भारतीय संस्कृति का प्रभाव विदेशों में भी दिखने लगा है. हमारे देवी-देवता, हमारी भारतीय संस्कृति और भारतीय सभ्यता से जुड़ी हर चीज उन्हें आकर्षित करती है, प्राचीन भारतीय संस्कृति और सनातन परंपराओं के प्रति ज़बर्दस्त सम्मान दिखता है। इसका ज्वलंत उदाहरण है थाईलैंड सरकार द्वारा हिन्दू देवी-देवताओं पर जारी किए गए डाक टिकट।
थाईलैंड सरकार द्वारा हाल ही में हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र वाले आठ डाक टिकट जारी किए गए हैं। इनमें भगवान गणेश, ब्रह्मा, भगवान नारायण(थाई भाषा में फ्रा नारय)और भगवान शिव(थाई भाषा में फ्रा इशुन)के चित्र हैं। डाक टिकट पर ब्रह्मा विष्णु महेश की त्रिमूर्ति के साथ ही ॐ भी बना हुआ है। इन देवी-देवताओं के चित्र भी उतने खूबसूरत हैं कि देखते ही मन मोह लेते हैं। भारतीय सनातन परंपरा के प्रतीक और देश के करोडों लोगो की आस्था और श्रध्दा के केंद्र इन देवी-देवताओं पर डाक टिकट जारी करके थाईलैंड सरकार ने वाकई एक सराहनीय कार्य किया है !!
Saturday, December 26, 2009
Thursday, December 24, 2009
दूत बना डाकिया (डाकिया डाक लाया-6)
डाकिया यानी संदेशवाहक या दूत। संदेशों को शीघ्रता से इधर से उधर पहुंचाए। आज की हिन्दी में दूत शब्द का सीधा सीधा प्रयोग कम ही होता है मगर राजदूत शब्द भरपूर चलन में है और राजनयिक-वैदेशिक खबरों में इसका उल्लेख रहता है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र और उड़ीसा में एक जातीय उपनाम है राऊत । यह राजदूत का ही अपभ्रंश है। राऊत मूलतः एक शासन द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि होता था जो गांव में शासन के निर्देश पहुंचाने के अलावा लगान की वसूली भी करता था। दूत के अन्य पर्याय हैं हरकारा , डाकिया, संदेशहर, प्रतिनिधि आदि। दूत शब्द के मूल में हैं संस्कृत की दू,दु अथवा द्रु धातुए हैं जिनमें तीव्र गति का भाव शामिल है। द्रु का मतलब है भागना, बहना , हिलना-डुलना, गतिमान रहना आदि। द्रु से बना द्रावः जिससे हिन्दी में बना दौड़ या दौड़ना।
अब दु से बने दूत और द्रु से बने द्रुत शब्द पर गौर करें तो भाव दोनों का एक ही है। द्रुत का मतलब है तीव्रगामी, फुर्तीला, आशु गामी आदि। यही सारे गुण दूत में भी होने चाहिए। द्रा और द्राक् का मतलब भी तुरंत , तत्काल , फुर्ती से और दौड़ना ही होता है। जान प्लैट्स ने द्राक् से ही हिन्दी के डाक शब्द की व्युत्पत्ति मानी है । दूत के अर्थ में एक अन्य शब्द पायक या पायिकः भी है। यह भी पैदलसिपाही के अर्थ में है । पैदल तेज तेज भागना।
द्रु से ही बना है द्रव जिसका मतलब हुआ घोड़े की भांति भागनाया पिघलना, तरल, चाल, वेग आदि । द्रव का ही एक रूप धाव् जिसका मतलब है किसी की और बढ़ना, किसी के मुकाबले दौड़ना। मराठी में धाव का मतलब दौड़ना ही है। धाव् से बने धावक हुआ दौड़ाक यानी जिसका काम ही दौड़ना हो। जाहिर है यही तो प्राचीनकाल में दूत की प्रमुख योग्यता थी। द्रु के तरल धारा वाले रूप में जब शत् शब्द जुड़ता है तो बनता है शतद्रु अर्थात् सौ धाराएं। पंजाब की प्रमुख नदी का सतलज नाम इसी शतद्रु का अपभ्रंश है।
साभार : शब्दों का सफर
अब दु से बने दूत और द्रु से बने द्रुत शब्द पर गौर करें तो भाव दोनों का एक ही है। द्रुत का मतलब है तीव्रगामी, फुर्तीला, आशु गामी आदि। यही सारे गुण दूत में भी होने चाहिए। द्रा और द्राक् का मतलब भी तुरंत , तत्काल , फुर्ती से और दौड़ना ही होता है। जान प्लैट्स ने द्राक् से ही हिन्दी के डाक शब्द की व्युत्पत्ति मानी है । दूत के अर्थ में एक अन्य शब्द पायक या पायिकः भी है। यह भी पैदलसिपाही के अर्थ में है । पैदल तेज तेज भागना।
द्रु से ही बना है द्रव जिसका मतलब हुआ घोड़े की भांति भागनाया पिघलना, तरल, चाल, वेग आदि । द्रव का ही एक रूप धाव् जिसका मतलब है किसी की और बढ़ना, किसी के मुकाबले दौड़ना। मराठी में धाव का मतलब दौड़ना ही है। धाव् से बने धावक हुआ दौड़ाक यानी जिसका काम ही दौड़ना हो। जाहिर है यही तो प्राचीनकाल में दूत की प्रमुख योग्यता थी। द्रु के तरल धारा वाले रूप में जब शत् शब्द जुड़ता है तो बनता है शतद्रु अर्थात् सौ धाराएं। पंजाब की प्रमुख नदी का सतलज नाम इसी शतद्रु का अपभ्रंश है।
साभार : शब्दों का सफर
Tuesday, December 22, 2009
सहनशक्ति की चरम सीमा [डाकिया डाक लाया - 5]
वेनिस का मार्कोपोलो करीब सात सदी पहले कुबलाई खान का दरबारी था और उसके नोट्स के आधार पर मॉरिस कॉलिस ने मौले और पैलियट नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद श्री उदयकांत पाठक ने किया है। पेश है पोलो का दिलचस्प वृतांत- सन १२७१ के दौर में चीन के शासक कुबलाई खान की डाक व्यवस्था की अंतिम कड़ी।
संदेशवाहकों के पास सरकार की ओर से दी गई विशेष तख्तियां होती थीं इनके जोर पर वह रास्ते में खाकान के नाम पर जो चाहे पा सकता था। मसलन अगर उसका घोड़ा गिर पड़ता तो वह राह में मिलने वाले किसी भी व्यक्ति से यहां तक कि बड़े भारी सरदार से भी उसका घोड़ा ले लेता। यह था संदेशवाहकों का रुतबा और संदेश के महत्वपूर्ण होने का असर।इन संदेशवाहकों की सहनशक्ति की तुलना किसी भी सर्वाधिक शक्तिशाली आधुनिक मानक तोड़नेवाले से नहीं की जा सकती। जिस किसी को भी गुड़सवारी का अनुभव हो , वह बता सकता है कि पच्चीस मील घोड़े की सवारी कितनी थका देने वाली होती है । पूर्व में साधारण यात्री के लिए यह फासला एक दिन की मंजिल माना जाता है। पचास मील चल लेना बड़ी बात होती है और बार बार सवारी बदलकर भी सौ मील कर लेना औसत सवार की शक्ति से बाहर की चीज़ है । तब एक रात और दिन में चार सौ मील कैसे तय किया जा सकता है? इसका रहस्य स्टेपी मैदान के मंगोल सवार की थाती है। यह कभी नहीं कहा गया कि रोमन लोगों ने अपनी स़कों और चौकियों को इतनी अच्छी तरह संगठित कर रखा था कि वे अपने पररवाने इतनी जल्दी भेज सकते हों मानों उन्हें ले जाने के लिए उनके पास मोटरकार हो। फिर भी यह असादारण बात है कि मशीनी सवारियों के आविष्कार से पहले, ज़रूरत पड़ने पर आदमी इतनी ही तेजी से ले जाने वाली प्रणाली ढूंढ लेता था। आगे के वर्णन से यह पता चलता है कि किस तरह से अरब लोगों को दसवीं सदी में हवाई जहाज का पूर्वाभास हो गया था। फातिमा सम्प्रदाय के खलीफा अजीज ने जो काहिरा में रहता था , बालबेक से ताजी चेरियों की इच्छा व्यक्त की । बालबेक रेगिस्तान के पार चार सौ मील उत्तर में था । वहा के वजीर को जब इसकी खबर मिली तो उसने छह सौ पत्रवाहक कबूतर जमा किये और हर एक के पैर में एक चेरी रखकर थैली बंध दी। चेरियां काहिरा में बिल्कुल अच्छी हालत में उसी दिन खलीफा के भोज के वक्त पर पहुंच गईं।
साभार : शब्दों का सफर
संदेशवाहकों के पास सरकार की ओर से दी गई विशेष तख्तियां होती थीं इनके जोर पर वह रास्ते में खाकान के नाम पर जो चाहे पा सकता था। मसलन अगर उसका घोड़ा गिर पड़ता तो वह राह में मिलने वाले किसी भी व्यक्ति से यहां तक कि बड़े भारी सरदार से भी उसका घोड़ा ले लेता। यह था संदेशवाहकों का रुतबा और संदेश के महत्वपूर्ण होने का असर।इन संदेशवाहकों की सहनशक्ति की तुलना किसी भी सर्वाधिक शक्तिशाली आधुनिक मानक तोड़नेवाले से नहीं की जा सकती। जिस किसी को भी गुड़सवारी का अनुभव हो , वह बता सकता है कि पच्चीस मील घोड़े की सवारी कितनी थका देने वाली होती है । पूर्व में साधारण यात्री के लिए यह फासला एक दिन की मंजिल माना जाता है। पचास मील चल लेना बड़ी बात होती है और बार बार सवारी बदलकर भी सौ मील कर लेना औसत सवार की शक्ति से बाहर की चीज़ है । तब एक रात और दिन में चार सौ मील कैसे तय किया जा सकता है? इसका रहस्य स्टेपी मैदान के मंगोल सवार की थाती है। यह कभी नहीं कहा गया कि रोमन लोगों ने अपनी स़कों और चौकियों को इतनी अच्छी तरह संगठित कर रखा था कि वे अपने पररवाने इतनी जल्दी भेज सकते हों मानों उन्हें ले जाने के लिए उनके पास मोटरकार हो। फिर भी यह असादारण बात है कि मशीनी सवारियों के आविष्कार से पहले, ज़रूरत पड़ने पर आदमी इतनी ही तेजी से ले जाने वाली प्रणाली ढूंढ लेता था। आगे के वर्णन से यह पता चलता है कि किस तरह से अरब लोगों को दसवीं सदी में हवाई जहाज का पूर्वाभास हो गया था। फातिमा सम्प्रदाय के खलीफा अजीज ने जो काहिरा में रहता था , बालबेक से ताजी चेरियों की इच्छा व्यक्त की । बालबेक रेगिस्तान के पार चार सौ मील उत्तर में था । वहा के वजीर को जब इसकी खबर मिली तो उसने छह सौ पत्रवाहक कबूतर जमा किये और हर एक के पैर में एक चेरी रखकर थैली बंध दी। चेरियां काहिरा में बिल्कुल अच्छी हालत में उसी दिन खलीफा के भोज के वक्त पर पहुंच गईं।
साभार : शब्दों का सफर
Sunday, December 20, 2009
घोड़ों की टाप और परवाने (डाकिया डाक लाया-4)
पिछली कड़ी में हमने जाना कि किस तरह 1271 के दौर में चीन के मंगोल शासक कुबलाई खान ने डाक व्यवस्था के जबर्दस्त प्रबंध किए थे। उसी कड़ी में मार्को पोलो की डायरी से कुछ और जानकारी लेते हैं। गौरतलब है कि वेनिस का मार्कोपोलो इस कालखंड में कुबलाई खान का दरबारी था और उसके नोट्स के आधार पर मॉरिस कॉलिस ने मौले और पैलियट नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद श्री उदयकांत पाठक ने किया है। पेश है पोलो का दिलचस्प वृतांत-
चौबीस घंटों में चारसौ मील !
पीकिंग और प्रान्तीय शहरों के बीच सामान्य संदेशों के लिए पच्चीस मील दूर तक के स्थान का फासला वही संदेशवाहक रोज़ाना तय करता था। पच्चीस मील के हिसाब से एक संदेशवाहक लगभग दो महीने में दक्षिणी चीन पहुंचता है और बरमा की सीमा पर युन्नान को साढे तीन महीने में। किन्तु अति आवश्यक संदेशों को पहुचाने के लिए यह गति को ई इतनी तेज न थी। ज़रूरी संदेशवाहकों के लिए अलग व्यवस्था थी। चौकियों के मध्य सिर्फ तीन मील का फासला होता था। और उनके बीच भी छोटी चौकियां होती थीं जिनमें संदेशवाहक रहा करते थे। ये संदेशवाहक ज़रूरी संदेश ले जाते । प्रत्येक आदमी अगली चौकी तक तीन मील तय करता । यह फासला इतना ही होता कि वह आधे घंटे में तय कर लेता था ताकि अगली चौकी पर पहुचकर परवाना देने में देर न लगे। संदेशवाहक की कमर में घंटियां लगी रहतीं। ज्योंही घंटियां सुनाई पड़तीं, चौकी का मुंशी दूसरे धावक को तैयार कर देता । इस तरह सरकारी परवाना इस विशाल देश के एक छोर से दूसरे छोर तक धावकों की शृंखला द्वारा ले जाया जाता।
औसतन दिन रात दोनों में ही आठ मील प्रति गंटे का हिसाब रखा जाता जिससे दक्षिणी चीन में सप्ताह भर में तथा युन्नान में बारह दिन में पहुंचना संभव हो जाता। ऐसे अवसर भी होते जब इससे भी तेज पहंचना आवश्यक होता। तब इससे भी तेज गति की आवश्यकता होती। मसलन विद्रोह हो जाने की स्थिति में। मंगोलों ने इसके लिए भी व्यवस्थाएं की ताकि तेज गति सेसंदेश पहुंचाया जा सके जितनी जल्दी आज मोटर द्वारा पहुंचाया जाता है। तीन मील वाली चौकियों पर धावकों के अलावा कुछ घोड़े भी सवारों के साथ जीन कसे तैयार रहते थे। परवाना एक चौकी से दूसरी चौकी तक हर मुमकिन उस गति से भेजा जाता जिस अधिकतम गति पर घोड़े भाग सकते। घुड़सवार घंटियां साथ लेकर चलते ताकि घोड़ा बदलने में वक्त न लगे। रात दिन आदमियों को और घोड़ों को बदलते जाने के क्रम से परवाना चौबीस घंटों में चार सौ मील का फासला तय कर लेता था यानी करीब सातसौ किलोमीटर। यह दूरी और समय आज के ज़माने के हिसाब से भी कम नहीं है।
साभार- शब्दों का सफर
चौबीस घंटों में चारसौ मील !
पीकिंग और प्रान्तीय शहरों के बीच सामान्य संदेशों के लिए पच्चीस मील दूर तक के स्थान का फासला वही संदेशवाहक रोज़ाना तय करता था। पच्चीस मील के हिसाब से एक संदेशवाहक लगभग दो महीने में दक्षिणी चीन पहुंचता है और बरमा की सीमा पर युन्नान को साढे तीन महीने में। किन्तु अति आवश्यक संदेशों को पहुचाने के लिए यह गति को ई इतनी तेज न थी। ज़रूरी संदेशवाहकों के लिए अलग व्यवस्था थी। चौकियों के मध्य सिर्फ तीन मील का फासला होता था। और उनके बीच भी छोटी चौकियां होती थीं जिनमें संदेशवाहक रहा करते थे। ये संदेशवाहक ज़रूरी संदेश ले जाते । प्रत्येक आदमी अगली चौकी तक तीन मील तय करता । यह फासला इतना ही होता कि वह आधे घंटे में तय कर लेता था ताकि अगली चौकी पर पहुचकर परवाना देने में देर न लगे। संदेशवाहक की कमर में घंटियां लगी रहतीं। ज्योंही घंटियां सुनाई पड़तीं, चौकी का मुंशी दूसरे धावक को तैयार कर देता । इस तरह सरकारी परवाना इस विशाल देश के एक छोर से दूसरे छोर तक धावकों की शृंखला द्वारा ले जाया जाता।
औसतन दिन रात दोनों में ही आठ मील प्रति गंटे का हिसाब रखा जाता जिससे दक्षिणी चीन में सप्ताह भर में तथा युन्नान में बारह दिन में पहुंचना संभव हो जाता। ऐसे अवसर भी होते जब इससे भी तेज पहंचना आवश्यक होता। तब इससे भी तेज गति की आवश्यकता होती। मसलन विद्रोह हो जाने की स्थिति में। मंगोलों ने इसके लिए भी व्यवस्थाएं की ताकि तेज गति सेसंदेश पहुंचाया जा सके जितनी जल्दी आज मोटर द्वारा पहुंचाया जाता है। तीन मील वाली चौकियों पर धावकों के अलावा कुछ घोड़े भी सवारों के साथ जीन कसे तैयार रहते थे। परवाना एक चौकी से दूसरी चौकी तक हर मुमकिन उस गति से भेजा जाता जिस अधिकतम गति पर घोड़े भाग सकते। घुड़सवार घंटियां साथ लेकर चलते ताकि घोड़ा बदलने में वक्त न लगे। रात दिन आदमियों को और घोड़ों को बदलते जाने के क्रम से परवाना चौबीस घंटों में चार सौ मील का फासला तय कर लेता था यानी करीब सातसौ किलोमीटर। यह दूरी और समय आज के ज़माने के हिसाब से भी कम नहीं है।
साभार- शब्दों का सफर
Saturday, December 19, 2009
क्या कहता है मार्को पोलो... (डाकिया डाक लाया-3)
डाक पर पिछली दो कड़ियों में हमने जानने का प्रयास किया कि डाक शब्द की व्युत्पत्ति का आधार क्या हो सकता है। इस संदर्भ मे द्राक् और ढौक शब्द सामने आए। अंग्रेजी के डॉक और बांग्ला के डाक से भी कुछ रिश्तेदारी सामने आई। द्राक् के शीघ्रता और दौड़ना जैसे मायनों और ढौक के पहुंचाना, पाना जैसे अर्थों के संदर्भ में पेश है कुछ और जानकारियां । वेनिस के मशहूर यात्री मार्को पोलो के बारे में मॉरिस कॉलिस की सुप्रसिद्ध पुस्तक मौले और पेलियट का अनुवाद श्री उदयकांत पाठक ने किया है । हिन्दी में यही पुस्तक मार्को पोलो के नाम से सन्मार्ग प्रकाशन ने छापी है। यहां उसी पुस्तक के कुछ अंश दिए जा रहे हैं जिनसे प्राचीन डाक व्यवस्था के बारे में ठोस जानकारियां मिलती हैं। सन् 1271 में मार्कोपोलो अपने पिता और चाचा के साथ चीन रवाना हुआ। उनका सफर सिल्क रूट पर तय हुआ। पोलो तब पंद्रह बरस का था। साढे तीन साल में यह सफर पूरा हुआ। पोलो को चीन के महान मंगोल शासक कुबलाई खान के शासन में सिविल सर्विस में काम करने का मौका मिला । करीब दो दशक तक वह वहां रहा। उसके नोट्स के आधार पर ही उक्त पुस्तक लिखी गई है। इस दिलचस्प विवरण की पहली कड़ी का आनंद लें।
तीन लाख घोडे, दस हजार चौकियां
कुबलाई खान भी रोमनों की तरह साम्राज्य पर नियंत्रण के लिए सड़कों के महत्व को जानता था।राजधानी पीकिंग को इन तमाम स्थानों से जोड़ने के लिए उसने सुदूर इरान और रूस तक सड़को का जाल बिछाया। मंगोलों की मार्ग प्रणाली, उस पर स्थित सरायें, फौजी चौकियां, डाक के घोड़े और थके घोड़ों के बदले नए घोड़े लेना इन सबका इतना अधिक विकास हुआ कि यह सारे शासन का ही एक महत्वपूर्ण विषय बन गया । इन मुख्य उद्देश्यों में से एक यह भी था कि
चीनियों तथा अन्य विजित राष्ट्रों को नियंत्रण में रखा जाए। पोलो इस विषय संबंधी कुछ मनोरंजक विवरण देता है। उसने समूचे चीन में बहुत यात्राएं की थी और वह मार्गों से खूब परिचित था। कुछ स्थानों पर ये मार्ग पहियेदार गाड़ियों के लिए बने थे किन्तु सामान्य घुड़सवारों के लिए उनके अनुरूप मिट्टी की सड़कें थीं। हर पच्चीस मील पर सरकारी चौकी रहती थी जो
यात्रा करनेवाले अफसरों और संदेशवाहकों के लिए सुरक्षित रहती थी। इस इमारत में बढ़िया रेशमी बिस्तर और अन्य आवश्यक चीज़ें भी रहती थीं।
इनमें से प्रत्येक चौकी में एक अस्तबल रहता था जिसमें सरकारी संदेशवाहकों के लिए घोड़े तैयार रहते थे। जिन रास्तों पर शाही डाक बहुत चलती थी उन पर चारसौ घोड़े तक सुरक्षित रखे जाते थे। दूरवर्ती मार्गों पर यह संख्या कम होती और चौकियों के बीच दूरी भी ज्यादा रहती। पोलो अपने विवरण में इन तमाम घोड़ों की संख्या तीन लाख और चौकियों की संख्या दस हजार बताता है। और इस भय से कि उसकी बात पर शायद भरोसा न किया जाए - क्योंकि मंगोल साम्राज्य की विस्तृत दूरियां और विशालता उसके भूमध्यसागरीय पाठकों की कल्पना से परे थीं - वह जोर देकर कहता है कि यह सब व्यवस्था इतने आश्चर्यजनक पैमाने पर और इतनी व्ययसाध्य थी कि उसका वर्णन कठिन है।
साभार- शब्दों का सफर
तीन लाख घोडे, दस हजार चौकियां
