Saturday, November 12, 2011

डाक टिकटों और लिफाफों के संग्राहक



बचपन में डाक टिकटें इकट्ठी करने का शौक तो हम में से बहुत लोगों को रहा होगा पर इस शौक को आगे बढ़ाने का रास्ता हममें से बहुत कम लोगों को मिला होगा। आज दुनिया की बहुत सी पुरानी और दुर्लभ डाक टिकटें और लिफाफे पेशेवर संग्रहकों द्वारा बहुत ऊंची कीमत पर खरीदी और बेची जा रही हैं। भारत भी इस विषय में पीछे नहीं है। हाल ही में जीनेवा की एक नीलामी में 1948 में भारत में गांधी जी पर जारी की गई एक डेढ आने की टिकट के साथ भेजा गया एक लिफाफा लगभग साढे पांच हज़ार यूरो में बिका जबकि इसका अनुमान दो हज़ार यूरो लगाया गया था। इस नीलामी में साढे तीन हज़ार यूरो तक बोली लगाई जर्मनी में रह रहे एक भारतीय डाक टिकट संग्रहक, राजेश वर्मा ने। स्टुट्टगार्ट निवासी राजेश वर्मा को हालांकि बचपन से डाक टिकटें इकट्ठी करने का शौक रहा है, पर 1981 में पटना में पढ़ाई खत्म करने के बाद जर्मनी आने के बाद यह शौक दोबारा पालने में उन्हें दो तीन साल लग गए। यहां उन्होंने देखा कि इस क्षेत्र में अनेक संस्थाएं सक्रिय हैं, जिनकी नियमित रूप से बैठकें आयोजित होती हैं, बहुत सारे व्यापार मेले आयोजित होते हैं जिनमें टिकटों, लिफाफों की अदला बदली, ख़रीद बेच और नीलामी होती है। एक मित्र ने उन्हें गांधी जी पर आधारित डाक टिकटें और लिफाफे संग्रहित करने की सलाह दी। आज उनके पास दुनिया भर के देशों द्वारा गांधी जी पर जारी की गई सैंकड़ों डाक टिकटों और उनके साथ भेजे गए लिफाफों का संग्रह है, जैसे बेल्जियम, भूटान, कैमरून, माल्टा, सीरिया, यमन, साइप्रस, ब्राजील, मॉरीशस, उरुग्वे, सोमालिया, पनामा, वेनेजुएला, माली, एंटीगुआ और बारबुडा, त्रिनिदाद और टोबैगो, ग्रेनेडा, आयरलैण्ड, इंग्लैण्ड, यूनान, हंगरी, कज़ाकस्तान, मेसेडोनिया, टोगो, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम, संयुक्त अरब गणराज्य, जर्मनी, कांगो, सेनेगल, मैक्सिको, चाड, मॉरिटानिया, नाइजीरिया, गैबॉन निकारागुआ, जिब्राल्टर, सैन मैरिनो आदि। इन डाक टिकटों के अलावा वर्मा जी के पास गांधी जी की टिकटों के साथ उपयोग किए गए लिफाफों का भी अद्भुत संग्रह है। कुछ दुर्लभ लिफाफे तो सचमुच आम व्यक्तियों द्वारा दूसरे देशों में डाक द्वारा भेजे जाने पर दुनिया की सैर करने के बाद उनके हाथ में आए हैं। राजेश वर्मा जी का कहना है कि यहां डाक टिकटों के संग्रह के लिए अच्छी एल्बमें और बहुत सारा सामान भी मिलता है। कम नमी के कारण यहां वर्षों तक भी टिकटें नई लगती हैं, जबकि भारत में नमी अधिक होने के कारण कुछ वर्षों बाद टिकटें पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं। उन्होंने डाक टिकटों और लिफाफों के अपने संग्रह को कई देशों में प्रदर्शित किया है। वे फरवरी 2011 में भारतीय एयर-मेल की सौ वीं सालगिरह के मौके पर दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित की जा रही विश्व डाक टिकट प्रदर्शनी में हिस्सा लेने भी जा रहे हैं।

15 अगस्त 1948 को पहले स्वतन्त्र दिवस के मौके पर महात्मा गांधी जी के चित्र के साथ डेढ आना, साढे तीन आना, बारह आना और दस रुपए की चार डाक टिकटों के चार सेट जारी किए गए थे। हालांकि इन डाक टिकटों को जारी करने की योजना जनवरी से ही चल रही थी जब गांधी जी जीवित थे। पर इससे पहले कि टिकटें जारी हो पातीं, गांधी जी की हत्या कर दी गई। ये डाक टिकटें स्विट्ज़ेलैण्ड में मुद्रित की गईं थी। यह भाग्य की विडंबना ही है कि गांधी जी, जिन्होंने जीवन भर स्वदेशी के आदर्श तले काम किया, उन पर आधारित पहली डाक टिकट विदेश में मुद्रित की गई। इनमें से दस रुपए वाली टिकट आम व्यक्ति की पहुंच से बाहर थी। ये पहली और आख़िरी डाक टिकटें हैं जिन पर उर्दू में बापू लिखा हुआ है। यह नेहरू जी की सलाह पर किया गया था। उस समय के गवर्नर जनरल के आदेश पर केवल सरकारी उपयोग के लिए इनमें से दस रुपए वाली टिकटों की सौ अतिरिक्त प्रतियां छापी गईं थी जिन पर 'service' लिखा होता है। यह विश्व की बहुत दुर्लभ टिकटें हैं। इनमें से कुछ टिकटें कुछ गणमान्य व्यक्तियों को उपहार के रूप में दे दी गईं, और कुछ दिल्ली के राष्ट्रीय डाक टिकट संग्रहालय को दे दी गईं। इनमें से अधिकतम आठ प्रतियां निजी हाथों हैं, जिनके कारण वे बहुत दुर्लभ और कीमती हो गईं। इनमें से एक टिकट 5 अक्तूबर 2007 को स्विट्ज़रलैण्ड में डेविड फेल्डमैन कंपनी द्वारा की नीलामी में 38,000 यूरो में बिकी।

-साभार : बसेरा (जर्मनी की हिन्दी पत्रिका )

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