Saturday, April 10, 2010
क्या-क्या न कराये ये डाक टिकट संग्रह का शौक
हम सभी ने बचपन मे ढेर सारी शरारतें की होंगी, अब चिट्ठाकार है तो निसंदेह बचपन(अभी भी कौन से कम है) मे खुराफाती रहे ही होंगे। नयी नयी चीजें ट्राई करना और नए नए शौंक पालना किसे नही पसन्द? तो आइए जनाब आज बात करते है बचपन के कुछ खुराफाती शौंक की। इसी बहाने हम सभी अपने अपने बचपन मे ताक झांक कर लेंगे।
डाकटिकटों का संग्रह ये शौंक अक्सर सभी बच्चों मे पाया जाता है। अब पुराने जमाने मे चिट्ठियों का बहुत चलन था, इसलिए डाक टिकटों का संग्रह कोई महंगा शौंक नही था। पहले पहल तो हमने अपने घर मे आने वाले सारे पत्रों की डाक टिकटों का संग्रह करना शुरु किया। हम पत्रों को पाते ही, सफाई से उसकी डाक टिकट निकाल लिया करते थे, धीरे धीरे हमे डाक टिकट निकालने मे अच्छी खासी काफी महारत हासिल होने लगी। सबसे पहले हमने रामादीन पोस्टमैन को मोहरा बनाया। बस ठाकुर के होटल पर बिठाकर एक कटिंग चाय पिलाने मे काम बन जाता था। जब तक रामादीन चाचा चाय और समोसे पर हाथ साफ़ करते , हम लोग डाकटिकटों पर हाथ साफ कर देते।
थोड़े दिनो मे रामादीन ने भी डिमांड करनी शुरु कर दी , बोले कटिंग चाय और बांसी समोसे से काम नही चलेगा, बोले आधा पाव दूध वाली चाय और मिठाई खिलाओ। हम लोगों ने कास्ट बेनिफिट एनालिसिस किया, और यह निश्चय किया कि हम रामादीन की वामपंथियो टाइप ब्लैकमेलिंग के आगे नही झुकेंगे और कांग्रेस की तरह अपने बलबूते मैदान मे उतरेंगे। इस तरह से हम लोगों ने, आत्मनिर्भर होकर मोहल्ले की चिट्ठियों को निशाना बनाना शुरु कर दिया।
हमारे लिए घर के बाहर लगे चिट्ठी वाले डाक बक्से खोलना भी कोई बड़ी बात नही रही थी। अब वो ज्ञान ही क्या जो अपना प्रकाश दूर दूर तक ना फैलाए, सो इस सूक्ति को चरितार्थ करते हुए हमने अपनी इस महारत को गली मौहल्ले के बच्चों तक पहुँचाया। लोगों को अब पत्र बिना डाक टिकट के मिलने लगे थे, पहले पहल तो लोगों को पता ही नही चलता, लेकिन धीरे धीरे कुछ शक्की लोगों ने हम लोगों की निगरानी शुरु कर दी थी। एक दो बार पकड़े भी गए, सूते भी गए, अब वो शौंक ही क्या, जो दबाने से दब जाए। हमारा यह शौंक जारी रहा, धीरे धीरे लोगों ने डाक टिकटों की परवाह करनी छोड़ दी।
अगली समस्या थी संग्रह करने की। हम लोग एक डब्बे मे डाक टिकटे संग्रहित करते, लेकिन टिल्लू और मैने एक दूसरे पर चोरी का इल्जाम लगाया। जो कि काफी हद तक सही इल्जाम था। काफी मुहाँचाई और हाथापाई के बाद नतीजा निकला कि हम लोग अपनी अपनी स्कूल की किताबों और कापियों मे टिकट सम्भालकर रखेंगे। थोड़े दिनो तक तो हम किताबों के अन्दर ही डाकटिकट संग्रहित कर लेते थे, लेकिन परेशानी ये होती थी, स्कूल मे दोस्त यार डाकटिकट छुवा देते, अब हमारी मेहनत पर कोई हाथ साफ करे, ऐसा कैसे हो सकता था। सो हम लोगों ने डाक टिकट संग्रह करने के लिए एक फाइल खरीदने का निश्चय किया। अब ये शौंक महंगा लगने लगा था।