कुबलाई खान भी रोमनों की तरह साम्राज्य पर नियंत्रण के लिए सड़कों के महत्व को जानता था।राजधानी पीकिंग को इन तमाम स्थानों से जोड़ने के लिए उसने सुदूर इरान और रूस तक सड़को का जाल बिछाया। मंगोलों की मार्ग प्रणाली, उस पर स्थित सरायें, फौजी चौकियां, डाक के घोड़े और थके घोड़ों के बदले नए घोड़े लेना इन सबका इतना अधिक विकास हुआ कि यह सारे शासन का ही एक महत्वपूर्ण विषय बन गया । इन मुख्य उद्देश्यों में से एक यह भी था कि
चीनियों तथा अन्य विजित राष्ट्रों को नियंत्रण में रखा जाए। पोलो इस विषय संबंधी कुछ मनोरंजक विवरण देता है। उसने समूचे चीन में बहुत यात्राएं की थी और वह मार्गों से खूब परिचित था। कुछ स्थानों पर ये मार्ग पहियेदार गाड़ियों के लिए बने थे किन्तु सामान्य घुड़सवारों के लिए उनके अनुरूप मिट्टी की सड़कें थीं। हर पच्चीस मील पर सरकारी चौकी रहती थी जो
यात्रा करनेवाले अफसरों और संदेशवाहकों के लिए सुरक्षित रहती थी। इस इमारत में बढ़िया रेशमी बिस्तर और अन्य आवश्यक चीज़ें भी रहती थीं।
इनमें से प्रत्येक चौकी में एक अस्तबल रहता था जिसमें सरकारी संदेशवाहकों के लिए घोड़े तैयार रहते थे। जिन रास्तों पर शाही डाक बहुत चलती थी उन पर चारसौ घोड़े तक सुरक्षित रखे जाते थे। दूरवर्ती मार्गों पर यह संख्या कम होती और चौकियों के बीच दूरी भी ज्यादा रहती। पोलो अपने विवरण में इन तमाम घोड़ों की संख्या तीन लाख और चौकियों की संख्या दस हजार बताता है। और इस भय से कि उसकी बात पर शायद भरोसा न किया जाए - क्योंकि मंगोल साम्राज्य की विस्तृत दूरियां और विशालता उसके भूमध्यसागरीय पाठकों की कल्पना से परे थीं - वह जोर देकर कहता है कि यह सब व्यवस्था इतने आश्चर्यजनक पैमाने पर और इतनी व्ययसाध्य थी कि उसका वर्णन कठिन है।
साभार- शब्दों का सफर
Friday, December 18, 2009
डाकिया डाक लाया- 2
मेरे ख्याल से पोस्टऑफिस का अनुवाद 'डाकघर' गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर का किया हुआ है, जिनकीएक कविता की पंक्ति है-'जोदि तोमार डाक शुने केऊ ना आशे तोबे ऐक्ला चालोऐक्ला चालो ऐक्ला चालो रे...।' यहां डाक का सपाट अर्थ 'पुकार' है और डाकघर, डाकिया आदि शब्द इसी के व्युत्पन्न हैं। डाकिए या संदेशवाहक केलिए संस्कृत और पुरानी हिंदी का शब्द पायक है, जिसका द्रा धातु से कोई संबंध नहीं.(पहलू वाले चंद्रभूषण जी)
डाकिये की पुकार और डाक की रफ्तार
बेशक, गुरूदेव वाला, बांग्ला वाला संदर्भ सही हो सकता है। डाक के 'पुकार' अर्थ में अगर डाकिये को देखें तो यह बात नज़र भी आती है। संदेश-संवाद लाने के बाद उसे हांक लगाकर सुनाने या संदेश पाने वाले का नाम पुकारने वाले के तौर पर डाक से डाकिया शब्द चल पड़ा होगा। मगर बांग्ला डाक की व्युत्पत्ति क्या हो सकती है ? पोस्टआफिस के अर्थ में डाकघर अनुवाद गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का किया हुआ माना जा सकता है मगर डाक में खाना लगाकर उर्दू का जो डाकखाना बना वह चलन कब का है ? ( ये अलग बात है कि उर्दू में ड वर्ण ही नहीं है। ) गुरूदेव द्वारा पोस्ट आफिस को डाकघर नाम देने से दशकों पहले से डाक शब्द अंग्रेजीराज में दाखिल हो चुका था। जाहिर है कि डाकखाना भी डाकघर से पहले बन चुका होगा । एक और बात है। बांग्ला के डाक ( पुकार ) शब्द में कहीं भी संवाद या संदेश जैसा अर्थ ध्वनित नहीं हो रहा है। खासतौर पर चिट्ठी-पत्री या दस्तावेज़ी संदेश जैसी बात तो कतई नहीं। यही बात द्राक् के बारे में भी कही जा सकती है। मगर संदेश पहुंचाने की प्रणाली के संदर्भ में द्राक का रिश्ता जुड़ता हुआ लग रहा है।
रही बात पायक की सो संस्कृत में इसका रूप पायिकः है जो हिन्दी में पायक हो गया। संस्कृत में संदेश वाहक नहीं बल्कि पैदल सिपाही के तौर पर इसका अर्थ बताया गया है (आपटे कोश) और ज्ञानमंडल हिन्दी कोश में भी इसका अर्थ पैदल सिपाही, सेवक या दूत बताया गया है। संदेशवाहक की प्रकृति पर अगर ध्यान दें तो पायक की व्युत्पत्ति चाहे द्रा से न जुड़ती हो मगर प्रकृति एक ही है। पायक पैदल चलने वाला है और द्रा या द्राक् में शीघ्रता है। दोनों में ही गति तो है। दस्तावेज़ी संदेश के अर्थ में पुकार वाले भाव का डाक से रिश्ता थोड़ा पीछे जुड़ता हुआ लगता है बनिस्बत द्राक् या पायक में निहित गति या शीघ्रता वाले भाव के । आपटे के कोश में एक और भी शब्द है - ढौक् जिसका अर्थ है जाना, पहुंचाना,निकट लाना या प्रस्तुत करना । ये तमाम भाव भी डाक में निहित संदेश वाले अर्थ से जुड़ते हैं न कि पुकार वाले अर्थ से। अर्थसाम्य और ध्वनिसाम्य व्युत्पत्ति तलाशने वालों के प्रिय उपकरण रहे हैं और यहां ये दोनों ही काम दे रहे हैं।
साभार : शब्दों का सफर
डाकिये की पुकार और डाक की रफ्तार
बेशक, गुरूदेव वाला, बांग्ला वाला संदर्भ सही हो सकता है। डाक के 'पुकार' अर्थ में अगर डाकिये को देखें तो यह बात नज़र भी आती है। संदेश-संवाद लाने के बाद उसे हांक लगाकर सुनाने या संदेश पाने वाले का नाम पुकारने वाले के तौर पर डाक से डाकिया शब्द चल पड़ा होगा। मगर बांग्ला डाक की व्युत्पत्ति क्या हो सकती है ? पोस्टआफिस के अर्थ में डाकघर अनुवाद गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर का किया हुआ माना जा सकता है मगर डाक में खाना लगाकर उर्दू का जो डाकखाना बना वह चलन कब का है ? ( ये अलग बात है कि उर्दू में ड वर्ण ही नहीं है। ) गुरूदेव द्वारा पोस्ट आफिस को डाकघर नाम देने से दशकों पहले से डाक शब्द अंग्रेजीराज में दाखिल हो चुका था। जाहिर है कि डाकखाना भी डाकघर से पहले बन चुका होगा । एक और बात है। बांग्ला के डाक ( पुकार ) शब्द में कहीं भी संवाद या संदेश जैसा अर्थ ध्वनित नहीं हो रहा है। खासतौर पर चिट्ठी-पत्री या दस्तावेज़ी संदेश जैसी बात तो कतई नहीं। यही बात द्राक् के बारे में भी कही जा सकती है। मगर संदेश पहुंचाने की प्रणाली के संदर्भ में द्राक का रिश्ता जुड़ता हुआ लग रहा है।
रही बात पायक की सो संस्कृत में इसका रूप पायिकः है जो हिन्दी में पायक हो गया। संस्कृत में संदेश वाहक नहीं बल्कि पैदल सिपाही के तौर पर इसका अर्थ बताया गया है (आपटे कोश) और ज्ञानमंडल हिन्दी कोश में भी इसका अर्थ पैदल सिपाही, सेवक या दूत बताया गया है। संदेशवाहक की प्रकृति पर अगर ध्यान दें तो पायक की व्युत्पत्ति चाहे द्रा से न जुड़ती हो मगर प्रकृति एक ही है। पायक पैदल चलने वाला है और द्रा या द्राक् में शीघ्रता है। दोनों में ही गति तो है। दस्तावेज़ी संदेश के अर्थ में पुकार वाले भाव का डाक से रिश्ता थोड़ा पीछे जुड़ता हुआ लगता है बनिस्बत द्राक् या पायक में निहित गति या शीघ्रता वाले भाव के । आपटे के कोश में एक और भी शब्द है - ढौक् जिसका अर्थ है जाना, पहुंचाना,निकट लाना या प्रस्तुत करना । ये तमाम भाव भी डाक में निहित संदेश वाले अर्थ से जुड़ते हैं न कि पुकार वाले अर्थ से। अर्थसाम्य और ध्वनिसाम्य व्युत्पत्ति तलाशने वालों के प्रिय उपकरण रहे हैं और यहां ये दोनों ही काम दे रहे हैं।
साभार : शब्दों का सफर
Thursday, December 17, 2009
डाकिया डाक लाया -1
...कहता हूं दौड़ दौड़ के कासिद से राह में
डाक आमफहम हिन्दोस्तानी ज़बान का एक ऐसा लफ्ज है जिसके साथ समाज के हर वर्ग की भावनाएं जुड़ी हुई हैं। डाक एक संवाद है अपनों से जो दूर बसे हैं। सुख,दुख के संवाद का जरिया। डाक यानी चिट्ठी-पत्री, पोस्ट। कहां से आया ये लफ्ज ? दरअसल यह शब्द संचार माध्यम की अत्यंत प्राचीन सरकारी व्यवस्था से भी जुड़ा हुआ है।
चिट्ठी-पत्री यानी डाक शब्द के साथ जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वह है इसे पाने की भी जल्दी रहती है और भेजने की भी। एक शायर लिखते हैं - आती है बात बात मुझे याद बार बार / कहता हूं दौड़ दौड़ के कासिद से राह में । और दूसरी तरफ - दे भी जवाबे ख़त कि न दे , क्या ख़बर मुझे / क्यों अपने साथ ले न गया , नामाबर मुझे । मतलब यही कि शीघ्रता का जो भाव डाक के साथ जुड़ा है उसी में है इसके जन्म का मूल भी।
संस्कृत का एक शब्द है द्रा जिसके मायने हैं दौड़ना, शीघ्रता करना , उड़ना आदि। इसी से बना है द्राक् जिसका मतलब होता है जल्दी से , शीघ्रता से , तुरन्त, तत्काल, उसी समय वगैरह वगैरह। इसे ही डाक का उद्गम माना गया है। गौर करें कि प्राचीनकाल की संचारप्रणाली में जो अच्छे धावकों को ही संदेशवाहक का काम सौंपा जाता था। ये रिले धावकों की तरह निरंतर एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश पहुंचाने तक भागते रहते थे। थोड़ी थोड़ी दूरी पर इन्हें बदल दिया जाता था। ये प्रणाली बड़ी कारगर थी और दुनिया के हर हिस्से में यही तरीका था संदेश पहुंचाने का।
अंग्रेजी दौर में फली-फूली
अंग्रेजी शासन व्यवस्था में यह शब्द खूब इस्तेमाल हुआ है। इसका रिश्ता जहाज के ठहरने के स्थान से भी जोड़ा जाता है जिसे डॉक कहते हैं। लंदन से राजशाही के कामकाज की चिट्ठियां भारतीय गवर्नर के नाम जहाजों से ही आती थीं। डॉक शब्द बना है पोस्टजर्मनिक के डोको से जिसका मतलब बंडल भी होता है।
भारत के लंबे चौडे शासनतंत्र को सुचारू रूप से चलाने में अंग्रेजों की चाक चौबंद डाक प्रणाली का बड़ा योगदान रहा। डाकखाना, डाकबंगला, डाकिया, डाकघर जैसे शब्द यही ज़ाहिर करते हैं। पुराने ज़माने के धावकों की जगह कालांतर में घुड़सवार संदेशवाहकों ने ले ली। अंग्रेजों ने बाकायदा इसके लिए घोड़ागाड़ियां चलवाईं जिन्हें डाकगाड़ी कहा जाता था। आज इन्हीं डाकगाड़ियों की जगह लालरंग की मोटरों ने ले ली है जिन्हें डाक विभाग चलाता है।
साभार- शब्दों का सफर
डाक आमफहम हिन्दोस्तानी ज़बान का एक ऐसा लफ्ज है जिसके साथ समाज के हर वर्ग की भावनाएं जुड़ी हुई हैं। डाक एक संवाद है अपनों से जो दूर बसे हैं। सुख,दुख के संवाद का जरिया। डाक यानी चिट्ठी-पत्री, पोस्ट। कहां से आया ये लफ्ज ? दरअसल यह शब्द संचार माध्यम की अत्यंत प्राचीन सरकारी व्यवस्था से भी जुड़ा हुआ है।
चिट्ठी-पत्री यानी डाक शब्द के साथ जो बात सबसे महत्वपूर्ण है वह है इसे पाने की भी जल्दी रहती है और भेजने की भी। एक शायर लिखते हैं - आती है बात बात मुझे याद बार बार / कहता हूं दौड़ दौड़ के कासिद से राह में । और दूसरी तरफ - दे भी जवाबे ख़त कि न दे , क्या ख़बर मुझे / क्यों अपने साथ ले न गया , नामाबर मुझे । मतलब यही कि शीघ्रता का जो भाव डाक के साथ जुड़ा है उसी में है इसके जन्म का मूल भी।
संस्कृत का एक शब्द है द्रा जिसके मायने हैं दौड़ना, शीघ्रता करना , उड़ना आदि। इसी से बना है द्राक् जिसका मतलब होता है जल्दी से , शीघ्रता से , तुरन्त, तत्काल, उसी समय वगैरह वगैरह। इसे ही डाक का उद्गम माना गया है। गौर करें कि प्राचीनकाल की संचारप्रणाली में जो अच्छे धावकों को ही संदेशवाहक का काम सौंपा जाता था। ये रिले धावकों की तरह निरंतर एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश पहुंचाने तक भागते रहते थे। थोड़ी थोड़ी दूरी पर इन्हें बदल दिया जाता था। ये प्रणाली बड़ी कारगर थी और दुनिया के हर हिस्से में यही तरीका था संदेश पहुंचाने का।
अंग्रेजी दौर में फली-फूली
अंग्रेजी शासन व्यवस्था में यह शब्द खूब इस्तेमाल हुआ है। इसका रिश्ता जहाज के ठहरने के स्थान से भी जोड़ा जाता है जिसे डॉक कहते हैं। लंदन से राजशाही के कामकाज की चिट्ठियां भारतीय गवर्नर के नाम जहाजों से ही आती थीं। डॉक शब्द बना है पोस्टजर्मनिक के डोको से जिसका मतलब बंडल भी होता है।
भारत के लंबे चौडे शासनतंत्र को सुचारू रूप से चलाने में अंग्रेजों की चाक चौबंद डाक प्रणाली का बड़ा योगदान रहा। डाकखाना, डाकबंगला, डाकिया, डाकघर जैसे शब्द यही ज़ाहिर करते हैं। पुराने ज़माने के धावकों की जगह कालांतर में घुड़सवार संदेशवाहकों ने ले ली। अंग्रेजों ने बाकायदा इसके लिए घोड़ागाड़ियां चलवाईं जिन्हें डाकगाड़ी कहा जाता था। आज इन्हीं डाकगाड़ियों की जगह लालरंग की मोटरों ने ले ली है जिन्हें डाक विभाग चलाता है।
साभार- शब्दों का सफर
Monday, December 14, 2009
अब डाकिया चिठ्ठी नहीं लाता ???
अब चिठ्ठी नहीं आती ! कॉलेज में था - बाबा का चिठ्ठी आता था , माँ और बहन का भी आता था ! चिठ्ठी मिलते ही - कई बार पढ़ता था - घर से दूर था ! फिर चिठ्ठी को तकिया के नीचे या सिरहाने के नीचे रख देता - फिर कभी मौका मिलता तो दुबारा पढ़ लेता ! बाबू जी को चिठ्ठी लिखने की आदत नहीं थी सो वो केवल पैसा ही भेजते थे ! किसी दिन डाकिये ने अगर किसी दोस्त का चिठ्ठी हमें पकडा देता तो हम दोस्त को खोज उसको चिठ्ठी सौंप देते ! बड़ा ही सकून मिलता !
मुझे चिठ्ठी लिखने की आदत हो गयी थी - लम्बा लम्बा और भावनात्मक ! बाबा , दादी , माँ - बाबू जी , बहन सब को लिखा करता था ! और फिर कई सप्ताह तक चिठ्ठी का इंतज़ार ! धीरे धीरे चिठ्ठी की जगह बाबू जी के द्वारा भेजे हुए "ड्राफ्ट" का इंतज़ार होने लगा ! और फोन भी थोडा सस्ता होने लगा ! अब धीरे धीरे बाबू जी को फ़ोन करने लगा - END MONEY - SEND MONEY !
कभी प्रेम पत्र नहीं लिखा - आज तक अफ़सोस है ! पर शादी ठीक होने के बाद - पत्नी को पत्र लिखा - जिन्दगी की कल्पना थी - अब हकीकत कितना दूर है !
अब ईमेल आता है - अनजान लोगों का ! जिनसे कभी मिला नहीं - कभी जाना नहीं - जबरदस्ती का एक रिश्ता - जिसमे खुशबू नहीं , कोई इंतज़ार नहीं ! फ़ोन पर कई बार दिल की बात नहीं कह पाते हैं लोग फिर क्यों न चिठ्ठी का सहारा लिया जाए !
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !
(साभार-दालान)
मुझे चिठ्ठी लिखने की आदत हो गयी थी - लम्बा लम्बा और भावनात्मक ! बाबा , दादी , माँ - बाबू जी , बहन सब को लिखा करता था ! और फिर कई सप्ताह तक चिठ्ठी का इंतज़ार ! धीरे धीरे चिठ्ठी की जगह बाबू जी के द्वारा भेजे हुए "ड्राफ्ट" का इंतज़ार होने लगा ! और फोन भी थोडा सस्ता होने लगा ! अब धीरे धीरे बाबू जी को फ़ोन करने लगा - END MONEY - SEND MONEY !
कभी प्रेम पत्र नहीं लिखा - आज तक अफ़सोस है ! पर शादी ठीक होने के बाद - पत्नी को पत्र लिखा - जिन्दगी की कल्पना थी - अब हकीकत कितना दूर है !
अब ईमेल आता है - अनजान लोगों का ! जिनसे कभी मिला नहीं - कभी जाना नहीं - जबरदस्ती का एक रिश्ता - जिसमे खुशबू नहीं , कोई इंतज़ार नहीं ! फ़ोन पर कई बार दिल की बात नहीं कह पाते हैं लोग फिर क्यों न चिठ्ठी का सहारा लिया जाए !
रंजन ऋतुराज सिंह - इंदिरापुरम !
(साभार-दालान)
Sunday, November 15, 2009
"राजस्थान पत्रिका" में ब्लॉग की चर्चा
"डाकिया डाक लाया" ब्लॉग की चर्चा सबसे पहले 8 अप्रैल, 2009 को दैनिक हिंदुस्तान अख़बार में ब्लॉग वार्ता के अंतर्गत की गई थी। रवीश कुमार जी ने इसे बेहद रोचक रूप में प्रस्तुत किया था. इसके बाद इसकी चर्चा 29 अप्रैल 2009 के दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' पत्र के परिशिष्ट 'आधी दुनिया' में 'बिन्दास ब्लाग' के तहत की गई. "प्रिंट मीडिया पर ब्लॉग चर्चा" द्वारा पता चला कि अब इस ब्लॉग की २२ अक्तूबर की पोस्ट "2009 ईसा पूर्व में लिखा गया दुनिया का पहला पत्र'' की चर्चा 11 नवम्बर 2009 को राजस्थान पत्रिका, जयपुर संस्करण के नियमित स्तंभ 'ब्लॉग चंक' में की गई है....ऐसे में यह जानकर अच्छा लगता है कि इस ब्लॉग को आप सभी का भरपूर प्यार व सहयोग मिल रहा है. आप सभी शुभेच्छुओं का आभार !!
Thursday, October 22, 2009
2009 ईसा पूर्व में लिखा गया दुनिया का पहला पत्र
हममें से हर किसी ने अपने जीवन में किसी न किसी रूप में पत्र लिखा होगा। पत्रों का अपना एक भरा-पूरा संसार है। दुनिया की तमाम मशहूर शख्सियतों ने पत्र लिखे हैं- फिर चाहे वह नेपोलियन हों, अब्राहम लिंकन, क्रामवेल, बिस्मार्क या बर्नाड शा हों। महात्मा गाँधी तो रोज पत्र लिखा करते थे. अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को आज भी रोज ४०,०० से ज्यादा पत्र प्राप्त होते हैं.आज ये पत्र एक धरोहर बन चुके हैं। ऐसे में यह जानना अचरज भरा लगेगा कि दुनिया का सबसे पुराना पत्र बेबीलोन के खंडहरों से मिला था, जो कि मूलत: एक प्रेम-पत्र था. बेबीलोन की किसी युवती का प्रेमी अपनी भावनाओं को समेटकर उससे जब अपने दिल की बात कहने बेबीलोन तक पहुँचा तो वह युवती तब तक वहां से जा चुकी थी। वह प्रेमी युवक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और उसने वहीं मिट्टी के फर्श पर खोदते हुए लिखा- ''मैं तुमसे मिलने आया था, तुम नहीं मिली।'' यह छोटा सा संदेश विरह की जिस भावना से लिखा गया था, उसमें कितनी तड़प शामिल थी। इसका अंदाजा सिर्फ वह युवती ही लगा सकती थी जिसके लिये इसे लिखा गया। भावनाओं से ओत-प्रोत यह पत्र 2009 ईसा पूर्व का है और आज हम वर्ष 2009 में जी रहे हैं. ...तो आइये पत्रों के इस सफर का स्वागत करते हैं और अपने किसी को एक खूबसूरत पत्र लिखते हैं !!
