अभी वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर द्वारा सम्पादित पत्रिका ’अकार‘ को मैं पढ रही थी, उसमें लार्ड भिक्खु पारीख की ’ओसामा बिन लादेन बनाम महात्मा गाँधी‘ काल्पनिक पत्र-संवाद के माध्यम से लिखी रचना प्रकाशित की गयी है। एक तरफ लादेन का इस्लामवाद बनाम हिंसावाद है तो दूसरी तरफ गाँधी का अहिंसावाद है। दोनों ने अपनी बात पत्रों के माध्यम से कही है। एक ने हिंसा की वकालात की है तो दूसरे ने अहिंसा का मार्ग ही श्रेष्ठ बताया है। लादेन के रूप में लेखक ने अमेरिका और ईसाइयत की मंशा को प्रकट किया है, इसी कारण इस्लामी साम्राज्यवाद को भी विस्तार देने एवं उसे पुनःस्थापित करने का तर्क प्रस्तुत किया है। पत्रों के माध्यम से लेखक ने एक सशक्त अभिव्यक्ति पाठकों को उपलब्ध कराई है। इसी प्रकार पत्रिका में अज्ञेय के कुछ पत्र भी प्रकाशित किए गए हैं। पत्रों को पढने के बाद मन में पत्र-शैली के प्रति विस्मृत प्रेम उमड पडता है, लेकिन वर्तमान में पत्र-लेखन के अभाव के कारण कहीं एक शून्य भी उभर आता है। हमारे आपसी रिश्तों का शून्य, अभिव्यक्ति की सरलता और सहजता का शून्य, आत्मा के आनन्द का शून्य। क्या प्रेम की अभिव्यक्ति के ये सहज माध्यम, भविष्य में अपना अस्तित्व खो देंगे? क्या हमारे मध्य केवल सूचनाओं का ही आदान-प्रदान होगा? क्या अब कोई नायिका बिस्तर पर, टाँगों को झुलाती हुई, पत्रों का सुख प्राप्त नहीं करेगी? क्या कोई नायक अब अपने मन की बात लिखाने को अपना कोई मित्र नहीं तलाशेगा? सीमा पर गए किसी पुत्र का पत्र क्या अब चौपाल पर नहीं पढा जाएगा? क्या अब इन्टरनेट के माध्यम से केवल ’मैं ठीक हूँ, आप कैसे हैं‘ का ही आदान-प्रदान होगा? या फिर हम फोन से ही घण्टों चिफ रहकर दिनचर्या और रात्रिचर्या का ही विवरण देते रहेंगे ?
लाल, हरी, नीली, काली स्याही, यहाँ तक की कभी खून से खत लिखना, एक-एक शब्द को सजाना, कभी शब्दों के माथे को कंगूरेदार बंधन से बाँधना तो कभी वैसे ही खुले छोड देना। कभी किन्हीं पंक्तियों को अण्डर लाइन करना तो कभी बॉक्स बना देना। लिफाफा देखकर ही मजमूं भाँप लेना और पत्र को होले से, चुफ से खोलना। पत्र पर पता सीधे ही व्यक्ति को इंगित करते हुए लिखा जाए या फिर केयर ऑफ या फिर डॉटर आफ या ऐसा ही कुछ। जैसे ही सुबह के ग्यारह बजते, बराण्डा आबाद हो जाता। बार-बार चहलकदमी करते हुए मुख्य द्वार पर ही निगाहें टिकी रहतीं। कब डाकिया आएगा और कब कोई पत्र वह लाएगा? यह जरूरी नहीं था कि कोई प्रेम पत्र ही आएगा, लेकिन कोई भी पत्र आए, बस यही इन्तजार रहता था। डाकिया भी कभी पानी पीता, कभी छाछ पी लेता, होली-दीवाली ईनाम भी पा लेता। लेकिन अब न जाने कब डाकिया आता है और कब डिब्बे में फालतू से कागज डालकर चला जाता है। हाँ, कूरीयर वाला जरूर हाथ में डाक देकर जाता है। लेकिन वह भी तो किसी मीटिंग की सूचना मात्र ही होती है।
मन तडप उठता है, कभी ठाले बैठे हुए। कलम की स्याही मचलने लगती है, शब्द भी बादलों की तरह घुमड-घुमड कर आने लगते हैं, लेकिन किस को पत्र लिखें? कभी बच्चों को एकाध बार लिख दिया तो वे फोन पर बोले कि इतना बडा पत्र पढने में तो समय लगेगा, कभी फुर्सत से पढेंगे, और यह फुर्सत उन्हें आज तक नहीं मिली। पति और पत्नी तो आज साथ-साथ ही रहते हैं, कैसे पत्र लिखें? यदि अलग-अलग शहरों में नौकरी के कारण रहते हैं भी तो फोन है न, हालचाल पूछने के लिए। मित्र तो आज रहे ही नहीं, बस