Wednesday, April 29, 2009
'राष्ट्रीय सहारा' अख़बार में 'बिंदास ब्लॉग' में चर्चा
आज 29 अप्रैल 2009 के दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' पत्र के परिशिष्ट 'आधी दुनिया' में 'बिन्दास ब्लाग' के तहत 'डाकिया डाक लाया' ब्लाग की चर्चा की गई है। इसमें 5 अप्रैल 2009 को प्रकाशित 'दुनिया का प्रथम पत्र' पोस्ट को उद्धरित किया गया है। इस पोस्ट को इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है-http://dakbabu.blogspot.com/2009/04/blog-post_06.html गौरतलब है कि अभी 8 अप्रैल 2009 को हिंदुस्तान अख़बार में ब्लॉग वार्ता के अंतर्गत 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग की चर्चा की गई थी। आप लोगों का समर्थन और प्यार इसी प्रकार इस ब्लाग को मिलता रहे तो निश्चिततः डाकिया बाबू आपसे नित्य रूबरू होते रहेंगे।
Sunday, April 26, 2009
डाक टिकट संग्रह कैसे करें
डाक टिकट संग्रह करने का शौक मानव के पुराने शौकों में से है। अंग्रेजी में तो इस पर तमाम पुस्तकें उपलब्ध हैं पर हिन्दी में इस पर साहित्य की कमी है। नये डाक टिकट संग्रहकर्ता इसके अभाव में तमाम परेशानियों से जूझते हैं। इसी के मद्देनजर प्रस्तुत पुस्तक प्रकाश में आई। 17 अध्यायों में लिखित यह पुस्तक डाक टिकटों के संग्रह, मुद्रण, इतिहास, दुर्लभ डाक टिकट एवं तमाम रोचक बातों को अपने में समेटे हुए है। सरल भाषा में लिखी एवं सहजता से समझ में आने वाली शब्दावली इस पुस्तक को सारगर्भित बनाती है। विद्यार्थियों एवं युवाओं हेतु यह पुस्तक स्टार्टर का कार्य करती है। पुस्तक की लोकप्रियता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके तमाम संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं एवं वर्ष 2000 में इसका अंग्रेजी संस्करण भी जारी किया गया।
पुस्तक- डाक टिकट संग्रह कैसे करें
लेखक-ए0एस0 मित्तल, ए-37, जनता कालोनी, जयपुर
पृष्ठ- 84,
प्रथम संस्करण-1970,
मूल्य- 20 रूपये
प्रकाशक-आदर्श प्रकाशन, चैड़ा रास्ता, जयपुर-302003
पुस्तक- डाक टिकट संग्रह कैसे करें
लेखक-ए0एस0 मित्तल, ए-37, जनता कालोनी, जयपुर
पृष्ठ- 84,
प्रथम संस्करण-1970,
मूल्य- 20 रूपये
प्रकाशक-आदर्श प्रकाशन, चैड़ा रास्ता, जयपुर-302003
Saturday, April 25, 2009
डाक टिकटों के दर्पण में वंशवाद के दर्शन
ब्रिटेन को डाक टिकटों का जन्मदाता माना जाता है। वहाँ पर डाक टिकटों पर सिर्फ राजा-रानी एवं उनके परिवार से जुडे़ लोगों का ही चित्र छापा जाता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में इस परम्परा का अनुगमन करते हुए शासकों के चित्र डाक टिकटों पर अंकित किये गये। कहना गलत नहीं होगा कि डाक टिकट तमाम शासकों के उत्थान-पतन का गवाह है जो अपने अन्दर तमाम रोमांच सहेजे रहता है। प्रस्तुत पुस्तक में ब्रिटेन, अमेरिका, सोवियत संघ एवं भारत में जारी उन तमाम डाक टिकटों का विवेचन-विश्लेषण अध्ययन का विषय बनाया गया है, जिन पर शासकों एवं उनके परिवारजनों के चित्र अंकित हैं। निश्चिततः डाक टिकटों के माध्यम से यह एक पूरे इतिहास-खण्ड का भी व्यापक विश्लेषण है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में नेहरू-गाँधी परिवार पर जारी डाक टिकटों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े महापुरूषों पर जारी डाक टिकटों को भी स्थान दिया गया है। वस्तुतः ये स्मारक डाक टिकट शासकों के प्रति सदभावना प्रदर्शित करने के क्रम में जारी किए गये परन्तु बाद के वर्षो में इनमें से तमाम डाक टिकटों का विश्लेषण अन्य रूपों में भी किया गया। प्रस्तुत पुस्तक को इसी क्रम में देखा जाना चाहिए।
पुस्तक- डाक टिकटों के दर्पण में वंशवाद के दर्शन
लेखक-गोपीचंद श्रीनागर
पृष्ठ- 84, संस्करण-2004, मूल्य- 75 रूपये
प्रकाशक-वर्षा प्रकाशन, 778, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद
पुस्तक- डाक टिकटों के दर्पण में वंशवाद के दर्शन
लेखक-गोपीचंद श्रीनागर
पृष्ठ- 84, संस्करण-2004, मूल्य- 75 रूपये
प्रकाशक-वर्षा प्रकाशन, 778, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद
Friday, April 24, 2009
डाक टिकटों पर विश्व चित्रकला की झांकी
प्रायः साहित्य के बारे में कहा जाता है कि वह समाज का दर्पण होता है। यदि ध्यान से देखा समझा जाये तो दूसरी कलाएं भी अपने-अपने समाज का दर्पण होती हैं बशर्ते इनके रचयिता सजग साहितयकार-कालाकार में वैसी पैनी दृष्टि हो। ठीक उसी प्रकार अनेकानेक-स्मारक-विशेष-नियत डाक टिकट भी निज समाज के दर्पण ही नहीं बल्कि ऐतिहासिक जीवंत दस्तावेज होते हैं। ऐसे ही ऐतिहासिक दस्तावेजों में वे अनेक डाक टिकट हैं जो अपने में विश्व के महान चित्राकरों की अनुपम चित्रकृतियों को संजाये हुए हैं। ये मात्र डाक टिकट ही नहीं हैं बल्कि अच्छी-खासी चित्रकला की सचित्र पुस्तकें हैं। विश्व के महान चित्रकारों की दुनिया के जीवंत दस्तावेज हैं और अनूठी विश्व चित्रकला के इतिहास के साफ-सुथरे दर्पण हंै।
जो डाक टिकट 8 मई, सन् 1840 ई. में इंग्लैण्ड में पहली बार विश्व पटल पर देखने को मिले थे, वे शुरू में कौतुहल के विषय थे। डाक खर्च अदा करने के बाद इनका संग्रह करना एक अभूतपूर्व शौक के रूप में जन्मा था। तब फिलेटली का मतलब ही था- डाक टिकटों का संग्रह करना। धीरे-धीरे यह शौक मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान का पिटारा बनता चला गया। आज की फिलेटली की उन्नत अवधारणा यह है कि इन डाक टिकटों का विधिवत अध्ययन हो, इनकी सार्थक समीक्षा हो एवं इनके विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्षों का इनके समसामयिक विश्व के सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक परिदृश्य में प्रासंगिक व्याख्या हो। प्रस्तुत पुस्तक में इसी दृष्टिकोण से कुछ बहुमूल्य व दुर्लभ चित्रों वाले डाक टिकट शामिल है एवं तद्नुसार चित्रकला के कुछ मन्तवयों को भी उभारा गया है। निश्चिततः यह पुस्तक एक विलक्षण एवं संग्रहणीय दस्तावेज है।
पुस्तक-रंगीन डाक टिकटों पर विश्व चित्रकला की झांकी
लेखक-गोपीचंद श्रीनागर
पृष्ठ- 120, संस्करण-2005-2006, मूल्य- 150 रूपये
प्रकाशक-बुनियादी साहित्य प्रकाशन, राम कृष्ण पार्क, अमीनाबाद, लखनऊ
Wednesday, April 22, 2009
आजादी की कहानी, डाक टिकटों की जबानी