Monday, October 12, 2009
यादगार के तौर पर चिट्ठियाँ
21वीं सदी में संचार माध्यमों की बढ़ती उपयोगिता ने बहुत सारी चीजों को प्रभावित किया है। जाहिर है कि मोबाइल के आने के बाद से हिंदी साहित्य में जिस विधा का अस्तित्व लगभग समाप्त हो चला है वह पत्र है। हर नये साल की शुरूआत में जब भी साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लेखा-जोखा प्रकाशित होता है तो उसमें कहानी, कविता, उपन्यास विषयों में तो पुस्तकों की भरमार होती है लेकिन पत्र, संस्मरण, साक्षात्कार, आत्मकथा की पुस्तकों की संख्या इस कदर कम होती है कि उसे उंगलियों पर गिना जा सकता है। संचार माध्यमों के विशेषकर मोबाइल के आम आदमी के हाथों में पहुँचने से पहले की बात की जाए तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि अपने सुख और दुःख व्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम हमारे समाज में चिट्ठियां रही हैं। एक समय में परिवार से दूर रह रहा व्यक्ति अपनी पत्नी और पुत्र-पुत्रियों से चिट्ठियों के माध्यम से संवाद कायम किया करता था।
आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा अपनी बेटी इंदिरा गांधी को लिखी गई चिट्ठियों की चर्चा आज भी की जाती है। चिट्ठी आज भी संवाद भावनाओं को व्यक्त करने का सशक्त जरिया मानी जाती है। आज भी मेरे पास माँ की लिखी गई चिट्ठियां हैं जो सिर्फ परिवार तक सीमित न होकर गाँव जंवार और बाग बगीचों को भी खबर देने वाली रही हैं। इस बीच मोबाइल का आगमन क्या हुआ कि लोग बेहद कम कीमत पर दूर बैठे अपने परिजनों से बातचीत करने लगे लेकिन इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे पूरा समाज चिट्ठियां लिखने और भेजने से कतराने लगा। एक समय आज से करीब 20 साल पहले पोस्टमैन की आवाज सुनने के लिए गाँव की स्त्रियां और पुरूष बाट जोहते थे। पोस्टमैन न सिर्फ चिट्ठियां लाता था बल्कि मनीआर्डर और नौकरी की खबर भी। यह सच भी है कि जब हम 30 सेकेंड के भीतर ही अपने प्रियजनों की सुमधुर आवाज सुन सकते हैं तो चिट्ठी लिखकर पोस्ट आफिस में डालने और उसका जवाब आने का इंतजार कौन करे? एक समय में कबूतर भी चिट्ठियां ले जाने का काम किया करते थे और कई फिल्मों में ऐसे दृश्य दिखाए भी गए हैं जिसमें कबूतर पत्र लिखने वाले की प्रेमिका को उसके जज्बातों से लबरेज चिट्ठी पहुँचा दिया करता था। आज से पहले किसी बड़े कथाकार की एक कहानी छपने पर सौ दो सौ पत्र आते थे जबकि आज वे एक पोस्टकार्ड के लिए तरसते हैं। जाहिर है कि यह ई-मेल, मोबाइल, एसएमएस के आगमन के कारण हुआ है। इसके बावजूद हमें मौका मिलने पर परिजनों को चिट्ठियां लिखना चाहिए क्योंकि ऐसी चिट्ठियां यादगार के तौर पर भी रखी जा सकती हैं। इस तरह हम एक मरती हुई विधा को बचा सकेंगे।
(साभार: इण्डिया न्यूज, 3-9 अक्टूबर, 09 में अशोक मिश्र)
आधुनिक भारत के निर्माता पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा अपनी बेटी इंदिरा गांधी को लिखी गई चिट्ठियों की चर्चा आज भी की जाती है। चिट्ठी आज भी संवाद भावनाओं को व्यक्त करने का सशक्त जरिया मानी जाती है। आज भी मेरे पास माँ की लिखी गई चिट्ठियां हैं जो सिर्फ परिवार तक सीमित न होकर गाँव जंवार और बाग बगीचों को भी खबर देने वाली रही हैं। इस बीच मोबाइल का आगमन क्या हुआ कि लोग बेहद कम कीमत पर दूर बैठे अपने परिजनों से बातचीत करने लगे लेकिन इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे पूरा समाज चिट्ठियां लिखने और भेजने से कतराने लगा। एक समय आज से करीब 20 साल पहले पोस्टमैन की आवाज सुनने के लिए गाँव की स्त्रियां और पुरूष बाट जोहते थे। पोस्टमैन न सिर्फ चिट्ठियां लाता था बल्कि मनीआर्डर और नौकरी की खबर भी। यह सच भी है कि जब हम 30 सेकेंड के भीतर ही अपने प्रियजनों की सुमधुर आवाज सुन सकते हैं तो चिट्ठी लिखकर पोस्ट आफिस में डालने और उसका जवाब आने का इंतजार कौन करे? एक समय में कबूतर भी चिट्ठियां ले जाने का काम किया करते थे और कई फिल्मों में ऐसे दृश्य दिखाए भी गए हैं जिसमें कबूतर पत्र लिखने वाले की प्रेमिका को उसके जज्बातों से लबरेज चिट्ठी पहुँचा दिया करता था। आज से पहले किसी बड़े कथाकार की एक कहानी छपने पर सौ दो सौ पत्र आते थे जबकि आज वे एक पोस्टकार्ड के लिए तरसते हैं। जाहिर है कि यह ई-मेल, मोबाइल, एसएमएस के आगमन के कारण हुआ है। इसके बावजूद हमें मौका मिलने पर परिजनों को चिट्ठियां लिखना चाहिए क्योंकि ऐसी चिट्ठियां यादगार के तौर पर भी रखी जा सकती हैं। इस तरह हम एक मरती हुई विधा को बचा सकेंगे।
(साभार: इण्डिया न्यूज, 3-9 अक्टूबर, 09 में अशोक मिश्र)
Sunday, October 11, 2009
Gandhiji writes a postcard प्रतियोगिता का आयोजन
गांधी जी को पत्रों से बहुत प्यार था। वे अक्सर अपने साथ पोस्टकार्ड लेकर चलते थे और जहाँ भी रूकते थे, लोगों को पोस्टकार्ड लिखा करते थे। डाक विभाग राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की इस खासियत के मद्देनजर राष्ट्रीय स्तर पर 'Gandhiji writes a postcard' प्रतियोगिता आयोजित कर रहा है। इसके अन्तर्गत बच्चे प्रतियोगिता पोस्टकार्ड पर एक पत्र लिखेंगे। इस हेतु वह अपने को गांधी जी मानकर पत्र लिखेंगे और यह पत्र किसी ज्वलंत तात्कालिक मुद्दे पर होना चाहिए।
प्रतियोगिता दो श्रेणियों में होगी। प्रथम, कक्षा 3 से कक्षा 5 तक और द्वितीय, कक्षा 6 से कक्षा 8 तक। इस हेतु किसी भी प्रकार का प्रवेश शुल्क नहीं देना होगा। मात्र 10 रूपये का प्रतियोगिता पोस्टकार्ड डाकघर से खरीद कर, उस पर हाथ से निबंध लिखना होगा। निबंध हिन्दी/अंग्रेजी में लिखा जा सकता है। शब्द सीमा न्यूनतम 25 शब्दों की होगी। इसके साथ प्रेषक अपना नाम, उम्र, कक्षा, स्कूल, पता व निबंध लेखन की तिथि, प्रतियोगिता पोस्टकार्ड के पीछे पते वाले भाग के बगल में लिखेगा। निबंध लिखकर पोस्टकार्ड को चीफ पोस्टमास्टर जनरल के चिन्हित पोस्ट बाक्स (उत्तर प्रदेश हेतु-पोस्ट बाक्स सं0-101,लखनऊ जी0पी0ओ0) के पते पर भेजना होगा। इस हेतु अंतिम तिथि 30 अक्टूबर 2009 है। राष्ट्रीय स्तर पर एक जनवरी 2010 को रिजल्ट घोषित कर दिये जायेंगे।
सर्वश्रेष्ठ निबंध को पुरस्कृत भी किया जायेगा। परिमण्डलीय स्तर पर प्रथम श्रेणी (कक्षा 3-5) हेतु क्रमशः आईपाड, डिजिटल कैमरा व सी0डी0 के साथ इन्साइक्लोपीडिया सेट एवं द्वितीय श्रेणी (कक्षा 6-8) हेतु क्रमशः लैपटाप, आईपाड व डिजिटल कैमरा क्रमशः प्रथम, द्वितीय व तृतीय पुरस्कार के रूप में दिये जायेंगे। इसी प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम श्रेणी (कक्षा 3-5) हेतु लैपटाप व सी0डी0, डिजिटल कैमरा एवं सिन्थसाइजर तथा द्वितीय श्रेणी (कक्षा 6-8) हेतु पर्सनल कम्प्यूटर, प्रिन्टर, यू0पी0एस0 व सी0डी0, हैण्डीकैम तथा म्यूजिक सिस्टम क्रमशः प्रथम, द्वितीय व तृतीय पुरस्कार के रूप में दिये जायेंगे।
प्रतियोगिता दो श्रेणियों में होगी। प्रथम, कक्षा 3 से कक्षा 5 तक और द्वितीय, कक्षा 6 से कक्षा 8 तक। इस हेतु किसी भी प्रकार का प्रवेश शुल्क नहीं देना होगा। मात्र 10 रूपये का प्रतियोगिता पोस्टकार्ड डाकघर से खरीद कर, उस पर हाथ से निबंध लिखना होगा। निबंध हिन्दी/अंग्रेजी में लिखा जा सकता है। शब्द सीमा न्यूनतम 25 शब्दों की होगी। इसके साथ प्रेषक अपना नाम, उम्र, कक्षा, स्कूल, पता व निबंध लेखन की तिथि, प्रतियोगिता पोस्टकार्ड के पीछे पते वाले भाग के बगल में लिखेगा। निबंध लिखकर पोस्टकार्ड को चीफ पोस्टमास्टर जनरल के चिन्हित पोस्ट बाक्स (उत्तर प्रदेश हेतु-पोस्ट बाक्स सं0-101,लखनऊ जी0पी0ओ0) के पते पर भेजना होगा। इस हेतु अंतिम तिथि 30 अक्टूबर 2009 है। राष्ट्रीय स्तर पर एक जनवरी 2010 को रिजल्ट घोषित कर दिये जायेंगे।
सर्वश्रेष्ठ निबंध को पुरस्कृत भी किया जायेगा। परिमण्डलीय स्तर पर प्रथम श्रेणी (कक्षा 3-5) हेतु क्रमशः आईपाड, डिजिटल कैमरा व सी0डी0 के साथ इन्साइक्लोपीडिया सेट एवं द्वितीय श्रेणी (कक्षा 6-8) हेतु क्रमशः लैपटाप, आईपाड व डिजिटल कैमरा क्रमशः प्रथम, द्वितीय व तृतीय पुरस्कार के रूप में दिये जायेंगे। इसी प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर प्रथम श्रेणी (कक्षा 3-5) हेतु लैपटाप व सी0डी0, डिजिटल कैमरा एवं सिन्थसाइजर तथा द्वितीय श्रेणी (कक्षा 6-8) हेतु पर्सनल कम्प्यूटर, प्रिन्टर, यू0पी0एस0 व सी0डी0, हैण्डीकैम तथा म्यूजिक सिस्टम क्रमशः प्रथम, द्वितीय व तृतीय पुरस्कार के रूप में दिये जायेंगे।
Saturday, October 10, 2009
डाकिया बाबू बनवाएगा मूल्य सूचकांक
डाकिया बाबू अब राष्ट्रीय स्तर पर सटीक वास्तविक मूल्य सूचकांक तैयार करने में भी सहयोग करेगा। केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन ने इस कार्य के लिए डाक विभाग के देशव्यापी नेटवर्क का इस्तेमाल करने के लिए 25 फरवरी, 2009 को अनुबंध किया, जिसके तारतम्य में डाटा-एकत्रीकरण का कार्य डाकिया द्वारा किया जा रहा है। अनुबंध के अनुसार डाक विभाग देश भर के ग्रामीण क्षेत्रों से चयनित 1183 डाकघरों के माध्यम से उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों का संकलन कर रहा है। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्र में डाकियों के माध्यम से दो तरह के सर्वेक्षण कराये जा रहे हैं। प्रथम, जन वितरण प्रणाली के तहत प्रदान किये जाने वाले चावल, गेहूँ, गेहूँ का आटा, चीनी और केरोसीन के बी0पी0एल0 व अन्त्योदय ग्राहकांे को दिये जाने वाले मूल्यों का सर्वेक्षण। द्वितीयतः, निर्धारित गाँवों में लगने वाले बाजारों व दुकानों पर बिकने वाले सामानों के मूल्यों का सर्वेक्षण। इसमें लगभग 200 वस्तुएं शामिल हैं, मसलन अन्न एवं उसके उत्पाद, दालें, दूध एवं उसके उत्पाद, तेल एवं बसा, मीट एवं मछली, चावल, गेहूँ, मैदा, सूजी, मक्का, सब्जियों, फल, शकर एवं शहद, मसाले, चाय एवं काफी, तैयार भोजन, पान सुपाड़ी तम्बाकू, ईधन एवं प्रकाश, पहनने वाले वस्त्र एवं बिस्तर, जूते, शिक्षा इत्यादि, स्वास्थ्य क्षेत्र, मनोरंजन एवं खेलकूद, परिवहन एवं संचार, निज कार्य हेतु सामग्री, गृहस्थी के सामान इत्यादि। इसके तहत हर माह के आंकड़े लगभग 31 पेजों में भरकर एकत्र किये जाने डाकिया बाबू द्वारा एकत्र की गई इन जानकारियों को केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन की वेबसाइट पर डाकघरों द्वारा ही फीड कर दिया जा रहा है।
डाकिया बाबू द्वारा एकत्रित जरूरी उपभोक्ता वस्तुओं के दामों का विवरण हर माह डाक विभाग द्वारा केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन को उपलब्ध कराया जाता है। कहा जा रहा है कि संगठन अब इसी आधार पर वास्तविक मूल्य सूचकांक तैयार करेगा और यह सूचकांक ही सरकारी कार्य योजनाओं का आधार बनेगा। गौरतलब है कि इधर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (कन्ज्यूमर प्राइज इण्डेक्स) में मूल्य वृद्धि शून्य होने के बावजूद बाजार में सामानों के दाम काफी बढ़े नजर आ रहे हैं। ऐसे में जानकारों का मानना है कि वर्तमान में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मेट्रो व अन्य चुनिंदा शहरों के दामों के आधार पर तैयार किये जाते रहे हैं। अब ग्रामीण क्षेत्रों के खुदरा मूल्य को आधार बनाने के कारण मूल्य सूचकांक को वास्तविक बनाया जा सकेगा।
Friday, October 9, 2009
चिट्ठी में भी आ सकते हैं बम
अचानक नजर एक खबर पर आकर अटक गई। शीर्षक था- चिट्ठी में भी आ सकते हैं बम। लोग तो बाद में डरेंगे, पहले तो मुझे ही डरना था आखिर रोजमर्रा का मेरा काम ही चिट्ठियों को लाना और ले जाना है। खबर कुछ यूँ थी- ‘‘अपनों का कुशल मंगल बताने वाली चिट्ठी भी अमंगल का कारण बन सकती है। इन पर अब आतंकियों की नजर हैं। सितंबर (9/11) बीत चुका है लेकिन नवंबर (11/26) नजदीक है। ऐसे में पूरी दुनिया आतंकी हमलों को लेकर चैकस है। हाल में अमेरिका और यूरोप की बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने भारतीय प्रबंधन को खास निर्देश दिए हैं, जिसमें कहा गया है कि कोई भी कर्मचारी कार्यालय के पते पर व्यक्तिगत पत्र, पार्सल या कूरियर नहीं मंगवाएगा। सुरक्षा एजेंसियों के खुलासों के बाद कंपनियों को खतरा है कि चिट्ठियों के जरिए आतंकी विस्फोटक भेज सकते हैं। नोएडा में इंग्लैंड की एक कंपनी के मानव संसाधन विभाग ने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया है कि व्यक्तिगत पत्र व्यवहार कार्यालय के पते पर नहीं करें। ऐसे पत्र, पार्सल और कूरियर के लिए अपने घर का पता इस्तेमाल करें। वस्तुतः बहुराष्ट्रीय कंपनियों में 90 फीसदी से ज्यादा कर्मचारी भारतीय हैं। विदेशी कर्मचारियों के लिए आने वाले पत्रों की जांच हवाई अड्डों पर हो जाती है। लेकिन स्थानीय पत्रों की जांच नहीं होती।‘‘
....... आपको वह दिन तो याद होंगे जब चिट्ठियों के माध्यम से एन्थ्रेक्स को फैलाये जाने की अफवाहें हर तरफ थीं। कानपुर में तो एक बार एक व्यक्ति ने लगभग सैकड़ा चिट्ठियाँ तमाम अधिकारियों-नेताओं को भेज दी और उनमें कुछ बारूदनुमा पदार्थ था। वास्तव में यह क्या था, यह तो नहीं पता चला पर चिट्ठी जरूर बदनाम हो गई। मेरी आप सबसे यही गुजारिश है कि चिट्ठियां लोगों की संवेदनाओं से जुड़ीं होतीं हैं और कृपा करके उन्हें विस्फोटक मत बनाइये।
....... आपको वह दिन तो याद होंगे जब चिट्ठियों के माध्यम से एन्थ्रेक्स को फैलाये जाने की अफवाहें हर तरफ थीं। कानपुर में तो एक बार एक व्यक्ति ने लगभग सैकड़ा चिट्ठियाँ तमाम अधिकारियों-नेताओं को भेज दी और उनमें कुछ बारूदनुमा पदार्थ था। वास्तव में यह क्या था, यह तो नहीं पता चला पर चिट्ठी जरूर बदनाम हो गई। मेरी आप सबसे यही गुजारिश है कि चिट्ठियां लोगों की संवेदनाओं से जुड़ीं होतीं हैं और कृपा करके उन्हें विस्फोटक मत बनाइये।
Thursday, October 8, 2009
विश्व डाक दिवस की बधाईयाँ !!
डाक सेवाओं की एक पुरानी परम्परा है। दुनिया भर में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा, जिसका कभी डाक सेवाओं से पाला न पड़ा हो। यह अचरज की बात है कि एक देश में पोस्ट किया हुआ पत्र दुनिया के दूसरे कोनों में आराम से पहुँच जाता है। डाक सेवाओं के संगठन रूप में उद्भव के साथ ही इस बात की जरूरत महसूस की गई कि दुनिया भर में एक ऐसा संगठन होना चाहिए, जो यह सुनिश्चित करे कि सभी देशों के मध्य पत्रों का आवागमन सहज रूप में हो सके और आवश्यकतानुसार इसके लिए नियम-कानून बनाये जा सकें।
इसी क्रम में 9 अक्टूबर 1874 को ‘‘जनरल पोस्टल यूनियन‘‘ के गठन हेतु बर्न, स्विटजरलैण्ड में 22 देशों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किया था, इसी कारण 9 अक्टूबर को कालान्तर में ‘‘विश्व डाक दिवस‘‘ के रूप में मनाना आरम्भ किया गया। यह संधि 1 जुलाई 1875 को अस्तित्व में आयी, जिसके तहत विभिन्न देशों के मध्य डाक का आदान-प्रदान करने संबंधी रेगुलेसन्स शामिल थे। कालान्तर में 1 अप्रैल 1879 को जनरल पोस्टल यूनियन का नाम परिवर्तित कर यूनीवर्सल पोस्टल यूनियन कर दिया गया। यूनीवर्सल पोस्टल यूनियन का सदस्य बनने वाला भारत प्रथम एशियाई राष्ट्र था, जो कि 1 जुलाई 1876 को इसका सदस्य बना। जनसंख्या और अन्तर्राष्ट्रीय मेल ट्रैफिक के आधार पर उस समय सदस्य राष्ट्रों की 6 श्रेणियां थीं और भारत आरम्भ से ही प्रथम श्रेणी का सदस्य रहा। 1947 में यूनीवर्सल पोस्टल यूनियन, संयुक्त राष्ट्र संघ की एक विशिष्ट एजेंसी बन गई। यह भी एक रोचक तथ्य है कि विश्व डाक संघ के गठन से पूर्व दुनिया में एकमात्र अन्तर्राष्ट्रीय संगठन रेड क्रास सोसाइटी (1870) था।
यह भी एक अजीब इत्तिफाक है कि 1874 में ‘‘जनरल पोस्टल यूनियन‘‘ के गठन के ठीक अगले साल 1975 में भारतीय डाक पर प्रथम पुस्तक ‘‘द पोस्ट आफिस आफ इण्डिया‘‘ प्रकाशित हुई, जिसे कि बांकीपुर, पटना के एक रिटायर्ड पोस्टमास्टर आनंद गोपाल सेन ने लिखा था।
9 अक्टूबर को विश्व डाक दिवस है और इसी क्रम में पूरे सप्ताह राष्ट्रीय डाक सप्ताह (9-15 अक्टूबर) का आयोजन चलता है। इस दौरान जहाँ प्रतिदिन सेवाओं के व्यापक प्रचार-प्रसार एवं राजस्व अर्जन में वृद्धि पर जोर दिया जाता है वहीं डाक टिकटों की प्रदर्शनी, स्कूली विद्यार्थियों हेतु कार्यक्रम, कस्टमर मीट, स्कूली छात्र-छात्राओं द्वारा डाकघरों का विजिट, बचत बैंक खातों हेतु लकी ड्रा एवं उत्कृष्ट कार्य करने वाले स्टाफ तथा महत्वपूर्ण बचत अभिकर्ताओं व कारपोरेट कस्टमर्स के सम्मान जैसे तमाम कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।
विश्व डाक दिवस की बधाईयाँ !!
इसी क्रम में 9 अक्टूबर 1874 को ‘‘जनरल पोस्टल यूनियन‘‘ के गठन हेतु बर्न, स्विटजरलैण्ड में 22 देशों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किया था, इसी कारण 9 अक्टूबर को कालान्तर में ‘‘विश्व डाक दिवस‘‘ के रूप में मनाना आरम्भ किया गया। यह संधि 1 जुलाई 1875 को अस्तित्व में आयी, जिसके तहत विभिन्न देशों के मध्य डाक का आदान-प्रदान करने संबंधी रेगुलेसन्स शामिल थे। कालान्तर में 1 अप्रैल 1879 को जनरल पोस्टल यूनियन का नाम परिवर्तित कर यूनीवर्सल पोस्टल यूनियन कर दिया गया। यूनीवर्सल पोस्टल यूनियन का सदस्य बनने वाला भारत प्रथम एशियाई राष्ट्र था, जो कि 1 जुलाई 1876 को इसका सदस्य बना। जनसंख्या और अन्तर्राष्ट्रीय मेल ट्रैफिक के आधार पर उस समय सदस्य राष्ट्रों की 6 श्रेणियां थीं और भारत आरम्भ से ही प्रथम श्रेणी का सदस्य रहा। 1947 में यूनीवर्सल पोस्टल यूनियन, संयुक्त राष्ट्र संघ की एक विशिष्ट एजेंसी बन गई। यह भी एक रोचक तथ्य है कि विश्व डाक संघ के गठन से पूर्व दुनिया में एकमात्र अन्तर्राष्ट्रीय संगठन रेड क्रास सोसाइटी (1870) था।
यह भी एक अजीब इत्तिफाक है कि 1874 में ‘‘जनरल पोस्टल यूनियन‘‘ के गठन के ठीक अगले साल 1975 में भारतीय डाक पर प्रथम पुस्तक ‘‘द पोस्ट आफिस आफ इण्डिया‘‘ प्रकाशित हुई, जिसे कि बांकीपुर, पटना के एक रिटायर्ड पोस्टमास्टर आनंद गोपाल सेन ने लिखा था।
9 अक्टूबर को विश्व डाक दिवस है और इसी क्रम में पूरे सप्ताह राष्ट्रीय डाक सप्ताह (9-15 अक्टूबर) का आयोजन चलता है। इस दौरान जहाँ प्रतिदिन सेवाओं के व्यापक प्रचार-प्रसार एवं राजस्व अर्जन में वृद्धि पर जोर दिया जाता है वहीं डाक टिकटों की प्रदर्शनी, स्कूली विद्यार्थियों हेतु कार्यक्रम, कस्टमर मीट, स्कूली छात्र-छात्राओं द्वारा डाकघरों का विजिट, बचत बैंक खातों हेतु लकी ड्रा एवं उत्कृष्ट कार्य करने वाले स्टाफ तथा महत्वपूर्ण बचत अभिकर्ताओं व कारपोरेट कस्टमर्स के सम्मान जैसे तमाम कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।
विश्व डाक दिवस की बधाईयाँ !!