अपने शौंक को और बेहतर बनाने के लिए हम हैड पोस्ट ऑफिस वाले पोस्टमास्टर से मिले, उसने हमको और नयी नयी कहानी समझा दी। बोला इस तरह का डाक टिकट संग्रह कुछ मायने नही रखता, तुम लोग फर्स्ट डे स्टैम्प का संग्रह करो, यानि जिस भी दिन कोई नयी डाक टिकट जारी हो (वैसे भी भारत मे इतने राजनेता वगैरहा है, किसी ना किसी की जन्म, मृत्यू या कोई एचीवमेंट डे अक्सर हर दिन होता ही रहता है।) पोस्ट ऑफिस मे आओ, फर्स्ट डे स्टैम्प कार्ड खरीदो, डाक टिकट लगाओ,स्टैम्प लगवाओ और उसको संग्रहित करो। मामला खर्चीला था, लेकिन अब क्या करें, जानकारी कम थी, इसलिए इनकी नसीहत को भी अपनाना पड़ा।
धीरे धीरे देशी डाकटिकटो से मन भर गया तो हम विदेशी चिट्ठियों की डाक टिकटों पर हाथ साफ़ करने लगे। उस जमाने मे सोवियत संघ से किताबे आया करती थी, उस पर डाकटिकट हुआ करते थे। हम लोग वो डाकटिकट छुवा दिया करते थे। फिर एक दिन पता चला कि किदवई नगर मे एक दुकानदार बाकायदा विदेशी डाकटिकटों की बिक्री करता है। ब्रिटेन, रोमानिया, हंगरी, नामिबिया और ना जाने कौन कौन से देशों की नयी नयी डाकटिकटे देखने को मिली। हमने जब उसके सोर्स के बारे मे जाँच पड़ताल की तो हमे पता चला कि वो जनाब विदेशी डाकटिकटों की रिप्रिंटिग करके बेचते थे। चोर को मिले मोर, हम लोग हर हफ़्ते(जिस दिन जेबखर्च मिलता था) किदवई नगर जाकर, डाक टिकट खरीदेते, खरीदते क्या जी, चार खरीदते और आठ चुपचाप गायब कर लाते। इस तरह से चोर के घर चोरी का सिलसिला शुरु हुआ। धीरे धीरे दुकानदार को हम पर शक होने लगा और उसने हम लोगों की दुकान मे इंट्री ही बैन कर दी। अब वो खुद चोरी करता था तो सही था, हम लोग करते थे तो गलत, ये कहाँ का इन्साफ़ है। सही कहते है, चोर वही होता है जो पकड़ा जाता है। अब हमारी जेबखर्च का आधा हिस्सा कामिक्स मे और बाकी का हिस्सा डाक टिकटों मे खर्च (ईमानदारी से खरीदने में) होने लगा. आप भी अपनी बचपन की डाकटिकटों के संग्रह वाली कहानी छापना मत भूलना।
साभार : http://www.jitu.info/merapanna/?gtlang=sq
रोचक.उत्प्रेरक और प्रेरणा प्रद संस्मरण.
ReplyDeleteअच्छा टॉपिक दिया इस संस्मरण ने...हमारे पास भी डाक टिकिट संग्रह की यादें हैं. :)
ReplyDeletebahut accha shauk hai...hamein to bas patthar batorne ka shauk tha alag kism ke...
ReplyDeletehttp://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
ये बहुत ही अच्छी बात है कि आप अपने विभाग से जुड़े विषयों को उठाते हैं ,और पूरी जानकारी एवं विस्तार से लाते हैं .
ReplyDeletedak tikaton ke bahane achhi jankari..
ReplyDeleteडाक टिकटों का संग्रह हम भी करते हैं..वाकई मजेदार.
ReplyDeleteInteresting and useful Information.
ReplyDeleteदिलचस्प व रोचक जानकारी..ऐसे संस्मरण साभार ही सही, पर मजेदार होते हैं.
ReplyDeleteडाक टिकटों के बारे में कित्ती प्यारी-प्यारी बातें, सुन्दर लगा.
ReplyDelete@ समीर जी,
ReplyDeleteकभी वक़्त मिले तो उन पर कुछ लिखें..आभारी रहेंगें.
@ सुशीला जी,
ReplyDeleteधन्यवाद, बस आप लोगों की दुआ व प्रोत्साहन ही संबल देता है.
आप सभी का आभार कि अपने हमारी हौसलाअफ़जाई की.
ReplyDeleteआपकी यह अनुपम पोस्ट बेजोड़ है..हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteदिलचस्प व रोचक जानकारी..
ReplyDeleteहुज़ूर एक बार इधर भी घूम जाइए-
ReplyDeletehttp://jitendrajauhar.blogspot.com/
कुछ अबके अजब हसरते-दीदार है वरना,
क्या गुल नहीं देखे, या गुलिस्ताँ नहीं देखा!
रौचक जानकारी,
ReplyDeletePlz visit here...........
Arvind Jangid,
LDC,
JNV, KC,
(Raj.)