Saturday, April 18, 2009

एक पुस्तक डाकियों पर

डाकिया डाक-सेवा में तत्पर रहते हुए अनवरत एक महापुनीत अनुष्ठान करता रहता है। वह ‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन‘‘ का सच्चा अनुगमन करता है। इसी भाव-भूमि पर ‘‘भारतीय डाकियों की सामाजिक स्थिति‘‘ नाम से प्रकाश में आई पुस्तक वस्तुतः डाॅ0 कीर्ति पाण्डेय द्वारा गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रस्तुत शोध प्रबन्ध है, जिसे भारतीय डाकिये की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को समझने की दिशा में एक समाजशास्त्रीय प्रयत्न के रूप में देखा जा सकता है। गोरखपुर में कार्यरत 180 डाकियों के अध्ययन पर आधारित यह पुस्तक कुल 10 अध्यायों में विस्तृत है। इसमें भारतीय डाक सेवा: एैतिहासिक पुनरावलोकन, डाकियों की सामाजिक पृष्ठभूमि, डाकियों के परिवार का स्वरूप, डाकियों की आर्थिक पृष्ठभूमि व जीवन शैली, कार्यदशायें इत्यादि पर विस्तृत शोधपरक विश्लेषण किया गया है। वस्तुतः डाकिया एक सरकारी कर्मचारी होते हुए भी मानव-समाज का सेवक है जो ‘‘अहर्निशं सेवामहे‘‘ की भावना लिये अपने कर्तव्य पर डटा रहता है। पुस्तक में उद्धृत एक वाकया गौरतलब है- भूतपूर्व संचार मंत्री श्री स्टीफेन ने भोपाल में डाक-तार के उद्घाटन के अवसर पर कहा था कि-‘‘अगर स्वर्ग में एक जगह खाली हो और भगवान को सभी विभागों के कर्मचारियों में से किसी एक का चयन उस जगह के लिये करना हो तो वे ‘डाकिये‘ का ही चयन करेंगे क्योंकि उसने जीवन भर दूसरों के सन्देश घर-घर तक पहुँचाकर जो पुण्य कमाया है वह कोई दूसरा कर्मचारी नहीं कमा सकता।‘‘
पुस्तक- भारतीय डाकियों की सामाजिक स्थिति
लेखिका- डॉ0 कीर्ति पाण्डेय पृष्ठ-151, संस्करण- 2001, मूल्य-200 रू०
प्रकाशक- साहित्य संगम, नया 100, लूकरगंज, इलाहाबाद

2 comments:

  1. चलिए कोई तो डाकियों की सुध लेने वाला है.

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