Monday, September 28, 2009
विजयदशमी की बधाई !!
दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी बल्कि यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन होता है।....विजयदशमी की हार्दिक बधाई !!
Saturday, September 26, 2009
अब डाकघरों में भी कोर बैंकिंग और ए0टी0एम0
नेटवर्क की दृष्टि से डाकघर बचत बैंक देश का सबसे बड़ा रीटेल बैंक (लगभग 1.5 लाख शाखाओं, खातों और वार्षिक जमा-राशि का संचालन, 31 मार्च 2007 को कुल जमा राशि-3,515,477.2 मिलियन रूपये) है। यह अनुमान लगाया गया था कि वर्ष 2001 में डाकघर में बचत की कुल राशि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 7 प्रतिशत बनती है। (विश्व बैंक अध्ययन की अंतिम रिपोर्ट, अगस्त, 2002)। 172 मिलियन से अधिक खाताधारकों के ग्राहक आधार और 1,54,000 शाखाओं के नेटवर्क के साथ डाकघर बचत बैंक देश के सभी बैंकों की कुल संख्या के दोगुने के बराबर है। डाकघर से बचत खाता, आवर्ती जमा, सावधि जमा, मासिक आय स्कीम, लोक भविष्य निधि, किसान विकास पत्र, राष्ट्रीय बचत पत्र और वरिष्ठ नागरिक बचत स्कीम की खुदरा बिक्री की जाती है।
डाकघर ही एक मात्र ऐसी संस्था है जो देश के सुदूरतम कोनों को जोड़ती है और इस तरह ऐसे क्षेत्रों में रह रहे लोगों को वित्तीय सुविधा मिलनी सुनिश्चित हो जाती है। अब, यह भांति-भांति की बैंकिंग एवं बीमा सेवाओं जैसे सावधि जमा, म्युचुअल फंडों, पेंशन आदि प्रदान करने का वन-स्टाॅप स्थान है। नरेगा के तहत कुशल/अर्ध-कुशल/अकुशल मजदूरों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में भारत सरकार को सहयोग देते हुए डाकघर मजदूरी का भुगतान करने का माध्यम भी बन चुका है।
अब डाक विभाग वर्तमान 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत कोर बैंकिंग साल्यूशन के तहत एनीव्हेयर, एनीटाइम, एनीब्रान्च बैंकिंग लागू करने जा रहा है। प्रथम फेज के तहत 2009-10 में 500 प्रधान डाकघरों को चुना गया है, जिन्हें 100, 100 और 300 के उपग्रुपों में विभाजित किया गया है। इसके तहत सभी खातों की डाटा फीडिंग, सिगनेचर स्कैनिंग, कम्प्यूटराइज्ड उपडाकघरों का प्रधान डाकघरों में इलेक्ट्रानिकली डाटा ट्रान्सफर, बचत बैंक नियंत्रण संगठन को प्रतिदिन रिटर्न का प्रेषण, सभी बचत सेवाओं का कम्प्यूटराइज्ड कन्सोलीडेटेड जर्नल, अनपोस्टेड आइटम, माइनस बैंलेन्स व आब्जेक्शन का निस्तारण, प्रतिदिन वाउचर चेकिंग, लेजर एग्रीमेण्ट व तदोपरान्त ब्याज का तत्काल जारी होना शामिल है। इसके तहत स्टाफ को प्रशिक्षित भी किया जायेगा।
डाकघरों में कोर बैंकिंग साल्यूशन लागू होने पर वर्तमान संचय पोस्ट साफ्टवेयर रिप्लेस हो जायेगा। इसके माध्यम से तमाम नई सेवायें मसलन नेशनल इलेक्ट्रानिक फण्ड ट्रान्सफर, इलेक्ट्रानिक क्लीयरेन्स सिस्टम, रियल टाइम ग्राॅस सेटेलमेन्ट इत्यादि लागू की जा सकेगी और एटीएम, इण्टरनेट बैंकिंग व मोबाइल बैंकिंग डाकघरों में भी आरम्भ किया जा सकेगा।
तो अब इन्तजार कीजिए कि आप डाकघरों में एटीएम, इण्टरनेट बैंकिंग व मोबाइल बैंकिंग का आनंद ले सकें। पर हाँ, अपने डाकिया बाबू को नहीं भूलिएगा। भूल गये तो ये सब बातें कौन बताएगा।
डाकघर ही एक मात्र ऐसी संस्था है जो देश के सुदूरतम कोनों को जोड़ती है और इस तरह ऐसे क्षेत्रों में रह रहे लोगों को वित्तीय सुविधा मिलनी सुनिश्चित हो जाती है। अब, यह भांति-भांति की बैंकिंग एवं बीमा सेवाओं जैसे सावधि जमा, म्युचुअल फंडों, पेंशन आदि प्रदान करने का वन-स्टाॅप स्थान है। नरेगा के तहत कुशल/अर्ध-कुशल/अकुशल मजदूरों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में भारत सरकार को सहयोग देते हुए डाकघर मजदूरी का भुगतान करने का माध्यम भी बन चुका है।
अब डाक विभाग वर्तमान 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत कोर बैंकिंग साल्यूशन के तहत एनीव्हेयर, एनीटाइम, एनीब्रान्च बैंकिंग लागू करने जा रहा है। प्रथम फेज के तहत 2009-10 में 500 प्रधान डाकघरों को चुना गया है, जिन्हें 100, 100 और 300 के उपग्रुपों में विभाजित किया गया है। इसके तहत सभी खातों की डाटा फीडिंग, सिगनेचर स्कैनिंग, कम्प्यूटराइज्ड उपडाकघरों का प्रधान डाकघरों में इलेक्ट्रानिकली डाटा ट्रान्सफर, बचत बैंक नियंत्रण संगठन को प्रतिदिन रिटर्न का प्रेषण, सभी बचत सेवाओं का कम्प्यूटराइज्ड कन्सोलीडेटेड जर्नल, अनपोस्टेड आइटम, माइनस बैंलेन्स व आब्जेक्शन का निस्तारण, प्रतिदिन वाउचर चेकिंग, लेजर एग्रीमेण्ट व तदोपरान्त ब्याज का तत्काल जारी होना शामिल है। इसके तहत स्टाफ को प्रशिक्षित भी किया जायेगा।
डाकघरों में कोर बैंकिंग साल्यूशन लागू होने पर वर्तमान संचय पोस्ट साफ्टवेयर रिप्लेस हो जायेगा। इसके माध्यम से तमाम नई सेवायें मसलन नेशनल इलेक्ट्रानिक फण्ड ट्रान्सफर, इलेक्ट्रानिक क्लीयरेन्स सिस्टम, रियल टाइम ग्राॅस सेटेलमेन्ट इत्यादि लागू की जा सकेगी और एटीएम, इण्टरनेट बैंकिंग व मोबाइल बैंकिंग डाकघरों में भी आरम्भ किया जा सकेगा।
तो अब इन्तजार कीजिए कि आप डाकघरों में एटीएम, इण्टरनेट बैंकिंग व मोबाइल बैंकिंग का आनंद ले सकें। पर हाँ, अपने डाकिया बाबू को नहीं भूलिएगा। भूल गये तो ये सब बातें कौन बताएगा।
Monday, September 14, 2009
14 सितम्बर : संचयिका दिवस
14 सितंबर को संचयिका दिवस मनाया जाता है। संचयिका यानी स्कूली बच्चों की बचत बैंक योजना, जिसमें वे अपनी छोटी-छोटी बचतें करना सीखते हैं. कहते भी हैं-बूंद-बूंद से भरता सागर. बचत आदत नहीं संस्कार है, जो आजीवन काम आती है. पहले संचयिका योजना राष्ट्रीय बचत संगठन (कालांतर में राष्ट्रीय बचत संस्थान) के अधीन संचालित होती थी,वर्ष 2002 के आखिर में केंद्र सरकार ने इसे राज्य सरकारों को सौंप दिया। ..तो आइये हम भी इस दिन अपने बच्चों को बचत का क..ख..ग...सिखाएं व उनमें बचत की आदत विकसित करें. स्कूलों के माध्यम से खुले संचायिका खाते वाकई एक सुखद भविष्य की ओर इशारा करते हैं, बस इन्हें समझने की देरी है.
Saturday, September 12, 2009
जेब खर्च का जरिया बने प्रेम-पत्र
आपने वह कहानी तो सुनी होगी कि एक प्रेमिका प्रतिदिन अपने प्रेमी को डाकिया बाबू द्वारा प्रेम पत्र लिखवाती थी और अन्ततः एक दिन उसे उस डाकिया बाबू से ही प्रेम हो गया। पिछले दिनों अख़बार में एक वाकया देखा तो इस प्रसंग की याद आ गई. यह वाकया भी कुछ इसी तरह का है पर यहाँ डाकिया बाबू की भूमिका में कोई और है।
यह वाकया है चीन के एक कालेज स्टूडेंट वाग ली का। इन महाशय ने अपना जेब खर्च निकालने का अद्भुत तरीका निकाला है कि ये अपने साथ पढ़ने वाले स्टूडेंट्स के लिए प्रेम पत्र लिखते हैं। आखिर इनकी राइटिंग खूबसूरत जो है और लच्छेदार भाषा व प्रवाह पर मजबूत पकड़ भी। वैलेन्टाइन डे पर तो इनकी चांदी रहती है क्योंकि इनके पास एडवांस बुकिंग रहती है। फिलहाल इस वाकये में दिलचस्प तथ्य यह है कि सबके लिए प्रेम पत्र लिखने वाले वाग ली कोई गर्लफ्रेंड नहीं है। पर इन महाशय के साथ भी डाकिया बाबू जैसा कुछ हो जाय इसकी गारन्टी देना सम्भव नहीं। प्रेम-पत्र लिखते-लिखते ये जनाब कभी लोगों के पत्र बांटने भी लगे तो कोई अजूबा नहीं होगा।
यह वाकया है चीन के एक कालेज स्टूडेंट वाग ली का। इन महाशय ने अपना जेब खर्च निकालने का अद्भुत तरीका निकाला है कि ये अपने साथ पढ़ने वाले स्टूडेंट्स के लिए प्रेम पत्र लिखते हैं। आखिर इनकी राइटिंग खूबसूरत जो है और लच्छेदार भाषा व प्रवाह पर मजबूत पकड़ भी। वैलेन्टाइन डे पर तो इनकी चांदी रहती है क्योंकि इनके पास एडवांस बुकिंग रहती है। फिलहाल इस वाकये में दिलचस्प तथ्य यह है कि सबके लिए प्रेम पत्र लिखने वाले वाग ली कोई गर्लफ्रेंड नहीं है। पर इन महाशय के साथ भी डाकिया बाबू जैसा कुछ हो जाय इसकी गारन्टी देना सम्भव नहीं। प्रेम-पत्र लिखते-लिखते ये जनाब कभी लोगों के पत्र बांटने भी लगे तो कोई अजूबा नहीं होगा।
Saturday, August 29, 2009
पानी में पोस्ट आफिस
पानी में पोस्ट आफिस। है ना अजूबा। पर यह अजूबा नहीं बिल्कुल सच है। पानी के अन्दर यह पोस्ट आफिस, साउथ पेसिफिक आइलैंड में स्थिति एक छोटे से देश वनुवातु में मौजूद है। सबसे रोचक बात यह है कि यह दुनिया का पहला पोस्ट आफिस है, जो पानी के अंदर स्थित है। फाइबर ग्लास से बने इस पोस्ट आफिस में कुल चार कर्मचारी हैं, जिनकी ड्यूटी शिट में होती है। पानी में काम करने के लिए ये कर्मचारी विशेष रूप से प्रशिक्षित किये जाते हैं। तैराकी और स्कूबा डाइविंग में वे माहिर होते हैं। पोस्ट आफिस के कार्यों से परे इसका दुनिया भर के पर्यटकों में अच्छा-खासा क्रेज है। इस पोस्ट आफिस से पर्यटक वाटरप्रूफ काड्र्स की खरीददारी करते हैं और पानी के अंदर ही रहकर संदेश लिखकर अपने परिजनों को इसी पोस्ट आफिस से प्रेषित भी करते हैं। तो आपको भी कभी मौका मिले तो इस पोस्ट आफिस से अपनों को कार्ड और संदेश भेजने का मौका न छोड़ियेगा।
Tuesday, August 25, 2009
अब स्पीड पोस्ट हेतु वाटरप्रूफ व डिजाइनर लिफाफे
डाक विभाग ने अपनी प्रीमियम सेवा स्पीड पोस्ट की विशिष्टता के मद्देनजर डिजाइनर वाटरप्रूफ लिफाफे जारी किये हैं। सफेद और हल्का भूरा कलर में उपलब्ध ये लिफाफे वजन में हल्के, वाटरप्रूफ होने के साथ-साथ पारवाहन के दौरान भी नही फटेंगे। इन लिफाफों का आकार सामान्य लिफाफों से बड़ा है तथा ये 16.2 X 22.9 सेमी0 साइज में उपलब्ध हैं। ये लिफाफे 5 रूपये की कीमत पर उपलब्ध कराये जायेंगे और पोस्टेज चार्ज अतिरिक्त होंगे। गौरतलब है कि इससे पूर्व डाक विभाग ने राखी भेजने हेतु भी वाटरप्रूफ एवं डिजाइनर लिफाफे जारी किये हैं। लिफाफे पर स्पीड पोस्ट का लोगो अंकित है तथा स्पीड पोस्ट सेवा के बारे में जानकारियाँ भी अंकित हैं। इस लिफाफे पर प्रेषक का नाम लिखने की सुविधा पीछे दी हुई है। एक तरफ ये डिजाइनर लिफाफे स्पीड पोस्ट की ब्राण्डिंग करेंगे वहीं लोगों द्वारा भेजी जाने वाली स्पीड पोस्ट बेहतर और सुरक्षित ढंग से अपने गंतव्य पर पहुँच सकेगी।
Saturday, August 15, 2009
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें !!
Wednesday, August 12, 2009
डाकघर द्वारा जारी होते हैं पहचान पत्र
पिछले दिनों प्रतिष्ठित औद्योगिक घराने, सिंहानिया परिवार के एक सदस्य डाकघर आए और उन्होने डाकघर पहचान पत्र बनाने के लिए अनुरोध किया। सुनकर आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता का अहसास हुआ कि यह योजना लोगों के बीच आज भी लोकप्रिय और प्रासंगिक है। यह योजना काफी पुराने समय में, जब पत्राचार पद्धति पर डाकघर का एकाधिकार था एवं देश की अधिकतर जनसंख्या सूचना प्रेषण एवं धन प्रेषण के लिए डाकघर पर आश्रित थी उस समय कम्पनियों एवं जनता के अन्य लोग जो सरकारी, अर्धसरकारी एवं निजी कार्यों के लिए बाहर जाते थे, उनको डाकपाल के द्वारा मंगाई जाने वाली डाक सामग्री प्राप्त करने में असुविधा से बचाने के लिए डाकघर पहचान पत्र जारी करने की योजना शुरू की गई थी। आज पहचान के तमाम अन्य साधन जैसे ड्राइविंग लाइसेन्स, पैन कार्ड, इलेक्शन कमीशन का कार्ड एवं अन्य प्रकार के पहचान पत्रों के समकक्ष ही डाकघर के पहचान पत्र ने भी अपनी पहचान, लोकप्रियता एवं प्रासंगिकता बना रखी है।
यह पहचान पत्र किसी भी शहर में वहाँ के प्रधान डाकघर से जारी किया जाता है। प्रधान डाकघर से निःशुल्क फार्म प्राप्त कर, इसे भरकर अपना एक पासपोर्ट साइज का फोटो चिपकाकर एवं एक फोटो साथ में लगाकर 10 रूपये का डाक टिकट लगाकर डाकघर में जमा किया जाता है। डाकघर के सक्षम अधिकारी के द्वारा पता एवं व्यक्ति की जांच की जाती है एवं इसके उपरान्त पहचान पत्र जारी कर दिया जाता है। इस पहचान पत्र में जन्मतिथि, ऊंचाई एवं पहचान चिन्ह भी अंकित होता है। इस कार्ड की वैधता तीन वर्ष की है। यह पहचान पत्र नगण्य शुल्क एवं सरल प्रक्रिया में जारी हो जाता है जो जन-साधारण के लिए बहुद्देशीय एवं सुगम्य है।
यह पहचान पत्र किसी भी शहर में वहाँ के प्रधान डाकघर से जारी किया जाता है। प्रधान डाकघर से निःशुल्क फार्म प्राप्त कर, इसे भरकर अपना एक पासपोर्ट साइज का फोटो चिपकाकर एवं एक फोटो साथ में लगाकर 10 रूपये का डाक टिकट लगाकर डाकघर में जमा किया जाता है। डाकघर के सक्षम अधिकारी के द्वारा पता एवं व्यक्ति की जांच की जाती है एवं इसके उपरान्त पहचान पत्र जारी कर दिया जाता है। इस पहचान पत्र में जन्मतिथि, ऊंचाई एवं पहचान चिन्ह भी अंकित होता है। इस कार्ड की वैधता तीन वर्ष की है। यह पहचान पत्र नगण्य शुल्क एवं सरल प्रक्रिया में जारी हो जाता है जो जन-साधारण के लिए बहुद्देशीय एवं सुगम्य है।
Monday, August 10, 2009
जन्मदिन मुबारक हो !!
*** डाकिया बाबू की तरफ़ से "डाकिया डाक लाया" ब्लॉग के सूत्रधार कृष्ण कुमार यादव जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें ***
भारतीय डाक सेवा के अधिकारी बन
अपने कृतित्व-मान को और बढ़ाया
प्रशासन और साहित्य का हुआ समन्वय
इस बेजोड़ संतुलन ने सबको चौंकाया
बाइस जुलाई दो हजार तीन को
सूरत में पहले-पहल नियुक्ति पाये
वरिष्ठ डाक अधीक्षक पद प्राप्त कर
डाक विभाग का गौरव खूब बढ़ाये
स्ूारत, लखनऊ और कानपुर में
पद की गौरव-गरिमा खूब बढ़ाई
लिख डेढ़ सौ वर्षों का डाक इतिहास
दूर-दूर तक नाम औष् ख्याति पाई
आये जब से डाक विभाग में आप
लग गया फिलेटली का नया शौक
करते संग्रह डाक-टिकटों का खूब
रुचियांँ हैं इनकी और भी अनेक
जिज्ञासु प्रवृत्ति के रहे सदैव से
तार्किक विश्लेषण खूब करते हैं
चिंतन-मनन की अनुपम दुनिया में
जी भर यह आनन्द से रमते हैं
सूरत और कानपुर मण्डलों में आपने
सुन्दर डाक टिकट प्रदर्शनी करवायी
खूबसूरत स्मारिका किया सम्पादित
ज्ञानवर्धन कर युवा पीढ़ी भी हर्षायी
डाक विभाग में खूब बने लोकप्रिय
अराजकता कभी नहीं सह पाते हैं
किसी काम में यदि कुछ हुई गड़बड़ी
तो फिर अपनी त्योरियां चढ़ाते हैं
सुहृदय, मिलनसार और साहित्य प्रेमी
सबसे अन्तर्मन से वह जुड़ जाते हैं
एक बार जब बने निकटता आपसे
सब जन उनके सादर गुण गाते हैं !!
(साभार: बढ़ते चरण शिखर की ओर)
Saturday, August 8, 2009
डाकिया
छोड़ दिया है उसने
लोगों के जज्बातों को सुनना
लम्बी-लम्बी सीढियाँ चढ़ने के बाद
पत्र लेकर
झट से बंद कर
दिए गए
दरवाजों की आवाज
चोट करती है उसके दिल पर !
चाहता तो है वह भी
कोई खुशी के दो पल उससे बाँटे
किसी का सुख-दुःख वो बाँटे
पर उन्हें अपने से ही फुर्सत कहाँ?
समझ रखा है उन्होंने
उसे
डाक ढोने वाला हरकारा
नहीं चाहते वे उसे बताना
चिट्ठियों में छुपे गम
और खुशियों के राज !
फिर वो परवाह क्यों करे?
वह भी उन्हें कागज समझ
बिखेर आता है सीढ़ियों पर
इन कागजी जज्बातों में से
अब लोग उतरकर चुनते हैं
अपनी-अपनी खुशियों
और गम के हिस्से
और कैद हो जाते हैं अपने में !!