देश की आजादी में अनेक महान विभूतियों-क्रान्तिकारियों, सत्याग्रहियों एवं स्वतंत्रता सेनानियों का योगदान रहा है। इसके साथ ही आजादी में अनेक आन्दोलनों, घटनाओं, स्थानों एवं वस्तुओं की भी महती भूमिका रही। स्वतंत्र भारत में आजादी में इनके योगदान व महत्ता को दर्शाते डाक टिकट जारी किये गये। जब डाक टिकटों पर नए-नए समसामयिक व्यक्तित्व, घटनायें, स्थान, परम्परायें आदि चित्रित होने लगे तब डाक टिकटों के संग्रह की अवधारणा ही बदल गयी। परिणामतः समसामयिक डाक टिकट जीवंत ऐतिहासिक दस्तावेज बनते चले गए, जो अब सिक्कों की भाँति इतिहास-लेखन के नये सशक्त माध्यम (टूल्स ऑफ़ हिस्ट्री राइटिंग) के रूप में सामने आए हैं। वस्तुतः डाक टिकट इतिहास के झरोंखे हैं। प्रस्तुत पुस्तक द्वारा सुधी पाठकगण डाक टिकटों के माध्यम से सर्वथा नवीन शैली में भारतीय स्वाधीनता आन्दोंलन का परिचय पा सकेंगे।
पुस्तक-आजादी की कहानी, डाक टिकटों की जबानी
लेखक-गोपीचंद श्रीनागर
पृष्ठ- 100, प्रथम संस्करण-2007,
मूल्य- 125 रूपये
प्रकाशक-ग्रंथ अकादमी, 1659 पुराना दरियागंज, नई दिल्ली-110002
पुस्तक-आजादी की कहानी, डाक टिकटों की जबानी
लेखक-गोपीचंद श्रीनागर
पृष्ठ- 100, प्रथम संस्करण-2007,
मूल्य- 125 रूपये
प्रकाशक-ग्रंथ अकादमी, 1659 पुराना दरियागंज, नई दिल्ली-110002
नैनो कार की बुकिंग अब डाकघरों से
टाटा की बहुप्रतीक्षित नैनो कार की बुकिंग अब डाकघरों से भी होगी। टाटा मोटर्स फायनेंस लि0 एवं भारतीय डाक विभाग के बीच हुए एग्रीमेंट के तहत 21 अप्रैल 2009 से भारत के 141 शहरों के 200 डाकघरों की मार्फत नैनो की बुकिंग हेतु फार्मों की बिक्री एवं तत्पश्चात फार्म पूर्णतया भरने के बाद डाकघरों में जमा करने की प्रक्रिया आरम्भ कर दी गयी है। यह प्रक्रिया 25 अप्रैल 2009 तक चलेगी। गौरतलब है कि डाकघरों से पहले से ही संघ लोक सेवा आयोग विभिन्न राज्य लोक सेवा आयोगों द्वारा आयोजित परीक्षाओं एवं तमाम इंजीनियरिंग एवं मेडिकल परीक्षाओं के फार्मों की बिक्री हो रही है।
Tuesday, April 21, 2009
इंद्रधनुषी डाक टिकट
प्रस्तुत पुस्तक में विभिन्न छटाओं के इंद्रधनुषी डाक टिकट एवं उनके संबंध में ज्ञानप्रद जानकारियाँ दी गई हैं। इन डाक टिकटों पर इतिहास, भूगोल, राजनीति, व्यक्ति, संस्कृति-सभ्यता, साहित्य-विज्ञान, जीव-जंतु, खेल-कूद, स्थापत्य-मूर्ति, चित्र-कलाओं आदि के विविध रंग-रूप देखने को मिलते हैं। स्वतंत्र भारत के डाक टिकटों पर शुरू से ही विभिन्न राष्ट्रीय विषय उभारे जाते रहे हैं। विश्व के अनेकानेक देशों ने अपने-अपने डाक टिकटों में सप्तवर्णी रंग भरे हैं। सामयिक विषयों और घटनाओं पर निकले डाक टिकट ऐतिहासिक दस्तावेज बन गए हैं। भारत समेत विश्व के विविध विषयों वाले डाक टिकटों ने फिलेटली (डाक टिकटों का विज्ञान व अध्ययन) लेखकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। यह इंद्रधनुषी पुस्तक उसी अभाव की पूर्ति करती है।
पुस्तक-इंद्रधनुषी डाक टिकट
लेखक-गोपीचंद श्रीनागर
पृष्ठ- 104,
संस्करण-2007,
मूल्य- 125 रूपये
प्रकाशक-ग्रंथ अकादमी, 1659 पुराना दरियागंज, नई दिल्ली-110002
पुस्तक-इंद्रधनुषी डाक टिकट
लेखक-गोपीचंद श्रीनागर
पृष्ठ- 104,
संस्करण-2007,
मूल्य- 125 रूपये
प्रकाशक-ग्रंथ अकादमी, 1659 पुराना दरियागंज, नई दिल्ली-110002
Monday, April 20, 2009
खुशबू भरा खत भेजा है तुम्हें
यूँ मेरे खत का जवाब आया, लिफाफे में एक गुलाब आया...... खुशबू भरे खत भेजने और पाने की चाह किसे नहीं होती, उस पर से यदि गुलाब, चंदन और जूही की खुशबू हो तो मदहोश करने के लिए काफी है। खुशबू भरे खतों पर कवियों और शायरों ने बहुत कुछ लिखा है पर भारतीय डाक विभाग ने चंदन, गुलाब और जूही की खुशबू वाले डाक टिकट जारी कर मानो लोगों की कल्पनाओं को ही मूर्त रूप दे दिया। अब लोगों को अपने चाहने वालों के लिए लिफाफे में गुलाब या कोई अन्य फूल रखकर भेजने की जरूरत नहीं बल्कि लिफाफे पर लगा डाक टिकट दूर से ही अपनी खुशबू से बता देगा कि अब इन्तजार की घडियाँ खत्म हो चुकी हैं।
भारतीय इतिहास में पहली बार 13 दिसम्बर 2006 को डाक विभाग ने खुशबूदार डाक टिकट जारी किये। चंदन की खुशबू वाले इस डाक टिकट को तैयार करने के लिए इसमें इंग्लैण्ड से आयातित चंदन की खुशबू वाली एक इंक की परत चढ़ाई गई, जिसकी खुशबू लगभग एक साल तक बरकरार रहेगी। इस डाक टिकट में चंदन की लकड़ी के साथ हाथी की आकृति बनाई गई है। इस आकृति का चयन कर्नाटक राज्य कला एवं शिल्प इम्पोरियम, नई दिल्ली के संग्रह में से किया गया है। इण्डियन सिक्यूरिटी प्रेस, नासिक में फोटाग्रेव्योर तकनीक से 29 मिलीमीटर चौड़े व 39 मिलीमीटर लम्बी संरचना में मुद्रित 15 रूपये वाले इस प्रकार के कुल 30 लाख डाक टिकट डाक विभाग द्वारा जारी किए गए। चंदन की खुशबू वाला डाक टिकट जारी करने का प्रमुख कारण यह है कि अपनी सुगंध और औषधीय गुणों एवं धार्मिक अनुष्ठानों व सामाजिक रीति-रिवाजों के कारण चंदन प्राचीन काल से ही भारतीय धरोहर का अभिन्न अंग रहा है और वर्तमान में इस राष्ट्रीय निधि के महत्व को जानने व इसको सरंक्षण प्रदान करने की आवश्यकता है। चंदन के संबंध में रोचक तथ्य यह है कि 1792 में मैसूर के राजा ने इसे शाही वृक्ष का दर्जा दे दिया था और आज भी भारत में कोई व्यक्ति चंदन के वृक्ष का मालिक नहीं बन सकता। एक अन्य रोचक बात यह है कि चंदन के पेड़ को काटा नहीं जाता बल्कि बरसात के मौसम में जब इसकी जडं़े बेशकीमती तेल से भरपूर होती हैं, तब इसे जड़ से उखाड़ा जाता है। कहा जाता है कि एक टन अंतःकाष्ठ से 60 किलो तक तेल प्राप्त हो सकता है। उष्मा और मिठास से भरी चंदन के तेल की हल्की तीक्ष्ण सुगंध, वातावरण में लम्बे समय तक समाए रहने की अपनी विशिष्टता के साथ-साथ इतनी मद्धिम होती है कि अन्य सुगंधों से मिलकर इत्रों का अनन्त संसार सृजित करती है।
चंदन की खुशबू वाले डाक टिकट के बाद 7 फरवरी 2007 को वसन्त पर्व की मादकता के बीच वैलेन्टाईन डे से कुछ दिन पहले ही डाक विभाग ने गुलाब की खुशबू वाले चार डाक टिकट जारी किये। सुगन्ध एवं सौन्दर्य के मिश्रण से ‘महक गुलाबों की’ विषय पर जारी इन चार डाक टिकटों पर क्रमशः चार भारतीय किस्मों - भीम, दिल्ली प्रिन्सेज, जवाहर और नीलम गुलाबों के चित्र अंकित हैं। इन चारों गुलाबों के रंग प्रकृति में क्रमशः अर्ध लाल, गुलाबी, मोतिया सफेद और चाँदी की छटा वाला गुलाबी रूप में पाये जाते हैं। जहाँ भीम और नीलम गुलाब अंकित डाक टिकटों की कीमत 5-5 रुपये है वहीं दिल्ली प्रिन्सेज और जवाहर गुलाब अंकित डाक टिकटों की कीमत 15-15 रुपये है। इण्डियन सिक्योरिटी प्रेस, नासिक में फोटोग्रेव्योर तकनीक से मुद्रित इन चारों डाक टिकटों की 8-8 लाख संख्या में छपाई हुई। गौरतलब है कि गुलाब ‘रोजा’ जाति का खिलने वाला पौधा है, जिसकी उत्पत्ति अनुमानतः 3 करोड़ वर्ष से भी अधिक पुरानी है तथा इस फूल का दुनिया भर के अनेकानेक किस्सों, गाथाओं ओैर कविताओं व गीत-संगीत में जिक्र मिलता है। हाल ही में जर्मनी में किये गये एक शोध के अनुसार गुलाब की खुशबू व्यक्ति को तरोताजा रखने के साथ-साथ उसकी याददाश्त भी बढ़ाती है। शोधकर्ताओं का दावा है कि पेचीदा काम सीखते समय और सोते समय यदि गुलाब की खुशबू सूँघी जाये तो याददाश्त तेज होती है। गुलाब की महक सूँघने के बाद सोने पर व्यक्ति को पुरानी यादें आती हैं और जगने पर वह उन्हें बेहतर तरीके से याद रखता है। शायद, यही कारण है कि जेरट्ूड स्टेन ने कहा था कि-”गुलाब का कोई जवाब नहीें, गुलाब वाकई गुलाब ही है।“ प्राचीन समय से ही गुलाब स्नेह एवं सांैदर्य के प्रतीक रहे हैं।
