 'प्रेम पत्र' थी। लोक गीतों में उसका वर्णन भी है।

'अंचरा में फाड़ी रु

रुक्मिणी कगजा बनाओल

नयन काजल मसिहान

चारों कोना लिखले

रुक्मिणी छेम कुशलवा

बीचे बीचे रुक्मिणी बयान।'

और उस चिट्ठी को पढ़कर ही कृष्ण रुक्मिणी का अपहरण करते हैं। वह शिशुपाल से ब्याही जाने से बच जाती हैं। अपने यहां डाक व्यवस्था द्वारा भेजी गई चिट्ठियों को सहेज कर रखने और समय-समय पर निकालकर पढ़ने, पढ़वाने का भी रिवाज रहा है।
डाक व्यवस्था की अहमियत तो आज भी है। कम्प्यूटरीकरण में मोबाइल और ईमेल के कारण चिट्ठी लिखने का अभ्यास छूट रहा है। अपना कोई सात समंदर पार हो या सात मील दूर, मोबाइल ही भावों का संवाहक बन गया है। पर चिट्ठियों के माध्यम से तो भाव भी अक्षर (जिसका क्षय नहीं होता) हो जाते हैं। उन अक्षरों को पढ़कर चिट्ठी पाने वाला लिखने वाले की मन:स्थिति का भी पता लगा लेता था।
ससुराल भेजने के पूर्व बेटियों को कम से कम चिट्ठी लिखना-पढ़ना सिखा दिया जाता था, ताकि वह ससुराल में मिल रहे सुख-दु:ख के भाव चिट्ठियों द्वारा भेज सके। अब तो वे कम्प्यूटर इंजीनियर हो रही हैं। अंतरिक्ष में गईं बेटियों को डाक व्यवस्था से क्या लेना देना। बावजूद इसके उन बेटे और बेटियों की संख्या आज भी कम नहीं जो चिट्ठियां लिखवातीं या लिखती हैं। उन्हें अपनों की चिट्ठियों का इंतजार रहता है। डाक व्यवस्था तो चाहिए ही। संवेदनशील डाकिए भी।

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