Saturday, August 1, 2009
डाकिया बाबू राखी लाया
राखी का त्यौहार भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्यौहार है जो प्रत्येक वर्ष श्रावण मास में मनाया जाता है। आज इस आधुनिकता एवम विज्ञान के दौर में संसार मे सब कुछ हाईटेक हो गया है। वहीं हमारे त्यौहार भी हाईटेक हो गए है। इन्टरनेट व एस0एम0एस0 के माध्यम से आप किसी को कहीं भी राखी की बधाई दे सकते है। किन्तु जो प्यार, स्नेह, आत्मीयता एवं अपनेपन का भाव बहन द्वारा भाई की कलाई पर राखी बाँधने पर है वो इस हाईटेक राखी में नही है। इस सम्बन्ध में हिन्दी फिल्म का एक मशहूर गाना याद आता है-‘‘बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बाँधा है, कच्चे धागे से सारा संसार बाँधा है।‘‘ इन पंक्तियों में छुपा भाव इस पर्व की सार्थकता में चार चाँद लगा देता है। डाकिया बाबू इन भावनाओं को हर साल आपके दरवाजे तक पहुँचाता है, सो इस साल भी तैयार है।
बहनों द्वारा राखियों को सुरक्षित एवं सुगमता से भेजने के लिए डाक विभाग ने पाँच तरह के लिफाफे जारी किये गये हैं। ये लिफाफे पूर्णतया वाटर प्रूफ, मजबूत, पारगमन के दौरान न फटने, रंगबिरंगे एवं राखी की विभिन्न डिजाइनों से भरपूर है। इसके चलते जहाँ राखी प्राप्त करने वाले को प्रसन्नता होगी, वहीं इनकी छंटाई में भी आसानी होगी। यही नहीं राखी डाक को सामान्य डाक से अलग रखा जा रहा है। लोगों की सुविधा के लिए डाकघरों में अलग से डलिया लगाई गयी हैं, जिन पर स्थान का नाम लिखा है। पोस्ट की गई राखियों को उसी दिन विशेष बैग द्वारा सीधे गंतव्य स्थानों को प्रेषित कर दिया जा रहा है, ताकि उनके वितरण में किसी भी प्रकार की देरी न हो। ऐसे सभी भाई जो अपने घर से दूर है तथा देश की सीमा के सजग प्रहरी हमारे जवान जो बहुत ही दुर्गम परिस्थियो मे भी देश की सुरक्षा मे लगे है उन सभी की कलाई पर बँधने वाली राखी को सुरक्षित भेजे जाने के लिए भी डाक विभाग ने विशेष प्रबन्ध किये हैं। तो आप भी रक्षाबन्धन का इन्तजार कीजिए और इन्तजार कीजिए डाकिया बाबू जो आपकी राखी को आप तक पहुँचाना सुनिश्चित करेंगे और भाई-बहन के इस प्यार भरे दिवस के गवाह बनेंगे।
बहनों द्वारा राखियों को सुरक्षित एवं सुगमता से भेजने के लिए डाक विभाग ने पाँच तरह के लिफाफे जारी किये गये हैं। ये लिफाफे पूर्णतया वाटर प्रूफ, मजबूत, पारगमन के दौरान न फटने, रंगबिरंगे एवं राखी की विभिन्न डिजाइनों से भरपूर है। इसके चलते जहाँ राखी प्राप्त करने वाले को प्रसन्नता होगी, वहीं इनकी छंटाई में भी आसानी होगी। यही नहीं राखी डाक को सामान्य डाक से अलग रखा जा रहा है। लोगों की सुविधा के लिए डाकघरों में अलग से डलिया लगाई गयी हैं, जिन पर स्थान का नाम लिखा है। पोस्ट की गई राखियों को उसी दिन विशेष बैग द्वारा सीधे गंतव्य स्थानों को प्रेषित कर दिया जा रहा है, ताकि उनके वितरण में किसी भी प्रकार की देरी न हो। ऐसे सभी भाई जो अपने घर से दूर है तथा देश की सीमा के सजग प्रहरी हमारे जवान जो बहुत ही दुर्गम परिस्थियो मे भी देश की सुरक्षा मे लगे है उन सभी की कलाई पर बँधने वाली राखी को सुरक्षित भेजे जाने के लिए भी डाक विभाग ने विशेष प्रबन्ध किये हैं। तो आप भी रक्षाबन्धन का इन्तजार कीजिए और इन्तजार कीजिए डाकिया बाबू जो आपकी राखी को आप तक पहुँचाना सुनिश्चित करेंगे और भाई-बहन के इस प्यार भरे दिवस के गवाह बनेंगे।
Friday, July 31, 2009
डाककर्मी के पुत्र थे उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद
1920 का दौर... गाँधी जी के रूप में इस देश ने एक ऐसा नेतृत्व पा लिया था, जो सत्य के आग्रह पर जोर देकर स्वतन्त्रता हासिल करना चाहता था। ऐसे ही समय में गोरखपुर में एक अंग्रेज स्कूल इंस्पेक्टर जब जीप से गुजर रहा था तो अकस्मात एक घर के सामने आराम कुर्सी पर लेटे, अखबार पढ़ रहे एक अध्यापक को देखकर जीप रूकवा ली और बडे़ रौब से अपने अर्दली से उस अध्यापक को बुलाने को कहा । पास आने पर उसी रौब से उसने पूछा-‘‘तुम बडे़ मगरूर हो। तुम्हारा अफसर तुम्हारे दरवाजे के सामने से निकल जाता है और तुम उसे सलाम भी नहीं करते।’’ उस अध्यापक ने जवाब दिया-‘‘मैं जब स्कूल में रहता हूँ तब मैं नौकर हूँ, बाद में अपने घर का बादशाह हूँ।’’
अपने घर का बादशाह यह शख्सियत कोई और नहीं, वरन् उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद थे, जो उस समय गोरखपुर में गवर्नमेन्ट नार्मल स्कूल में सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत थे। 31 जुलाई 1880 को बनारस के पास लमही में जन्मे प्रेमचन्द का असली नाम धनपत राय था। आपकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम अजायब राय था।
मुंशी प्रेमचंद जी के पिता अजायब राय डाक-कर्मचारी थे, अत: प्रेमचंद जी अपने ही परिवार के हुए। डाक-परिवार अपने ऐसे सपूतों पर गर्व करता है व उनका पुनीत स्मरण करता है। मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट भी जारी किया गया.
(मुंशी प्रेमचंद जी पर कृष्ण कुमार यादव का विस्तृत आलेख साहित्याशिल्पी पर पढ़ सकते हैं)
Tuesday, July 21, 2009
चिट्ठी
बहुत दिनों बाद
घर से चिट्ठी आई है,
खुशी के साथ
आंख भी भर आई है।
पूछा है-
कब आओगे गांव,
पैसों की जरूरत है
पत्नी के
भारी हो गए हैं पांव।
मां को घुटनों
और पिता को आंखों
की बीमारी है,
सूखे से फसल
दगा दे गई
दाल रोटी की भी
दुश्वारी है।
दवा इलाज हो तो
कम हो जाता मर्ज
पर कैसे?
रूपयों के लाले हैं
महाजन भी नहीं
दे रहा है कर्ज।
फिर लिखा है-
आ न सको तो
कोई बात नहीं
अपना सब कुछ
सह लेंगे
पर बहू की बात
कुछ और है,
पेट में पहला बच्चा है
आखिर उसका भी तो
अपना खर्चा है।
तुम भी कपड़े लत्ते की
कमी न होने देना
परेशानी हम समझते हैं,
पर जैसे-तैसे-कैसे भी
कुछ रूपयों का मनीआर्डर
जल्दी भिजवा देना।
मोहन राजपूत,दैनिक जागरण, रूद्रपुर,
ऊधमसिंह नगर (उत्तराखंड)
(दैनिक जागरण में 20 जुलाई 2009 को प्रकाशित मोहन राजपूत की यह कविता बड़ी प्रभावी एवं रोचक लगी। इसे साभार यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।)
Saturday, July 18, 2009
डाकघर सद्भाव तथा शुभकामनाओं का प्रतीक- टैगोर
(डाकघर पर 13 अक्टूबर 2008 को 5 रूपये का स्मारक डाक टिकट जारी किया गया। प्रतिभूति मुद्रणालय हैदराबाद में वेट-आफसेट प्रक्रिया द्वारा आठ लाख की संख्या में मुद्रित इस डाक टिकट के साथ जारी विवरणिका में अंकित शब्दों को यहां साभार हूबहू स्थान दिया जा रहा है)
आज हम टेलीफोन, मोबाइल फोन, ई-मेल जैसे इलेक्ट्रानिक उपकरणों के इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि हमने इन्हें सदा के लिए अपना मान लिया है। इन आविष्कारिक चमत्कारों के लिए हजारो समर्पित कारीगरों ने उत्साहपूर्वक कार्य किया है जिसके परिणामस्वरूप ये उपकरण अवसंरचनाएं और संस्थान आज मौजूद हैं। आज ये संस्थान हमारे हैं जिन्हें हमें सहेज कर रखना है और आगे ले जाना है। डाकघर भी एक ऐसा संस्थान है जोकि अन्य सरकारी विभागों की तुलना में, हमारी संवेदनाओं से जुड़ा हुआ है। यह संदेशों का आदान-प्रदान करता है, लोगों को जोड़ने में मदद करता है तथा पत्र के माध्यम से लोगों के मध्य संप्रेषण करता है।
जब तक हम इसके बारे में सोचते हैं तो पत्र के नाम से ही रोमांच उत्पन्न हो जाता है। कितनी बेसब्री से पत्र की प्रतीक्षा की जाती है। हममे से कितनों ने रविन्द्र नाथ टैगोर के नाटक ‘‘डाकघर‘‘ के छोटे से लड़के की तरह महसूस किया होगा जो गांव में नये खुले डाकघर के माध्यम से राजा से मिलने वाले पत्र की उत्सुकता से प्रतीक्षा करता है।
डाकघर को दुनिया में संचार का माध्यम माना गया है। डाकिया प्राकृतिक आपदाओं, जंगली जानवरों, भूभागी कठिनाइयों तथा डाकुओं आदि की बाधाओं को पार करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करता है। ‘‘डाकघर‘‘ नाटक चैकीदार द्वारा छोटे लड़के को इस तथ्य को कितनी अच्छी तरह बताया गया हैः-
‘‘हा...हा....डाकिया, यकीनन बरसात हो या लू, अमीर हो या गरीब, सबको घर-घर जाकर चिट्ठी बांटना उसका काम है यह बहुत बड़ी बात है।‘‘
आज डाकघर न केवल पत्र वितरित करता है बल्कि अपने व्यापक नेटवर्क के माध्यम से विभिन्न प्रकार की सेवाएं भी प्रदान करता है। वित्तीय लेनदेनों का संवहन करने की क्षमता रखता है तथा स्थानीय इलाके की जानकारी होने के कारण यह जनता को विभिन्न सेवायें उपलब्ध करवाने के लिए दक्ष एवं लागत प्रभावी भी सुलभ कराता है। भारतीय डाक आज पारम्परिकता और आधुनिकता दोनों की झलक प्रस्तुत करता है। डाकघर निरंतरता एवं परिवर्तन की पहचान बन गया है।
गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने अपने नाटक ‘‘डाकघर‘‘ के माध्यम से डाकघर को सद्भाव, शुभकामनाओं का प्रतीक तथा राजा का प्रजा के प्रति वात्सल्य दिखाया है।
आज हम टेलीफोन, मोबाइल फोन, ई-मेल जैसे इलेक्ट्रानिक उपकरणों के इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि हमने इन्हें सदा के लिए अपना मान लिया है। इन आविष्कारिक चमत्कारों के लिए हजारो समर्पित कारीगरों ने उत्साहपूर्वक कार्य किया है जिसके परिणामस्वरूप ये उपकरण अवसंरचनाएं और संस्थान आज मौजूद हैं। आज ये संस्थान हमारे हैं जिन्हें हमें सहेज कर रखना है और आगे ले जाना है। डाकघर भी एक ऐसा संस्थान है जोकि अन्य सरकारी विभागों की तुलना में, हमारी संवेदनाओं से जुड़ा हुआ है। यह संदेशों का आदान-प्रदान करता है, लोगों को जोड़ने में मदद करता है तथा पत्र के माध्यम से लोगों के मध्य संप्रेषण करता है।
जब तक हम इसके बारे में सोचते हैं तो पत्र के नाम से ही रोमांच उत्पन्न हो जाता है। कितनी बेसब्री से पत्र की प्रतीक्षा की जाती है। हममे से कितनों ने रविन्द्र नाथ टैगोर के नाटक ‘‘डाकघर‘‘ के छोटे से लड़के की तरह महसूस किया होगा जो गांव में नये खुले डाकघर के माध्यम से राजा से मिलने वाले पत्र की उत्सुकता से प्रतीक्षा करता है।
डाकघर को दुनिया में संचार का माध्यम माना गया है। डाकिया प्राकृतिक आपदाओं, जंगली जानवरों, भूभागी कठिनाइयों तथा डाकुओं आदि की बाधाओं को पार करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करता है। ‘‘डाकघर‘‘ नाटक चैकीदार द्वारा छोटे लड़के को इस तथ्य को कितनी अच्छी तरह बताया गया हैः-
‘‘हा...हा....डाकिया, यकीनन बरसात हो या लू, अमीर हो या गरीब, सबको घर-घर जाकर चिट्ठी बांटना उसका काम है यह बहुत बड़ी बात है।‘‘
आज डाकघर न केवल पत्र वितरित करता है बल्कि अपने व्यापक नेटवर्क के माध्यम से विभिन्न प्रकार की सेवाएं भी प्रदान करता है। वित्तीय लेनदेनों का संवहन करने की क्षमता रखता है तथा स्थानीय इलाके की जानकारी होने के कारण यह जनता को विभिन्न सेवायें उपलब्ध करवाने के लिए दक्ष एवं लागत प्रभावी भी सुलभ कराता है। भारतीय डाक आज पारम्परिकता और आधुनिकता दोनों की झलक प्रस्तुत करता है। डाकघर निरंतरता एवं परिवर्तन की पहचान बन गया है।
गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने अपने नाटक ‘‘डाकघर‘‘ के माध्यम से डाकघर को सद्भाव, शुभकामनाओं का प्रतीक तथा राजा का प्रजा के प्रति वात्सल्य दिखाया है।
Thursday, July 16, 2009
डार्विन के अप्रकाशित पत्रों का होगा प्रकाशन
आपने कभी सोचा है कि पत्रों द्वारा किसी के व्यवहार को जांचा जा सकता है। जी हां, यह फार्मूला महान वैज्ञानिक डार्विन पर अपनाया जा रहा है। डार्विन का विचार था कि महिलाएं घरेलू काम और बच्चों की देखभाल के लिए उपयुक्त होती हैं पर जिन महिलाओं ने उन्हें खत लिखा, उनमें वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने में डार्विन ने काफी सार्थक भूमिका निभाई थी। महिलाओं और यौन व्यवहार पर चाल्र्स डार्विन के ऐसे ही विचारों के अध्ययन के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने एक परियोजना ‘डार्विन और जेंडर‘ की शुरूआत की है। डार्विन के जीवन के अनछुए पहलुओं के अलावा स्त्री-पुरूष संबंधों की वैज्ञानिक और सामाजिक नजरिए से पड़ताल की जाएगी। ‘डार्विन और जेंडर‘ परियोजना में पहली बार इस महान प्रकृति विज्ञानी के अनछुए और अब तक प्रकाशित नहीं किए गए पत्रों और लेखों को लोगों के सामने लाया जाएगा। तीन साल की इस परियोजना को कैंब्रिज विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी के ‘‘डार्विन पत्राचार प्रोजेक्ट‘‘ के अंतर्गत चलाया जाएगा। इस परियोजना के बाद अपनी बड़ी बेटी हेनरीएटा से डार्विन के संबंध सामने आएंगे। डार्विन ने जब ‘ओरिजिन आॅफ द स्पीसीज‘ लिखी, उस वक्त हेनरीएटा बहुत छोटी थी पर बाद में उसका अपने पिता की लेखनी पर बहुत प्रभाव था। डार्विन का अपनी जिंदगी में कई महिलाओं से खतों के जरिए रिश्ता था। इनकी संख्या 148 तक बताई जाती है।
Wednesday, July 15, 2009
चिट्ठी का फ्यूचर
भाई लोगों का ऐसा कहना, मेरे अक्ल की स्क्रीन पर कतई डिस्प्ले नहीं होता कि मुए मोबाइल के आने से चिट्ठियां लिखने का चलन चैपट हो गया। डाकिए खाली हाथ चलने लगे और तो और एसएमएस ने संक्षिप्त संदेशों की ऐसी हैबिट डाल रखी है कि अब कोई दिल खोल के अपनी बातें नहीं लिखता। याद कीजिए पहले के जमाने में भी जब लेटर लिखे जाते थे, तब भी तो यह वाला जुमला आखिर में टांक ही दिया जाता था- थोड़े लिखे को ज्यादा समझना। यह सूत्र वाक्य ही एसएमएस का बीजमंत्र है। कुछ भी नया नहीं हुआ बस, लेटर लिखने की स्टाइल चेंज हो गई है।
हम सबको एसएमएस नामक डिवाइस का थैंकफुल होना चाहिए, इस एसएमएस विधि के आ जाने से स्टेशनरी और टाइम दोनों की बचत हो रही है। जो जितना ज्यादा पढ़ा-लिखा है, अंगूठे से उतना ही अधिक लिखने में पारंगत है। वह संपूर्ण मोबाइल टेक्नोलाजी अपने ठेंगे पर रखके चलता है।
हाल-फिलहाल, मैं इस बात से भी इत्तेफाक नहीं रखता कि संचार क्रांति के चलते पत्र-लेखन जैसा आदिकालीन कर्म विलुप्त होने की कगार पर है। गाँवों में आज भी चिट्ठी-पत्री का चलन आम है। जिसके यहाँ कंप्यूटर नहीं है, वह साइबर और इंटरनेट कैफे में सर्फिंग-चैटिंग करने जाता है। एक छोटे से दड़बे, जिसे केबिन कहा जाता है में बैठकर अगले की लाइफ के असंख्य घंटे किस रास्ते से निकल गए, यह स्वयं उस ध्यानस्थ जीवात्मा को भी पता नहीं चल पाता। डेस्कटाप, पामटाप और लैपटाप के इस काल में युवक-युवतियों की गोदें तो जैसे सदा-सवैदा भरी ही मिलती हैं। पता नहीं किससे-किससे और किसको-किसको मेल कर रहे हैं। भाई मेरे, पत्र प्रेषण ही तो है। जितना चाहो और जो चाहो, लिखो फिर पासवर्ड के लिफाफे में बंद करके रवाना कर दो। पाने वाला ही बांचेगा। लेटर राइटिंग के भविष्य को लेकर एक और तरह से भी निश्चिंत हुआ जा सकता है। इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं में इधर एक नई आदत तरक्की पर है। वे जो पहले चिट्ठियों के जवाब देने तक से कतराते थे, वे इन दिनों दनादन चिट्ठे लिख रहे हैं। बड़ी ही संक्रामक बीमारी है यह ब्लागेंटाइटिस भी। इस रोग की एक खासियत यह भी है कि यह हते पंद्रह दिनों में ही क्रानिक हो लेता है। तब इसकी चपेट में आने वाले पोथा लिखने लग जाते हैं। मेरी बात का सहज ऐतबार न हो तो आप ऐसे तमाम अनामदासी पोथाकारों की साइट्स पर जाइए।
अब तो हालत यह है कि अखबारों तक ने अपने पाठकों के पन्नों वाली स्पेस को इन ब्लागर्स के नाम आवंटित कर दिया है। दिनोदिन ब्लागियों की फिगर में इजाफा हो रहा है। बिना डाक टिकट, लेटरबाक्स के ही चिट्ठे लिखे जा रहे हैं। जवाब आ रहे हैं। जिनके पास एक अदद कंप्यूटर और नेट की सुविधा उपलब्ध है, वे इस चिट्ठाकारिता में अपना योगदान करने को स्वतंत्र हैं। कर भी रहे हैं। अब अंकल एसएमएस के बिग ब्रदर बाबू ब्लागानंद प्रकट हो चुके हैं। उनकी कृपा से बबुआ लव लेटरलाल, चाचा चिट्ठाचंद और पापा पोथाप्रसाद समेत फैमिली के टोटल मेंबर्स की लाइफ सुरक्षित है। सो चिट्ठी बिटिया की भी।
सूर्य कुमार पांडेय,
साभार- आई नेक्स्ट, 13 जुलाई, 2009
हम सबको एसएमएस नामक डिवाइस का थैंकफुल होना चाहिए, इस एसएमएस विधि के आ जाने से स्टेशनरी और टाइम दोनों की बचत हो रही है। जो जितना ज्यादा पढ़ा-लिखा है, अंगूठे से उतना ही अधिक लिखने में पारंगत है। वह संपूर्ण मोबाइल टेक्नोलाजी अपने ठेंगे पर रखके चलता है।
हाल-फिलहाल, मैं इस बात से भी इत्तेफाक नहीं रखता कि संचार क्रांति के चलते पत्र-लेखन जैसा आदिकालीन कर्म विलुप्त होने की कगार पर है। गाँवों में आज भी चिट्ठी-पत्री का चलन आम है। जिसके यहाँ कंप्यूटर नहीं है, वह साइबर और इंटरनेट कैफे में सर्फिंग-चैटिंग करने जाता है। एक छोटे से दड़बे, जिसे केबिन कहा जाता है में बैठकर अगले की लाइफ के असंख्य घंटे किस रास्ते से निकल गए, यह स्वयं उस ध्यानस्थ जीवात्मा को भी पता नहीं चल पाता। डेस्कटाप, पामटाप और लैपटाप के इस काल में युवक-युवतियों की गोदें तो जैसे सदा-सवैदा भरी ही मिलती हैं। पता नहीं किससे-किससे और किसको-किसको मेल कर रहे हैं। भाई मेरे, पत्र प्रेषण ही तो है। जितना चाहो और जो चाहो, लिखो फिर पासवर्ड के लिफाफे में बंद करके रवाना कर दो। पाने वाला ही बांचेगा। लेटर राइटिंग के भविष्य को लेकर एक और तरह से भी निश्चिंत हुआ जा सकता है। इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं में इधर एक नई आदत तरक्की पर है। वे जो पहले चिट्ठियों के जवाब देने तक से कतराते थे, वे इन दिनों दनादन चिट्ठे लिख रहे हैं। बड़ी ही संक्रामक बीमारी है यह ब्लागेंटाइटिस भी। इस रोग की एक खासियत यह भी है कि यह हते पंद्रह दिनों में ही क्रानिक हो लेता है। तब इसकी चपेट में आने वाले पोथा लिखने लग जाते हैं। मेरी बात का सहज ऐतबार न हो तो आप ऐसे तमाम अनामदासी पोथाकारों की साइट्स पर जाइए।
अब तो हालत यह है कि अखबारों तक ने अपने पाठकों के पन्नों वाली स्पेस को इन ब्लागर्स के नाम आवंटित कर दिया है। दिनोदिन ब्लागियों की फिगर में इजाफा हो रहा है। बिना डाक टिकट, लेटरबाक्स के ही चिट्ठे लिखे जा रहे हैं। जवाब आ रहे हैं। जिनके पास एक अदद कंप्यूटर और नेट की सुविधा उपलब्ध है, वे इस चिट्ठाकारिता में अपना योगदान करने को स्वतंत्र हैं। कर भी रहे हैं। अब अंकल एसएमएस के बिग ब्रदर बाबू ब्लागानंद प्रकट हो चुके हैं। उनकी कृपा से बबुआ लव लेटरलाल, चाचा चिट्ठाचंद और पापा पोथाप्रसाद समेत फैमिली के टोटल मेंबर्स की लाइफ सुरक्षित है। सो चिट्ठी बिटिया की भी।
सूर्य कुमार पांडेय,
साभार- आई नेक्स्ट, 13 जुलाई, 2009
Monday, July 13, 2009
अब डाकिया बाबू लायेंगे काशी विश्वनाथ व उज्जैन के महाकालेश्वर का प्रसाद
सावन के मौसम में भगवान शिव की पूजा होती है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा जाता है और काशी विश्वनाथ मंदिर यहाँ का प्रमुख धार्मिक स्थल है। डाक विभाग और काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट के बीच वर्ष 2006 में हुए एक एग्रीमेण्ट के तहत काशी विश्वनाथ मंदिर का प्रसाद डाक द्वारा भी लोगों को उपलब्ध कराया जा रहा है। इसके तहत साठ रूपये का मनीआर्डर प्रवर डाक अधीक्षक, बनारस (पूर्वी) के नाम भेजना होता है और बदले में वहाँ से काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट के सौजन्य से मंदिर की भभूति, रूद्राक्ष, भगवान शिव की लेमिनेटेड फोटो और शिव चालीसा प्रेषक के पास प्रसाद रूप में भेज दिया जाता है।
काशी विश्वनाथ मंदिर के अलावा उज्जैन के प्रसिद्ध श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर का प्रसाद भी डाक द्वारा मंगाया जा सकता है। इसके लिए प्रशासक, श्री महाकालेश्वर मंदिर प्रबन्धन कमेटी, उज्जैन को 151 रूपये का मनीआर्डर करना पड़ेगा और इसके बदले में वहाँ से स्पीड पोस्ट द्वारा प्रसाद भेज दिया जाता है। इस प्रसाद में 200 ग्राम ड्राई फ्रूट, 200 ग्राम लड्डू, भभूति और भगवान श्री महाकालेश्वर जी का चित्र शामिल है।
इस प्रसाद को प्रेषक के पास एक वाटर प्रूफ लिफाफे में स्पीड पोस्ट द्वारा भेजा जाता है, ताकि पारगमन में यह सुरक्षित और शुद्ध बना रहे। तो अब आप भी घर बैठे भोले जी का प्रसाद ग्रहण कीजिये और मन ही मन में उनका पुनीत स्मरण कर आशीर्वाद लीजिए !!