विक्टोरियाई फूलों की भाषा के अनुसार विभिन्न रंगों के गुलाबों के संाकेतिक अर्थ होते हैं-मसलन, लाल गुलाब प्यार का प्रतीक है, गुलाबी गुलाब भद्रता, सफेद गुलाब मासूमियत, पवित्रता व मित्रता का तो पीला गुलाब टूटते प्यार या रुहानी इश्क का प्रतीक है।
विक्टोरियाई फूलों की भाषा के अनुसार विभिन्न रंगों के गुलाबों के संाकेतिक अर्थ होते हैं-मसलन, लाल गुलाब प्यार का प्रतीक है, गुलाबी गुलाब भद्रता, सफेद गुलाब मासूमियत, पवित्रता व मित्रता का तो पीला गुलाब टूटते प्यार या रुहानी इश्क का प्रतीक है।
चन्दन और गुलाब के बाद जूही की खुशबू वाले दो डाक टिकट 26 अप्रैल 2008 को डाक विभाग द्वारा जारी किये गये हैं। जूही भारतीय उपमहाद्वीप की जनचेतना का अभिन्न अंग है और अनेक भाषाओं के भारतीय काव्य और साहित्य में इसका उल्लेख मिलता है। जूही की सुगन्ध से सुवासित और इण्डियन सिक्योरिटी प्रेस, नासिक में फोटोग्रेव्योर तकनीक से मुद्रित 5 रूपये और 15 रूपये मूल्य के क्रमशः कुल 10 लाख और 30 लाख डाक टिकट जारी किए गए है। गौरतलब है कि जूही पुष्प को भारत में महिलाएं वेणि़यों में सजाती हैं तो चीन और दक्षिण पूर्व एशिया में इसका उपयोग चाय और चावल को जायकेदार बनाने के लिए भी किया जाता है। यही नहीं माना जाता है कि जूही वाली चाय का रोजाना सेवन करने से कुछ प्रकार के कैंसर से बचाव सम्भव है। उत्तर भारत में जूही, मोगरा व मालती एवं दक्षिण में मल्लिगई व मल्लेपूवू नाम से प्रसिद्ध रात में खिलने वाले ये फूल फिजा में मीठी सुगन्ध घोल देते हैं।
भारतीय डाक विभाग द्वारा समय-समय पर जारी नियमित डाक टिकटों के विपरीत ये खुशबूदार डाक टिकट, स्मारक डाक टिकटों की श्रेणी के तहत जारी किये गये हैं। यही कारण है कि इन डाक टिकटों का पुनर्मुद्रण नहीं हो सकता और डाक टिकट संग्राहकों हेतु यह एक अमूल्य और रोचक निधि बन गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि वर्ष 1840 में ब्रिटेन में विश्व का प्रथम डाक टिकट जारी होने के बाद मात्र चार देशों ने ही खुशबूदार डाक टिकट जारी किए। इनमें स्विटजरलैण्ड, थाईलैण्ड व न्यूजीलैण्ड ने क्रमशः चाॅकलेट, गुलाब व जैस्मीन की खुशबू वाले डाक टिकट जारी किए हैं, तो भूटान ने भी खुशबूदार डाक टिकट जारी किए हैं। अब भारत इस श्रेणी में पाँचवां देश बन गया है, जिसने चंदन की खूशबू वाला विश्व का प्रथम डाक टिकट एवं गुलाब व जूही की खूशबू वाले विश्व के द्वितीय डाक टिकट जारी किये हैं।
भारतीय डाक विभाग द्वारा समय-समय पर जारी नियमित डाक टिकटों के विपरीत ये खुशबूदार डाक टिकट, स्मारक डाक टिकटों की श्रेणी के तहत जारी किये गये हैं। यही कारण है कि इन डाक टिकटों का पुनर्मुद्रण नहीं हो सकता और डाक टिकट संग्राहकों हेतु यह एक अमूल्य और रोचक निधि बन गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि वर्ष 1840 में ब्रिटेन में विश्व का प्रथम डाक टिकट जारी होने के बाद मात्र चार देशों ने ही खुशबूदार डाक टिकट जारी किए। इनमें स्विटजरलैण्ड, थाईलैण्ड व न्यूजीलैण्ड ने क्रमशः चाॅकलेट, गुलाब व जैस्मीन की खुशबू वाले डाक टिकट जारी किए हैं, तो भूटान ने भी खुशबूदार डाक टिकट जारी किए हैं। अब भारत इस श्रेणी में पाँचवां देश बन गया है, जिसने चंदन की खूशबू वाला विश्व का प्रथम डाक टिकट एवं गुलाब व जूही की खूशबू वाले विश्व के द्वितीय डाक टिकट जारी किये हैं।
( कृष्ण कुमार यादव का ‘‘चन्दन की खुशबू वाला डाक टिकट‘‘ शीर्षक से यह आलेख प्रतिष्ठित पत्रिका ‘‘नवनीत‘‘ के फरवरी 2007 अंक में प्रकाशित हुआ था। बाद में इस लेख में समयानुसार संशोधन हुए और तद्नुरूप यह यहाँ प्रस्तुत है)
Sunday, April 19, 2009
Philately, a new craze in city
KANPUR: The craze of philately is increasing in the city as more than ten thousand people are involved in this business as of now. A philately bureau exist in Kanpur and about 10 thousand persons are registered with this bureau, which buy tickets on a regular basis.Detailing about philately, Krishna Kumar Yadav said, "Any person can open a philatelic deposit account with a minimum balance of Rs 200. After that every month, that person will be sent a new postal-ticket by means of registered post."
He further added, "The craze of philately in the city can be understood from the fact that about 2,000 persons opened philatelic deposit account in the city in last financial year 2008-09. The person who buys ticket on streets are not included in the data-base available with the postal department." People from various sections of society like government officials, businessmen, engineers, stock exchange workers etc are big fans of philately. Philatelic bureau, Kanpur sends ticket to Mumbai, Jaipur, Kolkata, Udaipur, Bengaluru and other places which have moved away from the city after change of jobs.
(Courtesy: Times of India,18 Apr 2009, 2315 hrs IST, TNN)
(http://timesofindia.indiatimes.com/Kanpur/Philately-a-new-craze-in-city/articleshow/4418505.cms)
He further added, "The craze of philately in the city can be understood from the fact that about 2,000 persons opened philatelic deposit account in the city in last financial year 2008-09. The person who buys ticket on streets are not included in the data-base available with the postal department." People from various sections of society like government officials, businessmen, engineers, stock exchange workers etc are big fans of philately. Philatelic bureau, Kanpur sends ticket to Mumbai, Jaipur, Kolkata, Udaipur, Bengaluru and other places which have moved away from the city after change of jobs.