सभी या तो साथी हैं या फिर बिजनेस पार्टनर। लेकिन फिर भी पत्र लिखे जा रहे हैं। मधुमती जैसे ही लोगों के हाथों में जाती है, वैसे ही कुछ पत्र आते हैं। लेकिन लगता है जैसे यह भी एक सभ्यता का तकाजा मात्र ही है। शायद उसके पीछे भी कहीं छपासीय-सम्बन्ध बनाने की ही सोच है। कभी-कभी लगता है कि नहीं कुछ लोग हैं जो वास्तव में पत्र लिख रहे हैं। वे यदि प्रयास करें और मित्र-भाव को ही बढावा देने के लिए पत्र लिखें तो पत्रों का वजूद पुनः जीवित हो उठेगा। नहीं तो हमारा आने वाला कल पत्र-विहीन हो जाएगा।
ऐसा नहीं है कि संचार-माध्यमों के कारण पत्रों का वजूद समाप्त हुआ हो। इसका एक कारण मुझे और दिखायी देता है। हमारे मन में अपनी बात कहने की जो ललक थी, वह समाप्त होती जा रही है। हमारा अन्दर जैसे रीत गया हो। हम जब बातें भी करते हैं तब भी यही होता है, फालतू की बातें, राजनीति की बातें, खेल की बातें आदि। कभी लगता है जैसे हम अपने आपसे ही भागते फिर रहे हैं। कहीं बातें करने लगें और रिश्तों की बातें निकल जाएँ, उन्हें पनपाने की बातें निकल जाएँ, तो फिर क्या होगा ? नौकरी में भी यही डर बना रहता है, सबसे दूरी बनाकर चलो। नजदीकियाँ परेशानी का कारण बन सकती हैं। हम एक-दूसरे को मात देने का ही खेल खेल रहे हैं, इसी कारण यदि मन की और आत्मा की बातें कर लीं तो फिर झगडा ही क्या रह जाएगा ? घर-परिवार में भी यही डर हम पर हावी है। बेटा, बाप से बात नहीं करता। क्यों नहीं करता ? कहीं बाप उससे उसकी कमाई न पूछ ले! बेटा आजकल माँ से भी बात नहीं करता, कहीं माँ उससे प्रेम की भीख न माँग ले! भाई अपनी बहन से भी बात करते हुए कतराता है, कहीं वह अपना हिस्सा न माँग ले। जब रक्त के रिश्तों की ही यह हालत है तो फिर दूसरे रिश्तों की तो बिसात ही क्या है ? किसी पैसे वाले से रिश्ता कायम कर नहीं सकते, क्योंकि वह ही नहीं चाहता कि आप उससे रिश्ता कायम करें। किसी गरीब से भी रिश्ता नहीं बना सकते क्योंकि एक डर हमेशा बना रहता है कि यह कब आफ संसाधनों की माँग कर लेगा? यही डर हमें कहीं दूर ले गया है हमारी अभिव्यक्ति से। बस अब तो हम केवल मात्र एक मशीन बनकर रह गए हैं। खाओ-पीओ और सो जाओ।
अपने अन्दर का आनन्द सूखता जा रहा है। आनन्द का सोता तो एक-दूसरे का मन बाँटने से फूटता है, अब यह प्रथा बन्द हो गयी है और आनन्द का झरना भी सूख गया है। सुबह उठते ही कभी हम टी.वी में आनन्द ढूँढने की कोशिश करते हैं और कभी समाचार-पत्र में। आप अपने दिल पर हाथ रखिए और ईमानदारी से बताइए कि क्या आपका कोई राजदार है? है ऐसा कोई इस दुनिया में जिसे आप अपने मन की बात बताते हैं? और मन की बात भी कैसी? पैसा कमाने की नहीं, भोग की नहीं। शुद्ध मन की। कभी टटोलिए तो सही अपने मन को, पता नहीं इसमें कितना कुछ दबा है? धकेलिए तो सही कभी पैसे को अपने पास से और फिर चिंतन करिए केवल अपने आपका। संसार को अपनी बाँहों में समेटने का मन हो जाएगा। सारे ही मन के कलुष धुल जाएंगे। मन आपसे प्रश्न करेगा कि अरे मैं क्यों अपने ही सहयात्री से ईर्ष्या कर रहा हूँ ? क्यों उसके मार्ग की बाधा बनना ही मेरा उद्देश्य रह गया है ? क्या मेरा जीवन केवल उसकी ईर्ष्या को ही समर्पित होकर रह जाएगा ? कभी फक्कडों वाला प्रेम करके देखिए। जैसे हम कहीं पिकनिक पर जाते हैं और सारे ही मिलकर अपने-अपने टिफन खोलते हैं, वैसे ही खोलिए अपने-अपने मन। फिर देखिए कितनी मिठास आफ जीवन में भर जाएगी ?