काशी विश्वनाथ मंदिर के अलावा उज्जैन के प्रसिद्ध श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर का प्रसाद भी डाक द्वारा मंगाया जा सकता है। इसके लिए प्रशासक, श्री महाकालेश्वर मंदिर प्रबन्धन कमेटी, उज्जैन को 151 रूपये का मनीआर्डर करना पड़ेगा और इसके बदले में वहाँ से स्पीड पोस्ट द्वारा प्रसाद भेज दिया जाता है। इस प्रसाद में 200 ग्राम ड्राई फ्रूट, 200 ग्राम लड्डू, भभूति और भगवान श्री महाकालेश्वर जी का चित्र शामिल है।
इस प्रसाद को प्रेषक के पास एक वाटर प्रूफ लिफाफे में स्पीड पोस्ट द्वारा भेजा जाता है, ताकि पारगमन में यह सुरक्षित और शुद्ध बना रहे। तो अब आप भी घर बैठे भोले जी का प्रसाद ग्रहण कीजिये और मन ही मन में उनका पुनीत स्मरण कर आशीर्वाद लीजिए !!
Thursday, July 9, 2009
डाक टिकटों पर कानपुर
कानपुर आरम्भ से ही राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-औद्योगिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है और यही कारण है कि कानपुर से जुड़े- गणेश शंकर विद्यार्थी (25 मार्च 1962, 15 पैसे), दीन दयाल उपाध्याय (5 मई 1978, 25 पैसे), तात्या टोपे (10 मई 1984, 50 पैसे)े, नाना साहब (10 मई 1984, 50 पैसे), चन्द्रशेखर आजाद (27 फरवरी 1988, 60 पैसे), बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ (8 दिसम्बर 1989, 60 पैसे), श्याम लाल गुप्त ‘पार्षद’ (4 मार्च 1997, 1 रूपये), नरेन्द्र मोहन (14 अक्टूबर 2003, 5 रूपया), पदमपत सिंहानिया (3 फरवरी 2005, 5 रूपया) जैसी विभूतियों पर अभी तक डाक टिकट जारी हो चुके हैं। 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की 150वीं जयन्ती पर कानपुर व लखनऊ में हुए घमासान युद्वों को दर्शाते हुए 9 अगस्त 2007 को 5 रूपये व 15 रूपये मूल्यवर्ग के डाक टिकट व मिनीएचर शीट जारी किये गये। इसके अलावा बिठूर से जुड़े होने के कारण रानी लक्ष्मीबाई (15 अगस्त 1957, 15 पैसे) व महर्षि बाल्मीकि (14अक्टूबर 1970, 20 पैसे) पर जारी डाक टिकटों को भी इसी क्रम में रखा जाता है। यही नहीं फूलबाग स्थित राजकीय संग्राहलय में भी डाक टिकटों के संकलन का एक अलग सेक्शन है। डाक टिकटों के मामले में एक रोचक तथ्य कानपुर से जुड़ा हुआ है। वर्ष 1957 में बाल दिवस पर पहली बार तीन स्मारक डाक टिकट जारी किये गये, जो पोषण (8 पैसे, केला खाता बालक), शिक्षा (15 पैसे, स्लेट पर लिखती लड़की) व मनोरंजन (90 पैसे, मिट्टी का बना बांकुरा घोड़ा) पर आधारित थे। दस हजार फोटोग्रास में से चयनित शेखर बार्कर व रीता मल्होत्रा को क्रमशः पोषण व शिक्षा पर जारी डाक टिकटों पर अंकित किया गया। स्लेट पर लिखती लड़की रीता मल्होत्रा कानपुर की थी। ठीक पचास वर्ष बाद वर्ष 2007 में बाल दिवस पर डाक टिकट जारी होने के दौरान शेखर बार्कर व रीता मल्होत्रा को भी आमंत्रित किया गया, पर रीता मल्होत्रा को शायद खोजा न जा सका। इस प्रकार कानपुर की विभूतियों पर जारी डाक टिकटों के क्रम में रीता मल्होत्रा का नाम भी शामिल किया जा सकता है।
डाक टिकट संग्रह को बढ़ावा देने हेतु कानपुर जी0पी0ओ0 में जुलाई 1973 में फिलेटलिक ब्यूरो की स्थापना की गयी जिसमें तमाम डाक टिकटों और उनसे जुड़ी सामग्रियों का अवलोकन किया जा सकता है। कानपुर में 30 अक्टूबर-1 नवम्बर 1982, 17-18 फरवरी 2001, 22-23 मार्च 2003, 24-25 नवम्बर 2004 और 22-23 दिसम्बर 2006 को डाक टिकटों के प्रति लोगों को आकर्षित करने हेतु और इससे जुड़े विभिन्न पहलुओं से रूबरू कराने हेतु डाक टिकट प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इन प्रदर्शनियों में 30 अक्टूबर-1 नवम्बर 1982 को ‘फिलकाॅन-82‘ के दौरान क्रमशः प्रथम भारतीय पोस्टमास्टर जनरल राय बहादुर सालिगराम, रानी लक्ष्मीबाई व श्री राधाकृष्ण मन्दिर (जे0के0मन्दिर) पर, तत्पश्चात 24 नवम्बर 2004 को ’कानफिलेक्स-2004‘ के दौरान कानपुर जी0पी0ओ0 भवन पर और 22 व 23 दिसम्बर 2006 को ‘कानपेक्स-2006‘ के दौरान क्रमशः ’कानपुर की स्थापत्य कला’ (कानपुर जी0पी0ओ0, लालइमली, फूलबाग, कानपुर सेण्ट्रल रेलवे स्टेशन, चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के भवनों के चित्र अंकित) एवं ’बिठूर की धरोहरें’ (नानाराव पेशवा का किला, स्वर्ग नसेनी, ब्रहमावर्त घाट, लवकुश जन्मस्थली के चित्र अंकित) पर विशेष आवरण जारी किये गये। इसी प्रकार 17 जनवरी 2009 को महाराज प्रयाग नारायण मंदिर, शिवाला पर विशेष आवरण जारी किया गया। इन जारी आवरणों द्वारा कानपुर की समृद्ध ऐतिहासिक विरासतों को दर्शाने का प्रयास किया गया है।
डाक टिकट संग्रह को बढ़ावा देने हेतु कानपुर जी0पी0ओ0 में जुलाई 1973 में फिलेटलिक ब्यूरो की स्थापना की गयी जिसमें तमाम डाक टिकटों और उनसे जुड़ी सामग्रियों का अवलोकन किया जा सकता है। कानपुर में 30 अक्टूबर-1 नवम्बर 1982, 17-18 फरवरी 2001, 22-23 मार्च 2003, 24-25 नवम्बर 2004 और 22-23 दिसम्बर 2006 को डाक टिकटों के प्रति लोगों को आकर्षित करने हेतु और इससे जुड़े विभिन्न पहलुओं से रूबरू कराने हेतु डाक टिकट प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इन प्रदर्शनियों में 30 अक्टूबर-1 नवम्बर 1982 को ‘फिलकाॅन-82‘ के दौरान क्रमशः प्रथम भारतीय पोस्टमास्टर जनरल राय बहादुर सालिगराम, रानी लक्ष्मीबाई व श्री राधाकृष्ण मन्दिर (जे0के0मन्दिर) पर, तत्पश्चात 24 नवम्बर 2004 को ’कानफिलेक्स-2004‘ के दौरान कानपुर जी0पी0ओ0 भवन पर और 22 व 23 दिसम्बर 2006 को ‘कानपेक्स-2006‘ के दौरान क्रमशः ’कानपुर की स्थापत्य कला’ (कानपुर जी0पी0ओ0, लालइमली, फूलबाग, कानपुर सेण्ट्रल रेलवे स्टेशन, चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के भवनों के चित्र अंकित) एवं ’बिठूर की धरोहरें’ (नानाराव पेशवा का किला, स्वर्ग नसेनी, ब्रहमावर्त घाट, लवकुश जन्मस्थली के चित्र अंकित) पर विशेष आवरण जारी किये गये। इसी प्रकार 17 जनवरी 2009 को महाराज प्रयाग नारायण मंदिर, शिवाला पर विशेष आवरण जारी किया गया। इन जारी आवरणों द्वारा कानपुर की समृद्ध ऐतिहासिक विरासतों को दर्शाने का प्रयास किया गया है।
Wednesday, July 8, 2009
क्रान्तिकारियों के निशाने पर रहे डाकघर
स्वतन्त्रता आन्दोलन में कानपुर की प्रमुख भूमिका रही है। 1857 के बाद से डाकघर बराबर क्रान्तिकारियों के निशाने पर रहे और आगजनी तथा लूटपाट का दौर कानपुर के डाकघरों ने भी देखा। इस दौर में तमाम क्रान्तिकारी नायकों ने भी बड़ी संख्या में हरकारों की भर्ती कर रखी थी, जो उनके लिए गुप्त खबरें भी लाते थे। कानपुर में नाना साहब के दरबार में एक हरकारे गिरधारी ने ही मेरठ विद्रोह की खबर सर्वप्रथम पहुँचाई थी, जिसे बाद में अंग्रेजों ने मौत के घाट उतार दिया। 1857 की क्रान्ति के दौरान जब क्रान्तिकारियों ने कानपुर में अंग्रेजों की संचार व्यवस्था ध्वस्त कर दी तो सेनापति कोलिन थेंप विल ने पत्र द्वारा गर्वनर जनरल लार्ड केनिंग को यहाँ के बारे में सूचित करते हुए सलाह दी कि जब तक अंग्रेजी सेनायें अवध को काबू में नहीं करेंगी, तब तक क्रान्ति की चिंगारी यँू ही फैलती रहेगी। कालान्तर में भी डाक सेवायें लोगों के निशाने पर रहीं, क्योंकि अंग्रेजों के पास संचार माध्यम का यह सबसे सशक्त साधन था। 1940 के दौरान राजस्थान के देवली नामक स्थान में बनाये गये कैम्प में समग्र भारत से लगभग 400 क्रान्तिकारियों को अंग्रेजी हुकूमत ने बन्द कर दिया था, जिसमें कानपुर के भी तमाम लोग थे। इसके विरोध में 8 नवम्बर 1940 को कानपुर में छात्रों ने देवली दिवस की घोषण कर जुलूस निकाले। डी0ए0वी0 से चले जुलूस को सिरकी मोहाल चैकी के पीछे वाली गली में पहुँचने पर पुलिस ने दोनों ओर से घेर कर लाठीचार्ज किया और कुछ लोगों को गिरतार भी कर लिया। इससे आक्रोशित होकर 16 वर्षीय छात्र सूरजबली नादिरा ने अपने साथी शिवशंकर सिंह और अन्य के साथ बड़ा चैराहा स्थिति डाकघर में धावा बोलकर 1,36,000 रूपये अपने कब्जे में कर लिये और पुलिस द्वारा घिर जाने पर नोट लुटाते भाग गये। यद्यपि बाद में पुलिस ने नादिरा को गिरतार कर लिया। इसी प्रकार भारत छोड़ो आन्दोलन के आवह्यन के अगले दिन 10 अगस्त 1942 को आन्दोलित भीड़ ने मेस्टन रोड डाकघर में हमला बोलकर 50,000 रूपये की नकदी लूट ली व सारा सामान आग के हवाले कर दिया। नयागंज डाकखाने का भी सारा सामान लूट लिया गया और जनरलगंज व नरौना एक्सचेन्ज डाकघरों में आग लगाने के साथ-साथ तमाम लेटरबाक्सों को भी नुकसान पहुँचाया गया।
Tuesday, July 7, 2009
भारत के 8 जी0पी0ओ0 में से एक कानपुर में
डाक विभाग की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार समस्त भारत में 8 जी0पी0ओ0 हैं, जो कि मुम्बई, कोलकाता, अहमदाबाद, बेंगलूर, चेन्नई, दिल्ली, लखनऊ और कानपुर में स्थित हैं। इनमें कानपुर जी0पी0ओ0 चीफ पोस्टमास्टर के अधीन कानपुर नगर के व्यस्ततम बड़ा चैराहा पर अवस्थित है। यह एकमात्र ऐसा जी0पी0ओ0 है जो कि अपनी स्थापना के समय राजधानी में अवस्थित नहीं था। एक डाकघर के रूप में इसने 1901 में कार्य करना आरम्भ किया। उस समय यह एक अंग्रेज अधिकारी के बंगले में अवस्थित था। कालान्तर में वर्तमान स्थान पर जी0पी0ओ0 भवन का शिलान्यास 9 सितम्बर 1962 को भारत सरकार के तत्कालीन परिवहन एवं संचार मंत्री श्री जगजीवन राम ने और उद्घाटन 11 अगस्त 1969 को संचार विभाग के तत्कालीन सचिव श्री लक्ष्मी चंद जैन (आई0सी0एस0) ने किया। पहले यह कानपुर डाक मण्डल के अधीन था। 4 जनवरी 1972 को प्रधान डाकघर के रूप में इसका अपग्रेडेशन हुआ और श्री एच0पी0त्रिवेदी (04 जनवरी 72-15 जुलाई 72) इसके प्रथम चीफ पोस्टमास्टर बने। 124 लेटर बाक्स और 187 डाकियों के माध्यम से डाक सेवा जी0पी0ओ0 के अधीनस्थ क्षेत्रों में कार्य कर रही है। 40 उपडाकघर, 02 अतिरिक्त विभागीय उपडाकघर और 23 शाखा डाकघर इसके लेखा क्षेत्र के अन्र्तगत आते हैं। कानपुर जी0 पी0 ओ0 परिसर का क्षेत्रफल 8750 वर्गमीटर है और 3915 वर्गमीटर में इसका भवन बना है। इस चार मंजिला भवन, जिसमें कि एक भूतल भी है, में चीफ पोस्टमास्टर कानपुर जी0पी0ओ0 के अलावा पोस्टमास्टर जनरल कानपुर रीजन, प्रवर डाक अधीक्षक कानपुर नगर मण्डल, प्रवर अधीक्षक रेल डाक सेवा ‘केपी’ मण्डल कानपुर, डाक अधीक्षक कानपुर (मुफस्सिल), अधीक्षक सर्किल स्टैम्प डिपो और प्रबन्धक मेल मोटर सर्विस के कार्यालय भी अवस्थित हैं। कानपुर नगर मण्डल द्वारा आयोजित डाक टिकट प्रदर्शनी ’कानफिलेक्स’ के दौरान 24 नवम्बर 2004 को कानपुर जी0पी0ओ0 भवन पर एक विशेष आवरण भी जारी किया गया । कानपुर जी0पी0ओ0 की विशिष्टता को देखते हुए ही उत्तर प्रदेश में सर्वप्रथम राष्ट्रीय स्पीड पोस्ट केन्द्र यहीं पर 15 नवम्बर 1986 को खोला गया। 14नवम्बर 2006 को कानपुर जी0पी0ओ0 में सभी वित्तीय सेवाएं एक छत के नीचे उपलब्ध कराने हेतु पोस्टल फाइनेंस मार्ट की स्थापना की गई। बचत सेवाओं से प्राप्त सकल जमा के मामले में उ0प्र0 में कानपुर का द्वितीय स्थान है। इस समय यह एक ‘‘प्रोजेक्ट एरो‘‘ डाकघर है.