(Courtesy: Times of India,18 Apr 2009, 2315 hrs IST, TNN)
(http://timesofindia.indiatimes.com/Kanpur/Philately-a-new-craze-in-city/articleshow/4418505.cms)
Saturday, April 18, 2009
पोस्टमैन
(कविवर सोहन लाल द्विवेदी ने भी डाकिया को अपने शब्दों में ढाला है। मार्च 1957 में प्रकाशित उनकी कविता ‘पोस्टमैन‘ वाकई एक बेहतरीन कविता है। )
किस समय किसे दोगे क्या तुम
यह नहीं किसी को कभी ज्ञान
उत्सुकता में, उत्कंठा में
देखा करता जग महान
आ गई लाटरी निर्धन की
कैसी उसकी तकदीर फिरी
हो गया खड़ा वह उच्च भवन
तोरण, झंडी सुख की फहरी
यह भाग्य और दुर्भाग्य
सभी का फल लेकर तुम जाते
कोई रोता कोई हँसता
तुम पत्र बाँटते ही जाते
इस जग का सारा रहस्य
तुम थैले में प्रतिदिन किए बंद
आते रहते हो तुम पथ में
विधि के रचते से नए छंद।
किस समय किसे दोगे क्या तुम
यह नहीं किसी को कभी ज्ञान
उत्सुकता में, उत्कंठा में
देखा करता जग महान
आ गई लाटरी निर्धन की
कैसी उसकी तकदीर फिरी
हो गया खड़ा वह उच्च भवन
तोरण, झंडी सुख की फहरी
यह भाग्य और दुर्भाग्य
सभी का फल लेकर तुम जाते
कोई रोता कोई हँसता
तुम पत्र बाँटते ही जाते
इस जग का सारा रहस्य
तुम थैले में प्रतिदिन किए बंद
आते रहते हो तुम पथ में
विधि के रचते से नए छंद।
एक पुस्तक डाकियों पर
डाकिया डाक-सेवा में तत्पर रहते हुए अनवरत एक महापुनीत अनुष्ठान करता रहता है। वह ‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन‘‘ का सच्चा अनुगमन करता है। इसी भाव-भूमि पर ‘‘भारतीय डाकियों की सामाजिक स्थिति‘‘ नाम से प्रकाश में आई पुस्तक वस्तुतः डाॅ0 कीर्ति पाण्डेय द्वारा गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्रस्तुत शोध प्रबन्ध है, जिसे भारतीय डाकिये की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को समझने की दिशा में एक समाजशास्त्रीय प्रयत्न के रूप में देखा जा सकता है। गोरखपुर में कार्यरत 180 डाकियों के अध्ययन पर आधारित यह पुस्तक कुल 10 अध्यायों में विस्तृत है। इसमें भारतीय डाक सेवा: एैतिहासिक पुनरावलोकन, डाकियों की सामाजिक पृष्ठभूमि, डाकियों के परिवार का स्वरूप, डाकियों की आर्थिक पृष्ठभूमि व जीवन शैली, कार्यदशायें इत्यादि पर विस्तृत शोधपरक विश्लेषण किया गया है। वस्तुतः डाकिया एक सरकारी कर्मचारी होते हुए भी मानव-समाज का सेवक है जो ‘‘अहर्निशं सेवामहे‘‘ की भावना लिये अपने कर्तव्य पर डटा रहता है। पुस्तक में उद्धृत एक वाकया गौरतलब है- भूतपूर्व संचार मंत्री श्री स्टीफेन ने भोपाल में डाक-तार के उद्घाटन के अवसर पर कहा था कि-‘‘अगर स्वर्ग में एक जगह खाली हो और भगवान को सभी विभागों के कर्मचारियों में से किसी एक का चयन उस जगह के लिये करना हो तो वे ‘डाकिये‘ का ही चयन करेंगे क्योंकि उसने जीवन भर दूसरों के सन्देश घर-घर तक पहुँचाकर जो पुण्य कमाया है वह कोई दूसरा कर्मचारी नहीं कमा सकता।‘‘
पुस्तक- भारतीय डाकियों की सामाजिक स्थिति
पुस्तक- भारतीय डाकियों की सामाजिक स्थिति
लेखिका- डॉ0 कीर्ति पाण्डेय पृष्ठ-151, संस्करण- 2001, मूल्य-200 रू०
प्रकाशक- साहित्य संगम, नया 100, लूकरगंज, इलाहाबाद
Thursday, April 16, 2009
डाकिया: बदलते हुए रूप
पिछले दिनों आफिस में बैठकर कुछ जरूरी फाइलें निपटा रहा था, तभी एक बुजुर्गवार व्यक्ति ने अन्दर आने की इजाजत मांगी। वे अपने क्षेत्र के डाकिये की शिकायत करने आये थे कि न तो उसे बड़े छोटे की समझ है एवं न ही वह समय से डाक पहुंचाता है। बात करते-करते वे अतीत के दिनों में पहुंँच गये और बोले-साहब! हमारे जमाने के डाकिये बहुत समझदार हुआ करते थे। हमारा उनसे अपनापन का नाता था। इससे पहले कि हम अपना पत्र खोलें वे लिखावट देखकर बता दिया करते थे-अच्छा! राकेश बाबू (हमारे सुपुत्र) का पत्र आया है, सब ठीक तो है न। वे सज्जन बताने लगे कि जब हमारे पुत्र का नौकरी हेतु चयन हुआ तो डाकिया बाबू नियुक्ति पत्र लेकर आये और मुझे आवाज लगाई। मेरी अनुपस्थिति में मेरी श्रीमती जी बाहर्र आइं व पत्र को खोलकर देखा तो झूम उठीं। डाकिया बाबू ने पूछा- अरे भाभी, क्या बात है, कुछ हमें भी तो बताओ। श्रीमती जी ने जवाब दिया कि आपका भतीजा साहब बन गया है।
शाम को मैं लौटकर घर आया तो पत्नी ने मुझे भी खुशखबरी सुनाई और पल्लू से पैसे निकालते हुए कहा कि जाइये अभी डाकिया बाबू को एक किलो मोतीचूर लड्डू पहुंँचा आइये। मैंने तुरंत साइकिल उठायी और लड्डू खरीद कर डाकिया बाबू के घर पहुंँचा। उस समय वे रात्रि के खाने की तैयारी कर रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने गले लगकर बेटे के चयन की बधाई दी और जवाब में मैंने लड्डू का पैकेट उनके हाथों में रख दिया। डाकिया बाबू बोले- ‘‘अरे ये क्या कर रहे हैं आप? चिट्ठियाँं बांँटना तो मेरा काम है। किसी को सुख बांटता हूँ तो किसी को दुःख।‘‘ मैंने कहा नहीं साहब, आप तो हमारे घर हमारा सौभाग्य लेकर आये थे, अतः आपको ये मिठाई स्वीकारनी ही पड़ेगी।
ये बताते-बताते उन बुजुर्ग की आंँखों से आँंसू झलक पड़े। और बोले, साहब! जब मेरे बेटे की शादी हुई तो डाकिया बाबू रोज सुबह मेरे घर पर आते और पूछ जाते कि कोई सामान तो बाजार से नहीं मंँगवाना है। इसके बाद वे अपने वर्तमान डाकिया के बारे में बताने लगे, साहब! उसे तो बात करने की भी तमीज नहीें। डाक सीढ़ियों पर ही फेंककर चला जाता है। पिछले दिनों मेरे नाम एक रजिस्ट्री पत्र आया। घर में मात्र मेरी बहू थी। उसने कहा बाबू जी तो घर पर नहीं हैं, लाइये मुझे ही दे दीजिए। जवाब में उसने तुनक कर कहा जब वह आ जाएं तो बोलना कि डाकखाने से आकर पत्र ले जाएं।
मैं उस बुजुर्ग व्यक्ति की बात ध्यान से सुन रहा था और मेरे दिमाग में भी डाकिया के कई रूप कौंध रहे थे। कभी मुझे एक प्रतिष्ठित साहित्यकार की कहानी का वह अंश याद आता, जिसमें डाकिये ने एक व्यक्ति को उसके रिश्तेदार की मौत की सूचना वाला पत्र इसलिए मात्र नहीं दिया, क्योंकि इस दुःखद समाचार से उस व्यक्ति की बेटी की शादी टल सकती थी, जो कि बड़ी मुश्किलों के बाद तय हुई थी। तो कभी विदेश से लौटकर आये एक व्यक्ति की बात कानों में गूँजती कि- कम से कम भारत में अपने यहाँ डाकिया हरेक दरवाजे पर जाता तो है। तो कभी अपने गांँव का वह डाकिया आता, जिसकी शक्ल सिर्फ वही लोग पहचानते थे जो कभी बाजार गये हों। क्योंकि वह डाकिया पत्र-वितरण हेतु कभी गाँव में आता ही नहीं था। हर बाजार के दिन वह खाट लगाकर एक निश्चित दुकान के सामने बैठ जाता और सभी पत्रों को खाट पर सजा देता। गाँव वाले हाथ बांधे खड़े इन्तजार करते कि कब उनका नाम पुकारा जायेगा। जो लोग बाजार नहीं आते, उनके पत्र पड़ोसियों को सौंप दिये जाते। तो कभी एक महिला डाकिया का चेहरा सामने आता जिसने कई दिन की डाक इकट्ठा हो जाने पर उसे रद्दी वाले को बेच दी। या फिर इलाहाबाद में पुलिस महानिरीक्षक रहे एक आई।पी.एस. अधिकारी की पत्नी को जब डाकिये ने उनके बेटे की नियुक्ति का पत्र दिखाया तो वह इतनी भावविह्नल हो गईं कि उन्होंने नियुक्ति पत्र लेने हेतु अपना आंचल ही फैला दिया, मानो मुट्ठी में वो खुशखबरी नहीं संभल सकती थी।
मैं इस तथ्य का प्रतिपादन नहीं करना चाहता कि हर डाकिया बुरा ही होता है या अच्छा ही होता है। पर यह सच है कि ‘‘डाकिया‘‘ भारतीय सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी है। डाकिया द्वारा डाक लाना, पत्रों का बेसब्री से इंतजार, डाकिया से ही पत्र पढ़वाकर उसका जवाब लिखवाना इत्यादि तमाम महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आप डाकिये के रहन-सहन, वेश-भूषा एवं वेतन पर मत जाइये, क्योंकि उसके परिचित सभी तबके के लोग हैं। कभी-कभी जो काम बड़े अधिकारी भी नहीं करा पाते वह डाकिया चंद मिनटों में करा देता है। कारण डाक विभाग का वह सबसे मुखर चेहरा है। जहाँ कई अन्य देशों ने होम-टू-होम डिलीवरी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाये हैं, या इसे सुविधा-शुल्क से जोड़ दिया है, वहीं भारतीय डाकिया आज भी देश के हर होने में स्थित गाँव में निःशुल्क अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है।
जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया। कल तक लोग थके-हारे धूप, सर्दी व बरसात में चले आ रहे डाकिये को कम से कम एक गिलास पानी तो पूछते थे, पर आज की पीढ़ी डाकिये को एक हरकारा मात्र समझकर पत्र लेने के तत्काल बाद दरवाजा धड़ाम से बन्द कर कर लेती है, फिर भावनात्मकता व आत्मीयता कहाँ? कहांँ गया वह अपनापन जब डाकिया चीजों को ढोने वाला हरकारा मात्र न मानकर एक ही थैले में सुख और दुःख दोनों को बांँटने वाला दूत समझा जाता था?