फिर मैं अपनी मूल बात पर लौट आती हूँ। जब पेन में स्याही रीत जाए और आप कुछ लिखना चाहें तो क्या आप लिख सकेंगे? ऐसे ही जब मन में प्रेम की स्याही ही सूख जाए तब हम कैसे अपनी अभिव्यक्ति को शब्द दे सकेंगे? फिर हम बहाना बनाएँगे, समय का। अरे छोडो भी, समय कहाँ है, जो पत्र लिखें ! फोन उठाओ और समाचार दे दो। इसलिए इस प्रेम की स्याही को सूखने मत दीजिए। अपने मन को रीता कभी मत होने दीजिए। रिश्ते न सही, मित्र न सही, बस ऐसे ही किसी को भी पत्र लिखिए। आफ पास स्याही शेष है तो रिश्ते भी कभी अपने हो ही जाएँगे। यदि स्याही ही सूख गयी तो फिर रिश्तों को कौन सिंचित करेगा? कभी मन होता है कि अनजान व्यक्तियों को ही पत्र लिखें, ऐसे व्यक्तियों की ही पत्र लिखें जिनके जीवन में बसन्त की जगह पतझड ने ले ली है। लेकिन फिर डर हावी होने लगता है, रिश्ता बनने का। रिश्ते से अधिक किसी के लिए कुछ करने का। हम केवल आत्मिक सुख को ही नहीं तलाशते हैं, कि किसी के पत्र से हमें कितना सुकून मिला है! लेकिन हम फिर उस पर निर्भर भी होना चाहते हैं, यही डर हमें किसी को भी पत्र नहीं लिखने देता। मुझे कुछ लोगों से बातें करना अच्छा लगता है, कभी मन होता है कि किसी को पत्र लिखूँ, लेकिन फिर वही डर मुझ पर भी हावी होने लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मुझसे उसकी उम्मीदें जगने लगेंगी ? इन्हीं उम्मीदों के कारण तो अपने पारिवारिक रिश्ते हमसे दूर हुए थे।
कल तक हम दुनिया में अपना परिवार ढूँढते थे, अपने गौत्र से प्रारम्भ करते हुए, अपनी जाति, धर्म, देश के कारण एक परिवारीय रिश्ता व्यक्तियों से जोड लेते थे। पत्र उन रिश्तों को सहेजने के माध्यम बनते थे। हमारे मन के अन्दर एक दूसरा दार्शनिक व्यक्ति जो बैठा है, उसे हम पत्रों के माध्यम से बाहर निकालते थे। धीरे-धीरे यह दर्शन हम पर हावी होने लगता था और हम श्रेष्ठ सुसंस्कृत मानव बनने की ओर बढते जाते थे। अपने परिवार में व्यापार को कहीं जगह नहीं देते थे। केवल एक-दूसरे का हाथ पकडकर चलने की परम्परा तक ही हम सीमित रहते थे। लेकिन आज हम दुनिया को व्यापार की निगाहों से देख रहे हैं। हम रिश्तों में व्यापार ढूँढ रहे हैं। मेरा रिश्तेदार या परिचित कौन कहाँ बैठा है? उससे मैं कैसे काम निकाल सकता हूँ? बस इसी बात का आकलन रह गया है। जब हम रिश्तों में ही व्यापार ढूँढने निकलेंगे तब हम एक-दूसरे से बचते फिरेंगे। कोई कितना भी प्रिय क्यों न लगे लेकिन यदि मन में यह भय समा जाएगा कि यह मेरे द्वारा अपना कोई नाजायज कार्य कराएगा तब वह रिश्ता न रहकर एक मुसीबत भर रह जाएगा। फिर हमें सभी रिश्तों में केवल स्वार्थ दिखायी देने लगेगा और धीरे-धीरे हम अपने इस परिवार से दूर होते जाएँगे।