Sunday, July 5, 2009
कानपुर में निदेशक डाक सेवाएं पद सर्वप्रथम स्थापित
डाक विभाग ने विकेन्द्रीकरण की नीति अपनाते हुये प्रायोगिक तौर पर देश के तीन प्रमुख क्षेत्रों में जुलाई 1973 के दौरान निदेशक डाक सेवाएं पद स्थापित किया। इनमें से एक कानपुर और दो अन्य कोयम्बटूर व नागपुर थे। भारतीय डाक सेवा के अधिकारी श्री एस0आर0 फारूखी को कानपुर क्षेत्र में प्रथम निदेशक बनाया गया। कालान्तर में इस व्यवस्था को समाप्त करते हुए अखिल भारतीय स्तर पर 2 अप्रैल 1979 को सभी क्षेत्रों में रीजनल स्तर की स्थापना की गयी और निदेशक डाक सेवायें पद को इस स्तर पर स्थापित किया गया। कानपुर रीजन में प्रथम निदेशक के रूप में भारतीय डाक सेवा के अधिकारी श्री आर0एस0 गुप्ता की नियुक्ति हुयी। कानपुर में 27 नवम्बर 1986 को अपग्रेडेशन द्वारा अतिरिक्त पोस्टमास्टर जनरल पद का सृजन किया गया और इस पद को 1 मार्च 1989 से पोस्टमास्टर जनरल के रूप में तब्दील कर दिया गया। अतिरिक्त पोस्टमास्टर जनरल के पद सृजन के समय श्री एल0सी0राम कानपुर रीजन के निदेशक (4 मई 1982 से 1 फरवरी 1986 तक) थे। श्री के0एल0 मल्होत्रा कानपुर रीजन के प्रथम अतिरिक्त पोस्टमास्टर जनरल (27 नवम्बर 1986 से 28 फरवरी 1989 तक) नियुक्त हुए व तत्पश्चात 1 मार्च 1989 से 14 मार्च 1990 तक वे कानपुर रीजन के प्रथम पोस्टमास्टर जनरल भी रहे।
डाक सेवाओं को सुचारु रूप से चलाने के लिए विभिन्न क्रियात्मक गतिविधियों हेतु समय-समय पर डाक विभाग द्वारा तमाम इकाईयाँ स्थापित की गई। डाक को विभिन्न डाकघरों से एकत्र करने और उन्हें आर0एम0एस0 व अन्य गन्तव्य स्थानों तक पहुँचाने हेतु दिसम्बर 1963 में कानपुर में मेल मोटर सेवा आरम्भ की गई। इसी प्रकार डाकघरों में डाक टिकट, डाक स्टेशनरी- पोस्टकार्ड, अन्तर्देशीय पत्र, लिफाफा इत्यादि, केन्द्र्रीय भर्ती शुल्क, इण्डियन पोस्टल आर्डर एवं बचत-पत्रों इत्यादि की आपूर्ति के लिये कानपुर में सर्किल स्टैम्प डिपो की 24 फरवरी 1981 को स्थापना की गई। भारतीय प्रतिभूति मुद्रणालय, नासिक से प्राप्त डाक टिकट, डाक स्टेशनरी, केन्द्र्रीय भर्ती शुल्क, राष्ट्रीय बचत पत्र व किसान विकास पत्र एवं सिक्यूरिटी प्रिन्टिंग प्रेस, हैदराबाद से प्राप्त इण्डियन पोस्टल आर्डर को सर्किल स्टैम्प डिपो, कानपुर उत्तर प्रदेश डाक परिमण्डल के 62 प्रधान डाकघरों को आपूर्ति करता है। लखनऊ रीजन के अलावा उत्तर प्रदेश डाक परिमण्डल के सभी रीजनों की आपूर्ति यहीं से होती है। कानपुर की विशिष्टता को देखते हुए ही उत्तर प्रदेश में सर्वप्रथम राष्ट्रीय स्पीड पोस्ट केन्द्र यहीं पर 15 नवम्बर 1986 को खोला गया। 14नवम्बर 2006 को कानपुर जी0पी0ओ0 में सभी वित्तीय सेवाएं एक छत के नीचे उपलब्ध कराने हेतु पोस्टल फाइनेंस मार्ट की स्थापना की गई। बचत सेवाओं से प्राप्त सकल जमा के मामले में उ0प्र0 में कानपुर का द्वितीय स्थान है।
डाक सेवाओं को सुचारु रूप से चलाने के लिए विभिन्न क्रियात्मक गतिविधियों हेतु समय-समय पर डाक विभाग द्वारा तमाम इकाईयाँ स्थापित की गई। डाक को विभिन्न डाकघरों से एकत्र करने और उन्हें आर0एम0एस0 व अन्य गन्तव्य स्थानों तक पहुँचाने हेतु दिसम्बर 1963 में कानपुर में मेल मोटर सेवा आरम्भ की गई। इसी प्रकार डाकघरों में डाक टिकट, डाक स्टेशनरी- पोस्टकार्ड, अन्तर्देशीय पत्र, लिफाफा इत्यादि, केन्द्र्रीय भर्ती शुल्क, इण्डियन पोस्टल आर्डर एवं बचत-पत्रों इत्यादि की आपूर्ति के लिये कानपुर में सर्किल स्टैम्प डिपो की 24 फरवरी 1981 को स्थापना की गई। भारतीय प्रतिभूति मुद्रणालय, नासिक से प्राप्त डाक टिकट, डाक स्टेशनरी, केन्द्र्रीय भर्ती शुल्क, राष्ट्रीय बचत पत्र व किसान विकास पत्र एवं सिक्यूरिटी प्रिन्टिंग प्रेस, हैदराबाद से प्राप्त इण्डियन पोस्टल आर्डर को सर्किल स्टैम्प डिपो, कानपुर उत्तर प्रदेश डाक परिमण्डल के 62 प्रधान डाकघरों को आपूर्ति करता है। लखनऊ रीजन के अलावा उत्तर प्रदेश डाक परिमण्डल के सभी रीजनों की आपूर्ति यहीं से होती है। कानपुर की विशिष्टता को देखते हुए ही उत्तर प्रदेश में सर्वप्रथम राष्ट्रीय स्पीड पोस्ट केन्द्र यहीं पर 15 नवम्बर 1986 को खोला गया। 14नवम्बर 2006 को कानपुर जी0पी0ओ0 में सभी वित्तीय सेवाएं एक छत के नीचे उपलब्ध कराने हेतु पोस्टल फाइनेंस मार्ट की स्थापना की गई। बचत सेवाओं से प्राप्त सकल जमा के मामले में उ0प्र0 में कानपुर का द्वितीय स्थान है।
डाक सेवाओं में महत्वपूर्ण कानपुर
व्यवस्थित तौर पर कानपुर में डाक सेवाओं का इतिहास काफी पुराना है। आरम्भ में कानपुर डाक मण्डल के अन्तर्गत कानपुर, फतेहपुर, उन्नाव, रायबरेली, इटावा, फतेहगढ़ और मैनपुरी जनपद शामिल थे। कालान्तर में फतेहगढ़, मैनपुरी और इटावा को कानपुर डाक मण्डल से पृथक कर 15 फरवरी 1935 को फतेहगढ़ डाक मण्डल की स्थापना की गई। बाद में प्रतापगढ़ डाक मण्डल की स्थापना उपरान्त रायबरेली को कानपुर डाक मण्डल से पृथक कर 1जनवरी 1955 को प्रतापगढ़ डाक मण्डल का भाग बना दिया गया। 4 जनवरी 1972 को कानपुर प्रधान डाकघर का अपग्रेडेशन हुआ और यह कानपुर मण्डल से स्वतन्त्र इकाई के रूप में संचालित होने लगा। पुनः 28 फरवरी 1973 को कानपुर देहात, उन्नाव और फतेहपुर को कानपुर डाक मण्डल से पृथक करते हुये एक अलग कानपुर (मुफस्सिल) डाक मण्डल बनाया गया। उस समय कानपुर देहात कानपुर जनपद का और उन्नाव लखनऊ जनपद के भाग थे, जो कि कालान्तर में पृथक जनपद के रूप में अवस्थित हुये। इसके बाद कानपुर डाक मण्डल में सिर्फ कानपुर नगर राजस्व जनपद का क्षेत्र बचा। बाद में 1 फरवरी 1981 को कानपुर (मुफस्सिल) से पृथक कर फतेहपुर डाक मण्डल की स्थापना की गई।
वर्तमान रूप में कानपुर नगर डाक मण्डल की स्थापना 28 फरवरी 1973 को हुई। कानपुर नगर मण्डल में कुल 174 डाकघर हैं, जिनमें 02 प्रधान डाकघर, 94 उप डाकघर, 02 अतिरिक्त विभागीय उपडाकघर और 76 शाखा डाकघर हैं। इसके अलावा 08 पंचायत संचार सेवा केन्द्र व एक फ्रेन्चाइजी आउटलेट भी चल रहे हैं। 31 वितरण डाकघर, 317 डाकियों और 640 लेटर बाक्सों के माध्यम से डाक सेवा नगर मण्डल में कार्य कर रही है। इसके अलावा तमाम ग्रामीण डाक सेवक भी वितरण कार्य में संलग्न हैं। कानपुर नगर मण्डल के कार्यक्षेत्र में अवस्थित नरोना एक्सचेंज डाकघर में लगे शिलापट के अनुसार इस डाकघर का शुभारम्भ 4 अप्रैल 1911 को मिस्टर सी0आर0क्लार्क (आई0सी0एस0), तत्कालीन पोस्टमास्टर जनरल उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया था, जो कि कानपुर में अग्रणी डाक सेवाओं को दर्शाता है। कानपुर जी0पी0ओ0 के अलावा नगर के समस्त डाकघर प्रवर डाक अधीक्षक, कानपुर नगर मण्डल के प्रशासकीय नियन्त्रण के अधीन हैं। इस मण्डल के अधीनस्थ नवाबगंज और कैण्ट डाकघरों को अपग्रेडेशन द्वारा क्रमशः 1 अक्टूबर 1973 व 1 जनवरी 1979 को प्रधान डाकघरों में तब्दील कर दिया गया। वर्तमान में नवाबगंज प्रधान डाकघर के लेखा क्षेत्र में 38 और कैण्ट प्रधान डाकघर के लेखा क्षेत्र में 39 उपडाकघर कार्यरत हैं। कानपुर नगर मण्डल के अधीनस्थ शेष 19 उपडाकघर कानपुर जी0पी0ओ0 के लेखा क्षेत्र में आते हैं।
वर्तमान रूप में कानपुर नगर डाक मण्डल की स्थापना 28 फरवरी 1973 को हुई। कानपुर नगर मण्डल में कुल 174 डाकघर हैं, जिनमें 02 प्रधान डाकघर, 94 उप डाकघर, 02 अतिरिक्त विभागीय उपडाकघर और 76 शाखा डाकघर हैं। इसके अलावा 08 पंचायत संचार सेवा केन्द्र व एक फ्रेन्चाइजी आउटलेट भी चल रहे हैं। 31 वितरण डाकघर, 317 डाकियों और 640 लेटर बाक्सों के माध्यम से डाक सेवा नगर मण्डल में कार्य कर रही है। इसके अलावा तमाम ग्रामीण डाक सेवक भी वितरण कार्य में संलग्न हैं। कानपुर नगर मण्डल के कार्यक्षेत्र में अवस्थित नरोना एक्सचेंज डाकघर में लगे शिलापट के अनुसार इस डाकघर का शुभारम्भ 4 अप्रैल 1911 को मिस्टर सी0आर0क्लार्क (आई0सी0एस0), तत्कालीन पोस्टमास्टर जनरल उत्तर प्रदेश द्वारा किया गया था, जो कि कानपुर में अग्रणी डाक सेवाओं को दर्शाता है। कानपुर जी0पी0ओ0 के अलावा नगर के समस्त डाकघर प्रवर डाक अधीक्षक, कानपुर नगर मण्डल के प्रशासकीय नियन्त्रण के अधीन हैं। इस मण्डल के अधीनस्थ नवाबगंज और कैण्ट डाकघरों को अपग्रेडेशन द्वारा क्रमशः 1 अक्टूबर 1973 व 1 जनवरी 1979 को प्रधान डाकघरों में तब्दील कर दिया गया। वर्तमान में नवाबगंज प्रधान डाकघर के लेखा क्षेत्र में 38 और कैण्ट प्रधान डाकघर के लेखा क्षेत्र में 39 उपडाकघर कार्यरत हैं। कानपुर नगर मण्डल के अधीनस्थ शेष 19 उपडाकघर कानपुर जी0पी0ओ0 के लेखा क्षेत्र में आते हैं।
Friday, July 3, 2009
कानपुर में रेल डाक सेवा
रेलवे सेवा आरम्भ होने के बाद इलाहाबाद और कानपुर के बीच अखिल भारतीय स्तर पर प्रथम बार रेलवे सार्टिंग सेक्शन की स्थापना 1 मई 1864 को की गई, जो कि कालान्तर में रेलवे डाक सेवा में तब्दील हो गया। आरम्भ में कानपुर की रेलवे डाक सेवा इलाहाबाद से संचालित होती थी, पर 30 अगस्त 1972 को पोस्टमास्टर जनरल, उत्तर प्रदेश के एक आदेश द्वारा ‘ए’ मण्डल इलाहाबाद को विभक्त कर ‘के0पी0’ मण्डल कानपुर का गठन किया गया। वर्तमान में इस मण्डल द्वारा कुल 12 जनपदों, यथा- कानपुर नगर, कानपुर देहात, उन्नाव, फतेहपुर, फर्रूखाबाद, इटावा, मैनपुरी, औरैया, फिरोजाबाद, महामाया नगर, बुलन्दशहर, अलीगढ़ की डाक का आदान-प्रदान व पारेषण किया जाता है। वर्तमान में रेलवे डाक सेवा की अवधारणा को और व्यापक बनाते हुए इन्हे ‘मेल बिजनेस सेन्टर‘ में तब्दील किया जा रहा है, जहाँ इसका कार्य डाक-प्रोसेसिंग तक सीमित न होकर डाक के एकत्रीकरण, वितरण और विपणन तक विस्तृत हो जायेगा। ‘के0पी0’ मण्डल कानपुर को यह सौभाग्य प्राप्त है कि उत्तर प्रदेश के प्रथम ‘मेल बिजनेस सेन्टर’ का शुभारम्भ इसके अधीनस्थ अलीगढ़ आर0एम0एस0 में 27 दिसम्बर 2006 को हुआ।
(चित्र में- उत्तर प्रदेश के प्रथम ‘मेल बिजनेस सेन्टर’ के शुभारम्भ के दौरान डाक सेवा बोर्ड सदस्य आई. एम. जी. खान और तत्कालीन एस.एस.आर.एम. के.के.यादव )
(चित्र में- उत्तर प्रदेश के प्रथम ‘मेल बिजनेस सेन्टर’ के शुभारम्भ के दौरान डाक सेवा बोर्ड सदस्य आई. एम. जी. खान और तत्कालीन एस.एस.आर.एम. के.के.यादव )
डाक व्यवस्था में प्रथम कम्पनी स्थापित किया लाला ठंठीमल ने
सामरिक व औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण होने के कारण ब्रिटिश शासन काल से ही अंग्रेजों ने कानपुर में संचार साधनों की प्रमुखता पर जोर दिया। इनमें डाक सेवायें सर्वप्रमुख थीं। कानपुर में सर्वप्रथम डाकघर की स्थापना कैण्ट स्थित नहरिया पर 1840 में हुई। 6 मई 1840 को ब्रिटेन में विश्व के प्रथम डाक टिकट जारी होने के अगले वर्ष 1841 मंे इलाहाबाद और कानपुर के मध्य घोड़ा गाड़ी द्वारा डाक सेवा आरम्भ की गई। इलाहाबाद के एक धनी व्यापारी लाला ठंठीमल, जिनका व्यवसाय कानपुर तक विस्तृत था को इस घोड़ा गाड़ी डाक सेवा को आरम्भ करने का श्रेय दिया जाता है, जिन पर अंग्रेजों ने भी अपना भरोसा दिखाया। जी0टी रोड बनने के बाद उसके रास्ते भी पालकी और घोड़ा गाड़ी से डाक आती थी, जिसमें एक घोड़ा 7 किलोमीटर का सफर तय करता था। आधा तोला वजन का एक पैसा किराया तुरन्त भुगतान करना होता था। इलाहाबाद से बिठूर तक डाक का आवागमन गंगा नदी के रास्ते से होता था। सन् 1850 में लाला ठंठीमल ने कुछ अंग्रेजों के साथ मिलकर ‘इनलैण्ड ट्रांजिट कम्पनी’ की स्थापना की और कलकत्ता से कानपुर के मध्य घोड़ा गाड़ी डाक व्यवस्थित रूप से आरम्भ किया। अगले वर्षों में इसका विस्तार मेरठ, दिल्ली, आगरा, लखनऊ, बनारस इत्यादि प्रमुख शहरों में भी किया गया। कानपुर की अवस्थिति इन शहरों के मध्य में होने के कारण डाक सेवाओं के विस्तार के लिहाज से इसका महत्वपूर्ण स्थान था। इस प्रकार लाला ठंठीमल को भारत में डाक व्यवस्था में प्रथम कम्पनी स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है। 1854 में डाक सेवाओं के एकीकृत विभाग में तब्दील होने पर इनलैण्ड ट्रांजिट कम्पनी’ का विलय भी इसमें कर दिया गया।
Wednesday, July 1, 2009
डाकिया: बदलते हुए रूप
पिछले दिनों आफिस में बैठकर कुछ जरूरी फाइलें निपटा रहा था, तभी एक बुजुर्गवार व्यक्ति ने अन्दर आने की इजाजत मांगी। वे अपने क्षेत्र के डाकिये की शिकायत करने आये थे कि न तो उसे बड़े छोटे की समझ है एवं न ही वह समय से डाक पहुंचाता है। बात करते-करते वे अतीत के दिनों में पहुंच गये और बोले-साहब! हमारे जमाने के डाकिये बहुत समझदार हुआ करते थे। हमारा उनसे अपनापन का नाता था। इससे पहले कि हम अपना पत्र खोलें वे लिखावट देखकर बता दिया करते थे-अच्छा! राकेश बाबू (हमारे सुपुत्र) का पत्र आया है, सब ठीक तो है न। वे सज्जन बताने लगे कि जब हमारे पुत्र का नौकरी हेतु चयन हुआ तो डाकिया बाबू नियुक्ति पत्र लेकर आये और मुझे आवाज लगाई। मेरी अनुपस्थिति में मेरी श्रीमती जी बाहर्र आइं व पत्र को खोलकर देखा तो झूम उठीं। डाकिया बाबू ने पूछा- अरे भाभी, क्या बात है, कुछ हमें भी तो बताओ। श्रीमती जी ने जवाब दिया कि आपका भतीजा साहब बन गया है।
शाम को मैं लौटकर घर आया तो पत्नी ने मुझे भी खुशखबरी सुनाई और पल्लू से पैसे निकालते हुए कहा कि जाइये अभी डाकिया बाबू को एक किलो मोतीचूर लड्डू पहुंँचा आइये। मैंने तुरंत साइकिल उठायी और लड्डू खरीद कर डाकिया बाबू के घर पहुंँचा। उस समय वे रात्रि के खाने की तैयारी कर रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने गले लगकर बेटे के चयन की बधाई दी और जवाब में मैंने लड्डू का पैकेट उनके हाथों में रख दिया। डाकिया बाबू बोले- ‘‘अरे ये क्या कर रहे हैं आप? चिट्ठियाँं बांँटना तो मेरा काम है। किसी को सुख बांटता हूँ तो किसी को दुःख।‘‘ मैंने कहा नहीं साहब, आप तो हमारे घर हमारा सौभाग्य लेकर आये थे, अतः आपको ये मिठाई स्वीकारनी ही पड़ेगी।
ये बताते-बताते उन बुजुर्ग की आंखों से आँसू झलक पड़े। और बोले, साहब! जब मेरे बेटे की शादी हुई तो डाकिया बाबू रोज सुबह मेरे घर पर आते और पूछ जाते कि कोई सामान तो बाजार से नहीं मंगवाना है। इसके बाद वे अपने वर्तमान डाकिया के बारे में बताने लगे, साहब! उसे तो बात करने की भी तमीज नही। डाक सीढ़ियों पर ही फेंककर चला जाता है। पिछले दिनों मेरे नाम एक रजिस्ट्री पत्र आया। घर में मात्र मेरी बहू थी। उसने कहा बाबू जी तो घर पर नहीं हैं, लाइये मुझे ही दे दीजिए। जवाब में उसने तुनक कर कहा जब वह आ जाएं तो बोलना कि डाकखाने से आकर पत्र ले जाएं।
मैं उस बुजुर्ग व्यक्ति की बात ध्यान से सुन रहा था और मेरे दिमाग में भी डाकिया के कई रूप कौंध रहे थे। कभी मुझे एक प्रतिष्ठित साहित्यकार की कहानी का वह अंश याद आता, जिसमें डाकिये ने एक व्यक्ति को उसके रिश्तेदार की मौत की सूचना वाला पत्र इसलिए मात्र नहीं दिया, क्योंकि इस दुःखद समाचार से उस व्यक्ति की बेटी की शादी टल सकती थी, जो कि बड़ी मुश्किलों के बाद तय हुई थी। तो कभी विदेश से लौटकर आये एक व्यक्ति की बात कानों में गूँजती कि- कम से कम भारत में अपने यहाँ डाकिया हरेक दरवाजे पर जाता तो है। तो कभी अपने गांँव का वह डाकिया आता, जिसकी शक्ल सिर्फ वही लोग पहचानते थे जो कभी बाजार गये हों। क्योंकि वह डाकिया पत्र-वितरण हेतु कभी गाँव में आता ही नहीं था। हर बाजार के दिन वह खाट लगाकर एक निश्चित दुकान के सामने बैठ जाता और सभी पत्रों को खाट पर सजा देता। गाँव वाले हाथ बांधे खड़े इन्तजार करते कि कब उनका नाम पुकारा जायेगा। जो लोग बाजार नहीं आते, उनके पत्र पड़ोसियों को सौंप दिये जाते। तो कभी एक महिला डाकिया का चेहरा सामने आता जिसने कई दिन की डाक इकट्ठा हो जाने पर उसे रद्दी वाले को बेच दी। या फिर इलाहाबाद में पुलिस महानिरीक्षक रहे एक आई.पी.एस. अधिकारी की पत्नी को जब डाकिये ने उनके बेटे की नियुक्ति का पत्र दिखाया तो वह इतनी भावविह्नल हो गईं कि उन्होंने नियुक्ति पत्र लेने हेतु अपना आंचल ही फैला दिया, मानो मुट्ठी में वो खुशखबरी नहीं संभल सकती थी।
मैं इस तथ्य का प्रतिपादन नहीं करना चाहता कि हर डाकिया बुरा ही होता है या अच्छा ही होता है। पर यह सच है कि ‘‘डाकिया‘‘ भारतीय सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी है। डाकिया द्वारा डाक लाना, पत्रों का बेसब्री से इंतजार, डाकिया से ही पत्र पढ़वाकर उसका जवाब लिखवाना इत्यादि तमाम महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आप डाकिये के रहन-सहन, वेश-भूषा एवं वेतन पर मत जाइये, क्योंकि उसके परिचित सभी तबके के लोग हैं। कभी-कभी जो काम बड़े अधिकारी भी नहीं करा पाते वह डाकिया चंद मिनटों में करा देता है। कारण डाक विभाग का वह सबसे मुखर चेहरा है। जहाँ कई अन्य देशों ने होम-टू-होम डिलीवरी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाये हैं, या इसे सुविधा-शुल्क से जोड़ दिया है, वहीं भारतीय डाकिया आज भी देश के हर होने में स्थित गाँव में निःशुल्क अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है।
जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया। कल तक लोग थके-हारे धूप, सर्दी व बरसात में चले आ रहे डाकिये को कम से कम एक गिलास पानी तो पूछते थे, पर आज की पीढ़ी डाकिये को एक हरकारा मात्र समझकर पत्र लेने के तत्काल बाद दरवाजा धड़ाम से बन्द कर कर लेती है, फिर भावनात्मकता व आत्मीयता कहाँ? कहां गया वह अपनापन जब डाकिया चीजों को ढोने वाला हरकारा मात्र न मानकर एक ही थैले में सुख और दुःख दोनों को बांटने वाला दूत समझा जाता था?
वे बुजुर्ग व्यक्ति मेरे पास लम्बे समय तक बैठकर अपनी व्यथा सुनाते रहे और मैंने उनकी शिकायत के निवारण का भरोसा भी दिलाया, पर तब तक मेरा मनोमस्तिष्क ऊपर व्यक्त की गई भावनाओं में विचरण कर चुका था।
शाम को मैं लौटकर घर आया तो पत्नी ने मुझे भी खुशखबरी सुनाई और पल्लू से पैसे निकालते हुए कहा कि जाइये अभी डाकिया बाबू को एक किलो मोतीचूर लड्डू पहुंँचा आइये। मैंने तुरंत साइकिल उठायी और लड्डू खरीद कर डाकिया बाबू के घर पहुंँचा। उस समय वे रात्रि के खाने की तैयारी कर रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने गले लगकर बेटे के चयन की बधाई दी और जवाब में मैंने लड्डू का पैकेट उनके हाथों में रख दिया। डाकिया बाबू बोले- ‘‘अरे ये क्या कर रहे हैं आप? चिट्ठियाँं बांँटना तो मेरा काम है। किसी को सुख बांटता हूँ तो किसी को दुःख।‘‘ मैंने कहा नहीं साहब, आप तो हमारे घर हमारा सौभाग्य लेकर आये थे, अतः आपको ये मिठाई स्वीकारनी ही पड़ेगी।
ये बताते-बताते उन बुजुर्ग की आंखों से आँसू झलक पड़े। और बोले, साहब! जब मेरे बेटे की शादी हुई तो डाकिया बाबू रोज सुबह मेरे घर पर आते और पूछ जाते कि कोई सामान तो बाजार से नहीं मंगवाना है। इसके बाद वे अपने वर्तमान डाकिया के बारे में बताने लगे, साहब! उसे तो बात करने की भी तमीज नही। डाक सीढ़ियों पर ही फेंककर चला जाता है। पिछले दिनों मेरे नाम एक रजिस्ट्री पत्र आया। घर में मात्र मेरी बहू थी। उसने कहा बाबू जी तो घर पर नहीं हैं, लाइये मुझे ही दे दीजिए। जवाब में उसने तुनक कर कहा जब वह आ जाएं तो बोलना कि डाकखाने से आकर पत्र ले जाएं।
मैं उस बुजुर्ग व्यक्ति की बात ध्यान से सुन रहा था और मेरे दिमाग में भी डाकिया के कई रूप कौंध रहे थे। कभी मुझे एक प्रतिष्ठित साहित्यकार की कहानी का वह अंश याद आता, जिसमें डाकिये ने एक व्यक्ति को उसके रिश्तेदार की मौत की सूचना वाला पत्र इसलिए मात्र नहीं दिया, क्योंकि इस दुःखद समाचार से उस व्यक्ति की बेटी की शादी टल सकती थी, जो कि बड़ी मुश्किलों के बाद तय हुई थी। तो कभी विदेश से लौटकर आये एक व्यक्ति की बात कानों में गूँजती कि- कम से कम भारत में अपने यहाँ डाकिया हरेक दरवाजे पर जाता तो है। तो कभी अपने गांँव का वह डाकिया आता, जिसकी शक्ल सिर्फ वही लोग पहचानते थे जो कभी बाजार गये हों। क्योंकि वह डाकिया पत्र-वितरण हेतु कभी गाँव में आता ही नहीं था। हर बाजार के दिन वह खाट लगाकर एक निश्चित दुकान के सामने बैठ जाता और सभी पत्रों को खाट पर सजा देता। गाँव वाले हाथ बांधे खड़े इन्तजार करते कि कब उनका नाम पुकारा जायेगा। जो लोग बाजार नहीं आते, उनके पत्र पड़ोसियों को सौंप दिये जाते। तो कभी एक महिला डाकिया का चेहरा सामने आता जिसने कई दिन की डाक इकट्ठा हो जाने पर उसे रद्दी वाले को बेच दी। या फिर इलाहाबाद में पुलिस महानिरीक्षक रहे एक आई.पी.एस. अधिकारी की पत्नी को जब डाकिये ने उनके बेटे की नियुक्ति का पत्र दिखाया तो वह इतनी भावविह्नल हो गईं कि उन्होंने नियुक्ति पत्र लेने हेतु अपना आंचल ही फैला दिया, मानो मुट्ठी में वो खुशखबरी नहीं संभल सकती थी।
मैं इस तथ्य का प्रतिपादन नहीं करना चाहता कि हर डाकिया बुरा ही होता है या अच्छा ही होता है। पर यह सच है कि ‘‘डाकिया‘‘ भारतीय सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी है। डाकिया द्वारा डाक लाना, पत्रों का बेसब्री से इंतजार, डाकिया से ही पत्र पढ़वाकर उसका जवाब लिखवाना इत्यादि तमाम महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आप डाकिये के रहन-सहन, वेश-भूषा एवं वेतन पर मत जाइये, क्योंकि उसके परिचित सभी तबके के लोग हैं। कभी-कभी जो काम बड़े अधिकारी भी नहीं करा पाते वह डाकिया चंद मिनटों में करा देता है। कारण डाक विभाग का वह सबसे मुखर चेहरा है। जहाँ कई अन्य देशों ने होम-टू-होम डिलीवरी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाये हैं, या इसे सुविधा-शुल्क से जोड़ दिया है, वहीं भारतीय डाकिया आज भी देश के हर होने में स्थित गाँव में निःशुल्क अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है।
जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया। कल तक लोग थके-हारे धूप, सर्दी व बरसात में चले आ रहे डाकिये को कम से कम एक गिलास पानी तो पूछते थे, पर आज की पीढ़ी डाकिये को एक हरकारा मात्र समझकर पत्र लेने के तत्काल बाद दरवाजा धड़ाम से बन्द कर कर लेती है, फिर भावनात्मकता व आत्मीयता कहाँ? कहां गया वह अपनापन जब डाकिया चीजों को ढोने वाला हरकारा मात्र न मानकर एक ही थैले में सुख और दुःख दोनों को बांटने वाला दूत समझा जाता था?