वे बुजुर्ग व्यक्ति मेरे पास लम्बे समय तक बैठकर अपनी व्यथा सुनाते रहे और मैंने उनकी शिकायत के निवारण का भरोसा भी दिलाया, पर तब तक मेरा मनोमस्तिष्क ऊपर व्यक्त की गई भावनाओं में विचरण कर चुका था।
(कृष्ण कुमार यादव जी का यह आलेख डाक पत्रिका के सितम्बर 2004 अंक में प्रकाशित हुआ था)
शाम को मैं लौटकर घर आया तो पत्नी ने मुझे भी खुशखबरी सुनाई और पल्लू से पैसे निकालते हुए कहा कि जाइये अभी डाकिया बाबू को एक किलो मोतीचूर लड्डू पहुंँचा आइये। मैंने तुरंत साइकिल उठायी और लड्डू खरीद कर डाकिया बाबू के घर पहुंँचा। उस समय वे रात्रि के खाने की तैयारी कर रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने गले लगकर बेटे के चयन की बधाई दी और जवाब में मैंने लड्डू का पैकेट उनके हाथों में रख दिया। डाकिया बाबू बोले- ‘‘अरे ये क्या कर रहे हैं आप? चिट्ठियाँं बांँटना तो मेरा काम है। किसी को सुख बांटता हूँ तो किसी को दुःख।‘‘ मैंने कहा नहीं साहब, आप तो हमारे घर हमारा सौभाग्य लेकर आये थे, अतः आपको ये मिठाई स्वीकारनी ही पड़ेगी।
ये बताते-बताते उन बुजुर्ग की आंँखों से आँंसू झलक पड़े। और बोले, साहब! जब मेरे बेटे की शादी हुई तो डाकिया बाबू रोज सुबह मेरे घर पर आते और पूछ जाते कि कोई सामान तो बाजार से नहीं मंँगवाना है। इसके बाद वे अपने वर्तमान डाकिया के बारे में बताने लगे, साहब! उसे तो बात करने की भी तमीज नहीें। डाक सीढ़ियों पर ही फेंककर चला जाता है। पिछले दिनों मेरे नाम एक रजिस्ट्री पत्र आया। घर में मात्र मेरी बहू थी। उसने कहा बाबू जी तो घर पर नहीं हैं, लाइये मुझे ही दे दीजिए। जवाब में उसने तुनक कर कहा जब वह आ जाएं तो बोलना कि डाकखाने से आकर पत्र ले जाएं।
मैं उस बुजुर्ग व्यक्ति की बात ध्यान से सुन रहा था और मेरे दिमाग में भी डाकिया के कई रूप कौंध रहे थे। कभी मुझे एक प्रतिष्ठित साहित्यकार की कहानी का वह अंश याद आता, जिसमें डाकिये ने एक व्यक्ति को उसके रिश्तेदार की मौत की सूचना वाला पत्र इसलिए मात्र नहीं दिया, क्योंकि इस दुःखद समाचार से उस व्यक्ति की बेटी की शादी टल सकती थी, जो कि बड़ी मुश्किलों के बाद तय हुई थी। तो कभी विदेश से लौटकर आये एक व्यक्ति की बात कानों में गूँजती कि- कम से कम भारत में अपने यहाँ डाकिया हरेक दरवाजे पर जाता तो है। तो कभी अपने गांँव का वह डाकिया आता, जिसकी शक्ल सिर्फ वही लोग पहचानते थे जो कभी बाजार गये हों। क्योंकि वह डाकिया पत्र-वितरण हेतु कभी गाँव में आता ही नहीं था। हर बाजार के दिन वह खाट लगाकर एक निश्चित दुकान के सामने बैठ जाता और सभी पत्रों को खाट पर सजा देता। गाँव वाले हाथ बांधे खड़े इन्तजार करते कि कब उनका नाम पुकारा जायेगा। जो लोग बाजार नहीं आते, उनके पत्र पड़ोसियों को सौंप दिये जाते। तो कभी एक महिला डाकिया का चेहरा सामने आता जिसने कई दिन की डाक इकट्ठा हो जाने पर उसे रद्दी वाले को बेच दी। या फिर इलाहाबाद में पुलिस महानिरीक्षक रहे एक आई।पी.एस. अधिकारी की पत्नी को जब डाकिये ने उनके बेटे की नियुक्ति का पत्र दिखाया तो वह इतनी भावविह्नल हो गईं कि उन्होंने नियुक्ति पत्र लेने हेतु अपना आंचल ही फैला दिया, मानो मुट्ठी में वो खुशखबरी नहीं संभल सकती थी।
मैं इस तथ्य का प्रतिपादन नहीं करना चाहता कि हर डाकिया बुरा ही होता है या अच्छा ही होता है। पर यह सच है कि ‘‘डाकिया‘‘ भारतीय सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी है। डाकिया द्वारा डाक लाना, पत्रों का बेसब्री से इंतजार, डाकिया से ही पत्र पढ़वाकर उसका जवाब लिखवाना इत्यादि तमाम महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आप डाकिये के रहन-सहन, वेश-भूषा एवं वेतन पर मत जाइये, क्योंकि उसके परिचित सभी तबके के लोग हैं। कभी-कभी जो काम बड़े अधिकारी भी नहीं करा पाते वह डाकिया चंद मिनटों में करा देता है। कारण डाक विभाग का वह सबसे मुखर चेहरा है। जहाँ कई अन्य देशों ने होम-टू-होम डिलीवरी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाये हैं, या इसे सुविधा-शुल्क से जोड़ दिया है, वहीं भारतीय डाकिया आज भी देश के हर होने में स्थित गाँव में निःशुल्क अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है।
जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया। कल तक लोग थके-हारे धूप, सर्दी व बरसात में चले आ रहे डाकिये को कम से कम एक गिलास पानी तो पूछते थे, पर आज की पीढ़ी डाकिये को एक हरकारा मात्र समझकर पत्र लेने के तत्काल बाद दरवाजा धड़ाम से बन्द कर कर लेती है, फिर भावनात्मकता व आत्मीयता कहाँ? कहांँ गया वह अपनापन जब डाकिया चीजों को ढोने वाला हरकारा मात्र न मानकर एक ही थैले में सुख और दुःख दोनों को बांँटने वाला दूत समझा जाता था?