सबके मन में प्रेम बसा है, सबके मन में दर्द बसा है। लेकिन इस प्रेम और इस दर्द से कहीं अधिक डर बसा है। अतः हमें इस प्रेम और दर्द को बाहर निकालना है और डर को पीछे धकेलना है। जिनके हाथ में कलम है, कम से कम वे तो शुरुआत कर ही सकते हैं। यदि यह प्रेम सूख गया तब फिर यह दुनिया कितनी वीभत्स हो जाएगी शायद इसकी कल्पना कोई नहीं कर पा रहा है? पत्र इस प्रेम को बाहर निकालने के लिए या उसे जागृत करने के लिए एक सशक्त माध्यम बन सकते हैं। आइए हम सब एक-दूसरे को बिना किसी स्वार्थ के पत्र लिखें। केवल एक ही स्वार्थ हमारे ध्यान में रहे कि इस पत्र को पढने से मुझे सुख मिला। मैं भी ऐसा ही पत्र लिखकर दूसरे को सुखी करूँ। आज दुनिया को मित्रों की आवश्यकता है, हमने अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए मित्र खो दिए हैं। तो उठाइए कलम और अपने शब्दों के द्वारा मित्र बनाइए और दिल पर जमी बर्फ को पिघलाने का प्रयास कीजिए। मैं यहाँ श्री गिरिराज किशोर जी को भी धन्यवाद देती हूँ, जिन्होंने पत्र प्रकाशित करके मेरी पत्रों के प्रति अभिव्यक्ति को शब्द देने के लिए प्रेरित किया। अभाव तो बहुत दिनों से खटक रहा था, लेकिन बिना किसी प्रेरणा के शब्द अभिव्यक्त नहीं होते अतः आप भी किसी की प्रेरणा बनिए और पत्रों के द्वारा मित्र बनाइए। केवल मित्र, लाभ का चिंतन नहीं और मित्र से तो कदापि नहीं ।
डॉ.अजित गुप्ता
(साभार : मधुमती)
यादव जी, आपकी पोस्ट देखी, पोस्ट का विषय और कुछ पंक्तियों पर नजर जाते ही लगा कि ये तो मेरी ही हैं। लेकिन आपने इसे मेरे नाम से छापा है इसका संतोष है। मेरे सारे ही मधुमती के सम्पादकीय की एक पुस्तक - सांस्कृतिक निबन्ध, साहित्यागार - जयपुर से प्रकाशित हुई है। आप उसे देखे, आपको पुस्तक पसन्द आएगी।
ReplyDeleteकृष्ण जी,
ReplyDeleteचिट्ठियाँ तो अनमोल होती है. मैं आपकी संवेदना से पहले से वाकिफ हूँ... मैंने पत्र-मित्रता को बहुत ही सलीके से जिया है. मैं खुशकिश्मत हूँ... मेरे पास छोटे बड़े पत्रों / लिफाफों का संग्रह है...
मैंने यहाँ तक कह दिया था,
मेरे ज़नाजे पर कफ़न नहीं चिट्ठियों की चद्दर हो
मेरी ख्वाहिश है मेरे कब्र के नजदीक डाकघर हो
Smt. अजित जी पोस्ट में मोहक और विचारणीय बात है... जानकारी साझा करने के लिए आभार.
- सुलभ
सुन्दर लिखा...
ReplyDelete_____________
"पाखी की दुनिया" में देखिये "आपका बचा खाना किसी बच्चे की जिंदगी है".
बहुत सुंदर लिखा आपने .....पत्रों की दुनिया से मै बचपन से वाकिफ हूँ और मेरी कई पत्र -मित्र आज भी उतने ही स्नेहिल दिनों की तरह है ....फोन के समय मे भी .
ReplyDeleteपत्रों के अलबेली दुनिया..हर किसी को सम्मोहित करती है...अजित गुप्ता जी की सार्थक लेखनी को साधुवाद.
ReplyDeleteमैं तो अभी भी पत्रो की दुनिया की वज़ह से ही ज़िन्दा हूँ ।
ReplyDeleteपत्रों से तो हमें भी बहुत प्यार है..बेहतरीन लेख.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर. कई बार इतिहास के तले सुन्दर रचनाएँ निकल कर आती हैं. अजित गुप्ता जी को बधाई.
ReplyDeleteहमें भी पत्र-मित्रता का शौक है.
ReplyDelete