वे बुजुर्ग व्यक्ति मेरे पास लम्बे समय तक बैठकर अपनी व्यथा सुनाते रहे और मैंने उनकी शिकायत के निवारण का भरोसा भी दिलाया, पर तब तक मेरा मनोमस्तिष्क ऊपर व्यक्त की गई भावनाओं में विचरण कर चुका था।
Friday, June 26, 2009
उ0 प्र0 परिमंडल डाक कैरम प्रतियोगिता संपन्न
उ0 प्र0 परिमंडल डाक कैरम प्रतियोगिता का आयोजन कानपुर जी0पी0ओ0 भवन में 24-25 जून 2009 को संपन्न हुआ। इस प्रतियोगिता में उ0 प्र0 के विभिन्न जनपदों के कुल 26 खिलाड़ियों ने भाग लिया। प्रतियोगिता का उद्घाटन कानपुर रीजन के पोस्टमास्टर जनरल श्री सीताराम मीना एवं समापन श्री कृष्ण कुमार यादव, चीफ पोस्टमास्टर कानपुर ने किया। इस अवसर पर विजेताओं को मुख्य अतिथि के रूप में चीफ पोस्टमास्टर श्री कृष्ण कुमार यादव ने पुरस्कृत किया। इसमें प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पुरस्कार हेतु श्री मोहम्मद ओवेश (नोयडा मुख्य डाकघर), श्री के0एस0 नेगी, श्री वी0जे0 केवट (निदेशक डाक लेखा, लखनऊ) व सांत्वना पुरस्कार श्री शेखर कुमार (निदेशक डाक लेखा, लखनऊ) एवं श्री इमरान खान (नोयडा मुख्य डाकघर) को प्रदान किया गया। उ0प्र0 डाक कैरम प्रतियोगिता के विजेता अक्टूबर में भोपाल में आयोजित होने वाली अखिल भारतीय डाक कैरम प्रतियोगिता में भाग लेंगे। गौरतलब है कि पिछले वर्ष अखिल भारतीय डाक कैरम प्रतियोगिता मैसूर में आयोजित हुई थी, जिसमें उत्तर प्रदेश के मो0 ओवेस एवं इमरान खान को डबल्स में गोल्ड मेडल मिला था। इन दोनों खिलाड़ियों ने भी इस प्रतियोगिता में भाग लिया। श्री कृष्ण कुमार यादव ने अपने संबोधन में खिलाड़ियों की हौसला आफजाई करते हुए कहा कि इस तरह के खेलकूद एवं वेलफेयर संबंधी गतिविधियों को डाक विभाग सदैव से प्रोत्साहन देता रहा है जिससे कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धि होती है।
Monday, June 22, 2009
गाँधी और नेहरू की ऐतिहासिक चिट्ठियाँ
चिट्ठियाँ-पत्रों का अपना इतिहास है। हर पत्र अपने अन्दर एक कहानी छुपाये हुए है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान और उसके बाद प्रतिष्ठित राजनेताओं द्वारा लिखे गये पत्र सिर्फ शब्द मात्र नहीं बल्कि इतिहास की धरोहर है। वक्त बीतने के साथ यह धरोहर बहुमूल्य होती गईं और यही कारण है कि आज इनकी नीलामी करोड़ों रूपये में होती है।
लंदन की मशहूर नीलामी संस्था क्रिस्टी 14 जुलाई, 2009 को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एवं प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की चिट्ठियाँ, पोस्टकार्ड और कुछ कागजात नीलाम करने जा रही है। इनमें उर्दू में लिखे वो तीन पत्र भी शामिल हैं जिन्हें गाँधी जी ने इस्लाम के विद्वान और तब की मशहूर हस्ती मौलाना अब्दुल बारी को लिखे थे। इन पत्रों में हिंदू-मुस्लिम संबंध, लखनऊ में सांप्रदायिक तनाव और गाँधी व बारी के बीच दोस्ती की चर्चा है। इस नीलामी में महात्मा गाँधी के उर्दू में हस्ताक्षर वाले दो पोस्टकार्ड भी शामिल हंै। ये पोस्टकार्ड उर्दू के कवि हामिदउल्ला अफसर को भेजे गए थे। इसी क्रम में नेहरू जी के हस्ताक्षर वाले 29 पत्रों की एक श्रृंखला भी नीलाम की जाएगी। नेहरू जी के इन पत्रों में कश्मीर मुद्दा, साराभाई के राजनीतिक अभियानों, देश के विभाजन के बाद अपने घर से विस्थापित हुए मुसलमानों का पुनर्वास और दिल्ली में घरविहीन बच्चों के लिए शुरू की गई मानवीय परियोजना की चर्चा है। 3 अगस्त, 1953 को लिखे एक पत्र में नेहरू जी ने बताया है कि वह हर कीमत पर अपने निर्णय के अनुसार काम करेंगे। उन्होंने लिखा है- जो हो रहा है उसका कश्मीर में ही नहीं, पूरे भारत और पाकिस्तान में क्या परिणाम होने वाला है, इसके बारे में मैं शायद आपसे ज्यादा बेहतर ढंग से जानता हूँ। यह पत्र कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को हटाए जाने से पहले लिखा गया है। निश्चिततः तत्कालीन इतिहास और परिवेश को सहेजे हुए ये पत्र न सिर्फ अमूल्य विरासत हैं बल्कि हमारी धरोहर भी हैं।
लंदन की मशहूर नीलामी संस्था क्रिस्टी 14 जुलाई, 2009 को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी एवं प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की चिट्ठियाँ, पोस्टकार्ड और कुछ कागजात नीलाम करने जा रही है। इनमें उर्दू में लिखे वो तीन पत्र भी शामिल हैं जिन्हें गाँधी जी ने इस्लाम के विद्वान और तब की मशहूर हस्ती मौलाना अब्दुल बारी को लिखे थे। इन पत्रों में हिंदू-मुस्लिम संबंध, लखनऊ में सांप्रदायिक तनाव और गाँधी व बारी के बीच दोस्ती की चर्चा है। इस नीलामी में महात्मा गाँधी के उर्दू में हस्ताक्षर वाले दो पोस्टकार्ड भी शामिल हंै। ये पोस्टकार्ड उर्दू के कवि हामिदउल्ला अफसर को भेजे गए थे। इसी क्रम में नेहरू जी के हस्ताक्षर वाले 29 पत्रों की एक श्रृंखला भी नीलाम की जाएगी। नेहरू जी के इन पत्रों में कश्मीर मुद्दा, साराभाई के राजनीतिक अभियानों, देश के विभाजन के बाद अपने घर से विस्थापित हुए मुसलमानों का पुनर्वास और दिल्ली में घरविहीन बच्चों के लिए शुरू की गई मानवीय परियोजना की चर्चा है। 3 अगस्त, 1953 को लिखे एक पत्र में नेहरू जी ने बताया है कि वह हर कीमत पर अपने निर्णय के अनुसार काम करेंगे। उन्होंने लिखा है- जो हो रहा है उसका कश्मीर में ही नहीं, पूरे भारत और पाकिस्तान में क्या परिणाम होने वाला है, इसके बारे में मैं शायद आपसे ज्यादा बेहतर ढंग से जानता हूँ। यह पत्र कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को हटाए जाने से पहले लिखा गया है। निश्चिततः तत्कालीन इतिहास और परिवेश को सहेजे हुए ये पत्र न सिर्फ अमूल्य विरासत हैं बल्कि हमारी धरोहर भी हैं।
Tuesday, June 16, 2009
डाक टिकट संग्रहः एक लाभप्रद शौक
डाक टिकट संग्रह केवल एक शौक ही नहीं बल्कि एक ज्ञानवर्द्धक व लाभप्रद मनोरंजन भी है। सामान्यतः डाक टिकट एक छोटा सा कागज का टुकड़ा दिखता है, पर इसका महत्व और कीमत दोनों ही इससे काफी ज्यादा है। डाक टिकट किसी भी राष्ट्र की सभ्यता, संस्कृति एवं विरासत के प्रतिबिम्ब हैं जिसके माध्यम से वहाँ के इतिहास, कला, विज्ञान, व्यक्तित्व, वनस्पति, जीव-जन्तु, राजनयिक सम्बन्ध एवं जनजीवन से जुडे़ विभिन्न पहलुओं की जानकारी मिलती है। मन को मोह लेने वाली जीवन शक्ति से भरपूर डाक टिकटों का संकलन लोगों के सांस्कृतिक लगाव, विविधता एवं सुरूचिपूर्ण चयन का भी परिचायक है। रंग-बिरंगे डाक टिकटों का संग्रह करने वाले लोग जहाँ इस शौक के माध्यम से परस्पर मित्रता में बँधकर सम्बन्धों को नया आयाम देते हैं वहीं इसके व्यवहारिक पहलुओं का भी बखूबी इस्तेमाल करते हैं। मसलन रंग-बिरंगे टिकटों से जहाँ खूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड बनाये जा सकते हैं वहीं इनकी खूबसूरती को फ्रेम में भी कैद किया जा सकता है। बचपन से ही बच्चों को फिलेटली के प्रति उत्साहित कर उनको अपनी संस्कृति, विरासत एवम् जनजीवन से जुड़े अन्य पहलुओं के बारे में मनोरंजक रूप से बताया जा सकता है।
डाक-टिकटों के संकलन का सबसे आसान तरीका ‘फिलेटलिक जमा खाता योजना’ है। जिसके तहत न्यूनतम रूपये 200/- जमा करके खाता खोला जा सकता है और भारतीय डाक विभाग देय मूल्य के बराबर रंगीन डाक टिकट, प्रथम दिवस आवरण और विवरणिका खाताधारक के पते पर हर माह बिना किसी अतिरिक्त मूल्य के पहुँचाता है। अपने किसी खास रिश्तेदार या मित्र को सरप्राइज गिट देने के लिए भी फिलेटलिक जमा खाता एक अनूठी चीज है और घर बैठे-बैठे खूबसूरत डाक-टिकट पाने वाला वह रिश्तेदार/दोस्त भी अचरज में पड़ जायेगा कि उस पर इतनी खूबसूरत मेहरबानी करने वाला शख्स कौन हो सकता है? इसके अलावा डाक विभाग वर्ष भर में जारी सभी टिकटों अथवा किसी थीम विशेष के डाक-टिकटों को समेटकर एक विशेष ‘स्टैम्प कलेक्टर्स पैक’ जारी करता है जो आज की विविधतापूर्ण दुनिया में एक अनूठा उपहार भी हो सकता है। और तो और, डाक-विभाग द्वारा सन् 1999 से प्रति वर्ष आयोजित ‘डाक टिकट डिजाइन प्रतियोगिता’ के विजेता की डिजाइन को अगले बाल-दिवस पर डाक-टिकट के रूप में जारी किया जाता है। इसी प्रकार 1998 से भारतीय डाक द्वारा आयोजित ‘डाक टिकट लोकप्रियता मतदान’ में प्रति वर्ष भाग लेकर सर्वोत्तम डाक-टिकटों का चुनाव किया जा सकता है।
फिलेटली को यूँ ही शौकों का राजा नहीं कहा जाता, वस्तुतः यह चीज ही ऐसी है। एक तरफ फिलेटली के माध्यम से अपनी सभ्यता और संस्कृति के गुजरे वक्त को आईने में देखा जा सकता है, वहीं इस नन्हें राजदूत का हाथ पकड़ कर नित नई-नई बातें भी सीखने को मिलती हैं। निश्चिततः आज के व्यस्ततम जीवन एवम् प्रतिस्पर्धात्मक युग में फिलेटली से बढ़कर कोई भी रोचक और ज्ञानवर्द्धक शौक नहीं हो सकता। व्यक्तित्व परिमार्जन के साथ-साथ यह ज्ञान के भण्डार में भी वृद्धि करता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी0 रूजवेल्ट ने डाक-टिकट संग्रह के सम्बन्ध में कहा था- “The best thing about stamp collecting is that the enthusiasm which it arouses in youth increases as the years pass. It dispels boredom, enlarges our vision, broadens our knowledge and in innumerable ways enriches our life. I recommend stamp collecting because I really believe that it makes one a better citizen.”
डाक-टिकटों के संकलन का सबसे आसान तरीका ‘फिलेटलिक जमा खाता योजना’ है। जिसके तहत न्यूनतम रूपये 200/- जमा करके खाता खोला जा सकता है और भारतीय डाक विभाग देय मूल्य के बराबर रंगीन डाक टिकट, प्रथम दिवस आवरण और विवरणिका खाताधारक के पते पर हर माह बिना किसी अतिरिक्त मूल्य के पहुँचाता है। अपने किसी खास रिश्तेदार या मित्र को सरप्राइज गिट देने के लिए भी फिलेटलिक जमा खाता एक अनूठी चीज है और घर बैठे-बैठे खूबसूरत डाक-टिकट पाने वाला वह रिश्तेदार/दोस्त भी अचरज में पड़ जायेगा कि उस पर इतनी खूबसूरत मेहरबानी करने वाला शख्स कौन हो सकता है? इसके अलावा डाक विभाग वर्ष भर में जारी सभी टिकटों अथवा किसी थीम विशेष के डाक-टिकटों को समेटकर एक विशेष ‘स्टैम्प कलेक्टर्स पैक’ जारी करता है जो आज की विविधतापूर्ण दुनिया में एक अनूठा उपहार भी हो सकता है। और तो और, डाक-विभाग द्वारा सन् 1999 से प्रति वर्ष आयोजित ‘डाक टिकट डिजाइन प्रतियोगिता’ के विजेता की डिजाइन को अगले बाल-दिवस पर डाक-टिकट के रूप में जारी किया जाता है। इसी प्रकार 1998 से भारतीय डाक द्वारा आयोजित ‘डाक टिकट लोकप्रियता मतदान’ में प्रति वर्ष भाग लेकर सर्वोत्तम डाक-टिकटों का चुनाव किया जा सकता है।
फिलेटली को यूँ ही शौकों का राजा नहीं कहा जाता, वस्तुतः यह चीज ही ऐसी है। एक तरफ फिलेटली के माध्यम से अपनी सभ्यता और संस्कृति के गुजरे वक्त को आईने में देखा जा सकता है, वहीं इस नन्हें राजदूत का हाथ पकड़ कर नित नई-नई बातें भी सीखने को मिलती हैं। निश्चिततः आज के व्यस्ततम जीवन एवम् प्रतिस्पर्धात्मक युग में फिलेटली से बढ़कर कोई भी रोचक और ज्ञानवर्द्धक शौक नहीं हो सकता। व्यक्तित्व परिमार्जन के साथ-साथ यह ज्ञान के भण्डार में भी वृद्धि करता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डी0 रूजवेल्ट ने डाक-टिकट संग्रह के सम्बन्ध में कहा था- “The best thing about stamp collecting is that the enthusiasm which it arouses in youth increases as the years pass. It dispels boredom, enlarges our vision, broadens our knowledge and in innumerable ways enriches our life. I recommend stamp collecting because I really believe that it makes one a better citizen.”
Sunday, June 14, 2009
डाक टिकट संग्रह हेतु जरूरी बातें
आज विश्व के तमाम देशों द्वारा विभिन्न विषय वस्तुओं पर डाक टिकट जारी किये जा रहे हैं। सभी डाक टिकटों का संकलन न तो सम्भव है व न ही व्यावहारिक ही। डाक टिकट संग्रह हेतु जरूरी है कि किसी खास विषयवस्तु में या खास देश या क्षेत्र के डाक टिकट संग्रह करने में अपनी रूचि के अनुसार संग्रह किया जाय। डाक टिकट संग्रह का सबसे आसान तरीका प्राप्त पत्रों पर लगे डाक टिकट हैं, जिनकी अपने मित्रों से अदला-बदली भी की जा सकती है। आवरण पर से डाक टिकट को उखाड़ने या छीलने की कोशिश न करें, वरन् लिफाफे से टिकट वाला हिस्सा थोड़ा हाशिया देकर काट लें। डाक टिकटों को सहेज कर रखने हेतु बाजार में एलबम भी मिलते हैं। डाक टिकटों को एलबम में लगाने हेतु कब्जा व चिमटी का प्रयोग करना चाहिए। डाक टिकट के आरोपण में गोंद का प्रयोग न करें क्योंकि गोंद हमेशा के लिये आपके डाक टिकटों को क्षतिग्रस्त कर देगा। कब्जे (कार्नस) छोटे पतले कागज के बने होते हैं जिनके एक ओर गोंद लगा होता है। डाक टिकट को पकड़ने के लिए चिमटी का इस्तेमाल करें, अंगुलियों से डाक टिकट मैला हो जाने की संभावना रहती है।
डाक-टिकटों का आरोपण करने से पहले अपने संग्रह को छाँट लें। क्षतिग्रस्त टिकटों को निकाल फेंकने में संकोच नहीं करें। अच्छे डाक-टिकटों को ठण्डे पानी के बर्तन में रखें और कुछ मिनटों के बाद कागज से धीरे-धीरे अलग कर लें। भिगोते समय कुछ डाक-टिकटों पर स्याही फैल सकती है, ऐसे डाक-टिकटों को अलग से भिगोना चाहिये। छुड़ाए गये डाक-टिकटों को चिमटी से उठा लें और उन्हें साफ कागज पर मुँह के बल सूखने के लिये रख दें। जैसे-जैसे वे सूखेंगे, कभी-कभी उनमें संकुचन आता जायेगा। सूखने के बाद उन्हें एक पुस्तक में कुछ घण्टों के लिये रख दें। अपने डाक-टिकटों को छाँट लंे और जैसे आप आरोपण करना चाहते हैं वैसे ही पृष्ठों पर लगा दें। कब्जा का करीब एक तिहाई हिस्सा मोड़ लें और उसकी नोक को भिगों लें व इसे डाक-टिकट की पीठ पर जोड़ दें। डाक-टिकट पर कब्जा जड़ने के बाद कब्जे के दूसरे ओर को हल्का से भिगो दें और डाक-टिकट को पृष्ठ के उचित ‘एलबम’ के पृष्ठ ग्राफ-पेपर, जो समान छोटे-छोटे वर्गों में विभक्त होते हैं पर आप डाक-टिकटों को आसानी से अंतर पर रख सकते हैं। प्रत्येक टिकट पर एक छोटा सा विवरण भी लिखना अच्छा होगा। डाक-टिकटों के संग्रह के लिये विवरण तैयार करना इस शौक का बड़ा ही आनन्ददायी पहलू है। विवरण में डाक टिकट के जारी होने की तारीख, अवसर और कलाकार का नाम इत्यादि लिखा जा सकता है। खाका तैयार करने में यह ध्यान रखें कि पृष्ठ डाक-टिकट से या विवरण से ज्यादा भर न जाएँ । दोनों का संतुलन रहना चाहिये।
डाक-टिकटों का आरोपण करने से पहले अपने संग्रह को छाँट लें। क्षतिग्रस्त टिकटों को निकाल फेंकने में संकोच नहीं करें। अच्छे डाक-टिकटों को ठण्डे पानी के बर्तन में रखें और कुछ मिनटों के बाद कागज से धीरे-धीरे अलग कर लें। भिगोते समय कुछ डाक-टिकटों पर स्याही फैल सकती है, ऐसे डाक-टिकटों को अलग से भिगोना चाहिये। छुड़ाए गये डाक-टिकटों को चिमटी से उठा लें और उन्हें साफ कागज पर मुँह के बल सूखने के लिये रख दें। जैसे-जैसे वे सूखेंगे, कभी-कभी उनमें संकुचन आता जायेगा। सूखने के बाद उन्हें एक पुस्तक में कुछ घण्टों के लिये रख दें। अपने डाक-टिकटों को छाँट लंे और जैसे आप आरोपण करना चाहते हैं वैसे ही पृष्ठों पर लगा दें। कब्जा का करीब एक तिहाई हिस्सा मोड़ लें और उसकी नोक को भिगों लें व इसे डाक-टिकट की पीठ पर जोड़ दें। डाक-टिकट पर कब्जा जड़ने के बाद कब्जे के दूसरे ओर को हल्का से भिगो दें और डाक-टिकट को पृष्ठ के उचित ‘एलबम’ के पृष्ठ ग्राफ-पेपर, जो समान छोटे-छोटे वर्गों में विभक्त होते हैं पर आप डाक-टिकटों को आसानी से अंतर पर रख सकते हैं। प्रत्येक टिकट पर एक छोटा सा विवरण भी लिखना अच्छा होगा। डाक-टिकटों के संग्रह के लिये विवरण तैयार करना इस शौक का बड़ा ही आनन्ददायी पहलू है। विवरण में डाक टिकट के जारी होने की तारीख, अवसर और कलाकार का नाम इत्यादि लिखा जा सकता है। खाका तैयार करने में यह ध्यान रखें कि पृष्ठ डाक-टिकट से या विवरण से ज्यादा भर न जाएँ । दोनों का संतुलन रहना चाहिये।