वे बुजुर्ग व्यक्ति मेरे पास लम्बे समय तक बैठकर अपनी व्यथा सुनाते रहे और मैंने उनकी शिकायत के निवारण का भरोसा भी दिलाया, पर तब तक मेरा मनोमस्तिष्क ऊपर व्यक्त की गई भावनाओं में विचरण कर चुका था।
(कृष्ण कुमार यादव जी का यह आलेख डाक पत्रिका के सितम्बर 2004 अंक में प्रकाशित हुआ था)
Wednesday, April 15, 2009
डाकटिकटों में बखानी तिरंगे की कहानी
डाकटिकट बस कागज के टुकडे मात्र नहीं हैं, बल्कि अपने अन्दर इतिहास की तमाम विरासतों को भी सहेज कर रखे हुए हैं। पिछले दिनों प्रसिद्ध हिन्दी वेब पत्रिका " अभिव्यक्ति" पर विचरण करते समय ऐसी ही एक रोचक दास्ताँ से रूबरू होने का मौका मिला। मधुलता अरोरा जी ने " डाक टिकटों में बखानी तिरंगे की कहानी" शीर्षक से स्वतंत्रता का उत्सव बखूबी डाक टिकटों के माध्यम से प्रतिबिंबित किया है। इसे इस लिंक पर जाकर आप भी देख सकते हैं :
Tuesday, April 14, 2009
जानें डाक मत पत्र के बारे में
डाक मत पत्र का नाम सभी ने सुना होगा। लोकतांत्रिक निर्वाचन व्यवस्था में यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके माध्यम से मतदाता मतदान केन्द्र पर व्यक्तिशः उपस्थित न होते हुए भी अपना वोट डाल पाता है। दुनिया के कई देशों ने इसको लागू कर रखा है। इस व्यवस्था में सामान्यतया मतदाता के अनुरोध पर बैलट पेपर को उसके पास डाक द्वारा भेजा जाता है। ठप्पा लगाने के बाद मतदाता द्वारा फिर उसे वापस भेजना होता है। पहचान के लिए कुछ सत्यापन प्रक्रियाएं भी आवश्यक होती है।
भारत में डाक मत पत्र की व्यवस्था केवल सीमित रूप से ही लागू है। यह सबके लिए नहीं है। चुनाव में नामांकन में नाम वापसी के बाद प्रत्याशियों की तस्वीर साफ होने के 48 घण्टे के भीतर संबंधित लोगों को जिला निर्वाचन अधिकारी द्वारा डाक मत पत्र भेजने का नियम है। मतगणना के दिन सुबह 8 बजे तक डाक से वापस आने वाले डाक मत पत्रों को मतगणना में शामिल किया जाता है। मतगणना के सबसे आखिर में डाक मत पत्र को जोड़ा जाता है।
द कंडक्ट आफ इलेक्शन रूल 1961 के सेक्शन 18 ए के अनुसार लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में डाक द्वारा मतदान के हकदार लोगों की सूची बनाई गई है। इसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति शामिल हैं। इसके अलावा सेना, चुनाव ड्यूटी पर तैनात मतदाता एवं ऐहतियात के तहत गिरफ्तार मतदाता भी डाक मत पत्र का इस्तेमाल अपना वोट डालने के लिए कर सकते हैं।
साल 2003 में हुए जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के सेक्शन 60 सी में किए गये संशोधन अनुसार अब किसी भी ऐसे वर्ग से संबंधित कोई भी व्यक्ति जिसको चुनाव आयोग ने सरकार की सलाह पर अधिसूचित कर रखा हो, डाक या पोस्टल वोटिंग कर सकता है। भारत (आंशिक रूप से) के अलावा डाक मत पत्र का प्रावधान अमेरिका, ब्रिटेन, स्विटजरलैंड, आस्ट्रेलिया, आयरलैंड, जर्मनी इत्यादि देशों में भी है।
चिट्ठियों का इंतजार
सूचना क्रांति के दौर में
खो चुकी हैं मानवीय संवेदनाएं,
चिट्ठी में दिखती थी कभी
जो मोहक भावनाएं।
याद आते हैं छात्रावास के वे दिन
जब डाकियों के आने की आहट
कर जाती थी अंतर्मन में
एक घनघनाहट,
मां के ममता से भरे वे पत्र
करती अनुनय हर बार।
बेटा, समय से भोजन करियो,
अपनी सेहत का खयाल रखियो
समय से सोइयो,
बुआ तुम्हें याद करत रहिन,
दद्दा हाल पूछत रहेन,
बापू कहिन हैं कि मन लगाय पढ़्यो,
जो काजू-बादाम भेजा है, उन्हीं का नाश्ता करियो।
दो-चार दिन के छुट्टी मा घर चले अइयों,
ढेर भाग-दौड़ जिन करयो
समय से स्कूल आवा-जावा करो,
ढेर पढ़ाई के चक्कर में अपनी सेहत न बरबाद करियो।
गन्ने की फसल अच्छी भई है पर पेराई पड़ी है,
जब तू अइबो तब पेरइबे, नया गुड़ तोहे खियइबे ।
ऐसी चिट्ठियों की लंबी कतार
भावों की विह्वलता से ओतप्रोत,
चली आती थी लगातार,
यद्यपि हर बार वही सीख
मानो मांगती ममता की भीख,
मां को पता नहीं कि बेटा कितना बड़ा हो गया,
मगर मां की नज़र में मैं हमेशा बच्चा ही रह गया।
बापू को रहती थी मेरे आगे बढ़ने की इच्छा,
और बेहतर परिणाम की प्रतीक्षा।
पर मां को सताती थी मेरी सेहत की चिंता।
कितना भी तन्दुरुस्त होकर, मैं गांव जाता,
हमेशा मां का उलाहना ही पाता
लागत है कि तुम खाना-वाना ठीक से नहीं खा रह्यो,
ठीक से ना खइबो तो पढ़ाई छोड़ाय तोहे घर ही मा रखिबो।
फिर भी उन चिट्ठियों का इंतजार
रहता था बार-बार,
क्योकि वह नहीं था सिर्फ कागज़ का एक हिस्सा,
बड़े ही मनोयोग से समेटे पूरे गांव का किस्सा।
गांव से दूर, पर पास रहने का भ्रम
मां के समीप रहने का उपक्रम,
जब कभी मन घबराता, गांव याद आता
पलटकर उन चिट्ठियों को
मन गांव की अमराइयों, खलिहानों
और पगडंडियों में खो जाता,
मां के साथ सारे रिश्तों को मैं बहुत करीब पाता।
पर आज वो मां नहीं
साथ ही नए परिवेश में
वो बात भी नहीं।
औद्योगिक क्रांति का दौर,
सूचना क्रंति का ठौर,
तकनीक के तारों में उलझ
दम तोड़ती भावनाएं,
बिछुड़ गई हैं संवेदनाएं।
कभी उनकी चिट्ठी भी देती थी बहुत राहत
जिसमें प्यार की होती थी तीव्र सनसनाहट
साथ ही बनी रहती थी रिश्ते की गरमाहट।
तन्हाइयों की होती थी वो संगिनी
एक पवित्र रिश्ते की बेशक थी वो बंदिनी।
पर आज जब भी वो दूर होती है,
इन तन्हाइयों को खुशमय बनाने में
वो चिट्ठियां ऊर्जा का काम करती हैं।
संजो कर रखी गई चिट्ठियां देती हैं
बहुत व्यापक शान्ति
बाजारवाद की तीव्र आंधी ने
उड़ाकर रख दी है आत्मीयता,
वायरलेस तकनीक के मध्य
गुम हो गई है सामीप्यता।
मगर इन मोबाइलों में इतनी शक्ति कहां
बेशक समेट ले वो मुठ्ठी में जहां,
पर एक दिन वो रेत बन मुठ्ठी से सरक जाएगी
‘ निर्मेष ’ काम तो अपने पैरों की जमीं ही आएगी।
रमेश कुमार निर्मेश
rameshbhu@hotmail.com
(साभार: http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/msid-3078858,prtpages-1.cms)
खो चुकी हैं मानवीय संवेदनाएं,
चिट्ठी में दिखती थी कभी
जो मोहक भावनाएं।
याद आते हैं छात्रावास के वे दिन
जब डाकियों के आने की आहट
कर जाती थी अंतर्मन में
एक घनघनाहट,
मां के ममता से भरे वे पत्र
करती अनुनय हर बार।
बेटा, समय से भोजन करियो,
अपनी सेहत का खयाल रखियो
समय से सोइयो,
बुआ तुम्हें याद करत रहिन,
दद्दा हाल पूछत रहेन,
बापू कहिन हैं कि मन लगाय पढ़्यो,
जो काजू-बादाम भेजा है, उन्हीं का नाश्ता करियो।
दो-चार दिन के छुट्टी मा घर चले अइयों,
ढेर भाग-दौड़ जिन करयो
समय से स्कूल आवा-जावा करो,
ढेर पढ़ाई के चक्कर में अपनी सेहत न बरबाद करियो।
गन्ने की फसल अच्छी भई है पर पेराई पड़ी है,
जब तू अइबो तब पेरइबे, नया गुड़ तोहे खियइबे ।
ऐसी चिट्ठियों की लंबी कतार
भावों की विह्वलता से ओतप्रोत,
चली आती थी लगातार,
यद्यपि हर बार वही सीख
मानो मांगती ममता की भीख,
मां को पता नहीं कि बेटा कितना बड़ा हो गया,
मगर मां की नज़र में मैं हमेशा बच्चा ही रह गया।
बापू को रहती थी मेरे आगे बढ़ने की इच्छा,
और बेहतर परिणाम की प्रतीक्षा।
पर मां को सताती थी मेरी सेहत की चिंता।
कितना भी तन्दुरुस्त होकर, मैं गांव जाता,
हमेशा मां का उलाहना ही पाता
लागत है कि तुम खाना-वाना ठीक से नहीं खा रह्यो,
ठीक से ना खइबो तो पढ़ाई छोड़ाय तोहे घर ही मा रखिबो।
फिर भी उन चिट्ठियों का इंतजार
रहता था बार-बार,
क्योकि वह नहीं था सिर्फ कागज़ का एक हिस्सा,
बड़े ही मनोयोग से समेटे पूरे गांव का किस्सा।
गांव से दूर, पर पास रहने का भ्रम
मां के समीप रहने का उपक्रम,
जब कभी मन घबराता, गांव याद आता
पलटकर उन चिट्ठियों को
मन गांव की अमराइयों, खलिहानों
और पगडंडियों में खो जाता,
मां के साथ सारे रिश्तों को मैं बहुत करीब पाता।
पर आज वो मां नहीं
साथ ही नए परिवेश में
वो बात भी नहीं।
औद्योगिक क्रांति का दौर,
सूचना क्रंति का ठौर,
तकनीक के तारों में उलझ
दम तोड़ती भावनाएं,
बिछुड़ गई हैं संवेदनाएं।
कभी उनकी चिट्ठी भी देती थी बहुत राहत
जिसमें प्यार की होती थी तीव्र सनसनाहट
साथ ही बनी रहती थी रिश्ते की गरमाहट।
तन्हाइयों की होती थी वो संगिनी
एक पवित्र रिश्ते की बेशक थी वो बंदिनी।
पर आज जब भी वो दूर होती है,
इन तन्हाइयों को खुशमय बनाने में
वो चिट्ठियां ऊर्जा का काम करती हैं।
संजो कर रखी गई चिट्ठियां देती हैं
बहुत व्यापक शान्ति
बाजारवाद की तीव्र आंधी ने
उड़ाकर रख दी है आत्मीयता,
वायरलेस तकनीक के मध्य
गुम हो गई है सामीप्यता।
मगर इन मोबाइलों में इतनी शक्ति कहां
बेशक समेट ले वो मुठ्ठी में जहां,
पर एक दिन वो रेत बन मुठ्ठी से सरक जाएगी
‘ निर्मेष ’ काम तो अपने पैरों की जमीं ही आएगी।
रमेश कुमार निर्मेश
rameshbhu@hotmail.com
(साभार: http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/msid-3078858,prtpages-1.cms)
Sunday, April 12, 2009
आन्दोलनों का गवाह है लखनऊ जीपीओ पार्क
अक्सर प्रदर्शनकारियों से आबाद रहने वाले लखनऊ जीपीओ पार्क की आजादी से पहले भी यही भूमिका थी। वर्तमान पीढ़ी के शायद बहुत कम लोग आजादी की लड़ाई में जीपीओ पार्क योगदान के बारे में जानते होंगे। आज जहाँं जीपीओ पार्क है आजादी से पहले वहाँ ‘रिंक थियेटर‘ हुआ करता था। लखनऊ में चलने वाले काकोरी षडयंत्र केस का मुकदमा पहले रौशनउद्दौला लाइब्रेरी में शुरू हुआ मगर तुरन्त ही बाद इसकी सुनवाई ‘रिंक थियेटर‘ में होने लगी। यहाँ सन 1925 में दस माह तक यह केस चला। सेशन जज हेमलटन इस केस की सुनवाई करते थे और सरकारी वकील जगत नरायण मुल्ला व आनन्द नरायण मुल्ला बहस करते थे। यहीं रामकृष्ण खत्री व शचीन्द्रनाथ सान्याल की पैरवी के लिए चन्द्रभानु गुप्त, मोहनलाल सक्सेना व कृपाशंकर हजेला कलकत्ता के बैरिस्टर बी0के0 चैधरी के साथ यहाँ आया करते थे। क्रान्तिकारियों को जेल से लाते समय कान्यकुब्ज कालेज से कैसरबाग चैराहे तक छात्रों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। जिस दिन ‘रिंक थियेटर‘ में शचीन्द्रनाथ सान्याल को काले पानी व रामकृष्ण खत्री को दस साल के कठोर कारावास की सजा सुनायी गयी थी, उसी दिन ‘रिंक थियेटर‘ को तोड़कर यहाँ पर जीपीओ पार्क की नींव रखी गई। इसलिए लखनऊ जीपीओ पार्क और आन्दोलन का जन्मजात रिश्ता है।
Saturday, April 11, 2009
ब्रिटेन में मोटर गाड़ी में सवार होकर अब पत्र बाँटेंगे डाकिये
अपने देश में डाकियों को आपने डाक बाँटते हुए आज तक साइकिल पर देखा होगा। कुछेक क्षेत्रों मे स्पीड पोस्ट का वितरण मोपेड या आटो रिक्शा द्वारा भी होता है। पर अभी तक कभी यह नहीं सुना गया कि डाकिया मोटर गाड़ी से डाक बाँटेगा। पर अब ऐसा ही होने जा रहा है। यह भारत में नहीं बल्कि सात समुन्दर पार ब्रिटेन में होने जा रहा है।
ब्रिटेन में डाकिये अब मोटरसाइकिलों की बजाय फ्रैंच लुक वाली मोटर गाड़ियों (बग्घी) में सवार होकर पत्र बाँटेंगे। रायल मेल सेवा ने अंडे के आकार के इस वाहन का इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी है। वाहन की अधिकतम गति 25 मील प्रति घंटे होगी। इससे ब्रिटेन में डाक सेवा में साइकिलों के युग का अंत हो जाएगा। माट्रा माडल फ्रांस में तैयार किया गया है। ब्रिटिश डाकियों ने इस कदम का गर्मजोशी से स्वागत किया है। बैटरी चालित यह गाड़ी एक बार चार्ज होने पर 30 से 35 मील की यात्रा कर सकती है। अन्य वाहनों की तरह इस गाड़ी में नंबर प्लेट की जरूरत नहीं होगी।.....अब इन्तजार कीजिए कि अपने देश में भी मोटर गाड़ियों में सवार होकर डाकिये पत्र बाँटेंगे।
ब्रिटेन में डाकिये अब मोटरसाइकिलों की बजाय फ्रैंच लुक वाली मोटर गाड़ियों (बग्घी) में सवार होकर पत्र बाँटेंगे। रायल मेल सेवा ने अंडे के आकार के इस वाहन का इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी है। वाहन की अधिकतम गति 25 मील प्रति घंटे होगी। इससे ब्रिटेन में डाक सेवा में साइकिलों के युग का अंत हो जाएगा। माट्रा माडल फ्रांस में तैयार किया गया है। ब्रिटिश डाकियों ने इस कदम का गर्मजोशी से स्वागत किया है। बैटरी चालित यह गाड़ी एक बार चार्ज होने पर 30 से 35 मील की यात्रा कर सकती है। अन्य वाहनों की तरह इस गाड़ी में नंबर प्लेट की जरूरत नहीं होगी।.....अब इन्तजार कीजिए कि अपने देश में भी मोटर गाड़ियों में सवार होकर डाकिये पत्र बाँटेंगे।
पत्र-पेटी
बड़े प्रेम से लिखता हूँ कोई चिट्ठी
टांकता हूँ किसी परिचित का पता-ठिकाना
बाहर निकलने के अवसर की ताक में
रखता हूँ जेब में जतन से
जगह-जगह लगे लोहे के
लाल बक्सों में डालते हुए चिट्ठी
ठिठक जाते हैं पांव
कि पहुँच तो गई न सही-सलामत
बक्से के अन्दर
यकीन नहीं होता बक्से पर
खड़खड़ाता हूँ खिड़की
सोचता हूँ क्षण भर
और चल देता हूँ, चिट्ठी में लिखी गई
बातों को जांचता-परखता
धुंधली पड़ जाती है चिट्ठी डालने की तारीख
कि अचानक मेरे पते और ठिकाने को ढूंढ़ती हुई
प्रवेश करती है एक चिट्ठी
मेरे आंगन में चुपचाप
गदगद हो जाता है मन
कुशल और क्षेम के बाद
यह पढ़ते हुए कि आपकी चिट्ठी मिली
याद आ जाती मुझे
लोहे के लाल बक्से की
और आ जाते हैं आँखों में आंसू छल्-छल्।
विजय प्रताप सिंह
112ए/2, शिलाखाना, तेलियरगंज, इलाहाबाद-211004
टांकता हूँ किसी परिचित का पता-ठिकाना
बाहर निकलने के अवसर की ताक में
रखता हूँ जेब में जतन से
जगह-जगह लगे लोहे के
लाल बक्सों में डालते हुए चिट्ठी
ठिठक जाते हैं पांव
कि पहुँच तो गई न सही-सलामत
बक्से के अन्दर
यकीन नहीं होता बक्से पर
खड़खड़ाता हूँ खिड़की
सोचता हूँ क्षण भर
और चल देता हूँ, चिट्ठी में लिखी गई
बातों को जांचता-परखता
धुंधली पड़ जाती है चिट्ठी डालने की तारीख
कि अचानक मेरे पते और ठिकाने को ढूंढ़ती हुई
प्रवेश करती है एक चिट्ठी
मेरे आंगन में चुपचाप
गदगद हो जाता है मन
कुशल और क्षेम के बाद
यह पढ़ते हुए कि आपकी चिट्ठी मिली
याद आ जाती मुझे
लोहे के लाल बक्से की
और आ जाते हैं आँखों में आंसू छल्-छल्।
विजय प्रताप सिंह
112ए/2, शिलाखाना, तेलियरगंज, इलाहाबाद-211004
Wednesday, April 8, 2009
हिन्दुस्तान अख़बार में ब्लॉग की चर्चा
Sunday, April 5, 2009
दुनिया का प्रथम प्रेम-पत्र
हममें से हर किसी ने अपने जीवन में किसी न किसी रूप में प्रेम-पत्र लिखा होगा। प्रेम-पत्रों का अपना एक भरा-पूरा संसार है। प्रेम जैसी अनुपम भावना को व्यक्त करने के लिए शब्द सचमुच नाकाफी होते हैं। दुनिया की तमाम मशहूर शख्सियतों ने प्रेम-पत्र लिखे हैं- फिर चाहे वह नेपोलियन हों, अब्राहम लिंकन, क्रामवेल, बिस्मार्क या बर्नाड शा हों। आज ये पत्र एक धरोहर बन चुके हैं। ऐसे में यह जानना अचरज भरा लगेगा कि दुनिया का सबसे पुराना प्रेम पत्र बेबीलोन के खंडहरों से मिला था। बेबीलोन की किसी युवती का प्रेमी अपनी भावनाओं को समेटकर उससे जब अपने दिल की बात कहने बेबीलोन तक पहुँचा तो वह युवती तब तक वहां से जा चुकी थी। वह प्रेमी युवक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और उसने वहीं मिट्टी के फर्श पर खोदते हुए लिखा- ''मैं तुमसे मिलने आया था, तुम नहीं मिली।'' यह छोटा सा संदेश विरह की जिस भावना से लिखा गया था, उसमें कितनी तड़प शामिल थी। इसका अंदाजा सिर्फ वह युवती ही लगा सकती थी जिसके लिये इसे लिखा गया। भावनाओं से ओत-प्रोत यह पत्र ईसा से बहुत पहले का है और इसे ही दुनिया का प्रथम प्रेम पत्र माना जाता है।
Saturday, April 4, 2009
डाक सेवाओं के कालानुक्रम विस्तार को दर्शाती पुस्तक
भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव द्वारा लिखित पुस्तक ''India Post : 150 Glorious Year'' भारत में डाक सेवाओं के कालानुक्रम विस्तार को दर्शाती है। इस पुस्तक में उल्लिखित ऐतिहासिक तथ्य इसकी पठनीयता में और वृद्धि करते हैं। इससे पूर्व डाक सेवाओं पर तमाम पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं पर सभी तथ्यों और उनसे जुड़े विवरणों को एक जगह एकत्र कर इस प्रकार सारगर्भित रूप में प्रस्तुत करने का यह प्रथम प्रयास है। पुस्तक में तमाम नई सेवाओं के आरम्भ, विभिन्न समयों पर डाक सेवाओं में हुए महत्वपूर्ण परिवर्तन, व्यक्ति विशेष की विशिष्टता से जुड़े तथ्यों, डाक टिकटों और उनके संग्रह से जुड़ी तमाम रोचक बातों का समावेश इसे न सिर्फ डाक विभाग से जुड़े लोगों हेतु आवश्यक बनाता है बल्कि शोधार्थियों, फिलेटलिस्ट एवं जन सामान्य हेतु भी महत्वपूर्ण बनाता है। पुस्तक में 2300 ई0 पूर्व से लेकर वर्ष 2006 तक की जानकारियाँ एवं तथ्य उपलब्ध कराये गये हैं। नागरिक उत्तर प्रदेश, लखनऊ, द्वारा वर्ष 2006 में प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य रू0 250/- मात्र है।
Friday, April 3, 2009
विविध आयामों को समेटे "डाक पत्रिका"
डाक विभाग ‘‘डाक पत्रिका‘‘ नाम से एक त्रैमासिक हाउस जर्नल का प्रकाशन करता है। ग्लेज्ड पेपर पर खूबसूरत कवर पृष्ठ के साथ इस पत्रिका में जहाँ डाक सेवाओं के विविध आयामों पर रचनाएं प्रकाशित होती हैं, वहीं साहित्य एवं स्वास्थ्य जैसी विधाओं में भी अक्सर रचनाएं देखने को मिलती हैं। डाक विभाग वैसे भी साहित्यिक रूप से समृद्व है, अतएव डाक पत्रिका में ऐसे तमाम रचनाकार प्रायः पढ़ने को मिलते हैं जिन्हें हम-आप विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते रहते हैं। पत्रिका में अंग्रेजी एवं हिन्दी दोनों ही भाषाओं में लेख, कविताएं, पुस्तक समीक्षा कहानियाँ इत्यादि प्रकाशित होती हैं। अतीत के पन्नों से एवं अखबार कहते हैं जैसे स्तम्भ पत्रिका को रोचक बनाते हैं। डाक रस के बहाने गुदगुदाती रचनाएं भी इसमें शामिल हैं। देश के विभिन्न अंचलों से प्राप्त पाठकों के पत्र पत्रिका के बहुआयामी रूप को प्रतिबिम्बित करते हैं। समय-समय पर जारी डाक टिकटों एवं विभिन्न प्रदर्शनियों व कार्यक्रमों की तस्वीरें पत्रिका को जीवंत बनाती हैं। बस जरूरत है इस त्रैमासिक पत्रिका के नियमित एवं सतत् प्रकाशन की। (चित्र में प्रकाशित आवरण पृष्ठ डाक पत्रिका के जनवरी-मार्च 2005 अंक का है)
Thursday, April 2, 2009
एस. एम. एस.
अब नहीं लिखते वो ख़त
करने लगे हैं एस. एम.एस.
तोड़-मरोड़ कर लिखे शब्दों के साथ
करते हैं खुशी का इजहार
मिटा देता है हर नया एस.एम. एस.
पिछले एस.एम. एस. का वजूद
एस.एम. एस. के साथ ही
शब्द छोटे होते गए
भावनाएं सिमटती गई
खो गई सहेज कर रखने की परम्परा
लघु होता गया सब कुछ
रिश्तों की क़द्र का अहसास भी !!
(युवा रचनाकार आकांक्षा जी की यह कविता ''दैनिक जागरण'' के साहित्यिक 'पुनर्नवा' पृष्ठ पर 29 सितम्बर 2006 को प्रकाशित हुयी थी. एस.एम.एस. के बहाने दरकती भावनाओं पर यह कविता बखूबी प्रकाश डालती है. इसे हम यहाँ पर साभार प्रकाशित कर रहे हैं। आकांक्षा जी की अन्य रचनाएँ आप उनके ब्लॉग "शब्द-शिखर" http://shabdshikhar.blogspot.com/ पर पढ़ सकते हैं.)