Thursday, April 29, 2010

डाक-तार नहीं मात्र डाक विभाग

अक्सर लोगों को कहते सुनता हूँ कि पोस्ट एंड टेलीग्राफ डिपार्टमेंट. पुराने लोगों कि तो छोडिये, नए लोग भी अभी यही जुमला दुहराते हैं. जानकारी के लिए बता दूँ कि अब पोस्ट एंड टेलीग्राफ डिपार्टमेंट पृथक हो चुके हैं. 1984 में डाक व दूरसंचार विभागों के पृथक्करण के साथ ही टेलीग्राफ सेवाएँ दूरसंचार विभाग के साथ जुड़ गईं. अब डाकघरों से टेलीग्राम नहीं होता बल्कि दूरसंचार विभाग के कार्यालयों से होता है. अब पोस्ट एंड टेलीग्राफ डिपार्टमेंट नहीं बल्कि सिर्फ पोस्ट अर्थात डाक विभाग रहा.

वर्तमान में केंद्र सरकार के अधीन संचार मंत्रालय के अधीन डाक, दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी- कुल तीन विभाग हैं. इन तीनों विभागों के अपने-अपने सचिव/ CMD होते हैं, जो कि उसी विभाग से होते हैं. मसलन डाक विभाग का सचिव कोई IAS इत्यादि नहीं बल्कि भारतीय डाक सेवा (Indian Postal Services) का वरिष्ठतम अधिकारी ही होता है. डाक भवन संसद मार्ग, नई दिल्ली में स्थित है. सिविल सर्विस डे पर प्रधानमंत्री ने डाक विभाग कि सचिव को विभाग के उत्कृष्ट कार्यों के लिए सम्मानित भी किया है. डाक विभाग की वेबसाईट पर भी तमाम जानकारियाँ ली जा सकती हैं. आशा करता हूँ कि इस पोस्ट के बाद यह भ्रम टूट जाना चाहिए कि डाक एवं तार (P&T) जैसी कोई चीज अब अस्तित्व में है. अब मात्र भारतीय डाक विभाग है और टेलीग्राम सेवाएँ दूरसंचार विभाग के साथ जुड़ चुकी हैं !!

Wednesday, April 21, 2010

युग-युग जियो डाकिया भैया

युग-युग जियो डाकिया भैया, सांझ सबेरे इहै मनाइत है.....
हम गंवई के रहवैया
पाग लपेटे, छतरी ताने, कांधे पर चमरौधा झोला,
लिए हाथ मा कलम दवाती, मेघदूत पर मानस चोला
सावन हरे न सूखे कातिक, एकै धुन से सदा चलैया......

शादी, गमी, मनौती, मेला, बारहमासी रेला पेला
पूत कमासुत की गठरी के बल पर, फैला जाल अकेला
गांव सहर के बीच तुहीं एक डोर, तुंही मरजाद रखवैया
थानेदार, तिलंगा, चैकीदार, सिपाही तहसीलन के
क्रुकअमीन गिरदावर आवत, लोटत नागिन छातिन पै
तुहैं देख कै फूलत छाती, नयन जुड़ात डाकिया भैया
युग-युग जियो डाकिया भैया.......

अनिल मोहन

Sunday, April 18, 2010

पत्रों का घटता चलन एक गंभीर सांस्कृतिक खतरा- महाश्वेता देवी


भारतीय डाक विभाग के 150 वर्ष पूरे होने पर ‘भारतीय डाक : सदियों का सफरनामा’ नामक पुस्तक लिखकर चर्चा में आए अरविंद कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं. अरविन्द जी से जब पहली बार मेरी बातचीत हुई थी तो वे हरिभूमि से जुड़े हुए थे, फ़िलहाल रेल मंत्रालय की मैग्जीन ‘भारतीय रेल’ के संपादकीय सलाहकार के रूप में दिल्ली में कार्यरत हैं। ‘भारतीय डाक : सदियों का सफरनामा’ पुस्तक में जिस आत्मीयता के साथ उन्होंने डाक से जुड़े विभिन्न पहलुओं की चर्चा की है, वह काबिले-तारीफ है. यहाँ तक कि दैनिक पत्र हिंदुस्तान में प्रत्येक रविवार को लिखे जाने वाले अपने स्तम्भ 'परख' में इसकी चर्चा मशहूर लेखिका और सोशल एक्टिविस्ट महाश्वेता देवी ने "अविराम चलने वाली यात्रा'' शीर्षक से की. (2 अगस्त, 2009). इसे हम यहाँ साभार प्रस्तुत कर रहे हैं !!

(यहाँ यह उल्लेख करना जरुरी है कि महाश्वेता देवी ने भी अपने आरंभिक वर्षों में डाक विभाग में नौकरी की थी)

Wednesday, April 14, 2010

भारत में अन्तराष्ट्रीय डाक टिकट (फिलेटलिक) प्रदर्शनी का आयोजन

'INDIPEX-2011' का आयोजन 12-18 फरवरी, 2011 के मध्य प्रगति मैदान, दिल्ली में किया जा रहा है. भारत में पहली अन्तराष्ट्रीय डाक टिकट (फिलेटलिक) प्रदर्शनी का आयोजन 1954 में डाक टिकटों की शताब्दी वर्ष में हुआ था. इस डाक टिकट प्रदर्शनी का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि भारत ने ही दुनिया में सर्वप्रथम इलाहबाद से नैनी के मध्य प्रतीकात्मक रूप में एयर-मेल सेवा आरंभ की. यह ऐतिहासिक घटना 18 फरवरी 1911 को इलाहाबाद में हुई। अर्थात जिस दिन 'INDIPEX-2011' के आयोजन का अंतिम दिन होगा, उसी दिन इस ऐतिहासिक घटना के 100 साल भी पूरे हो जायेंगें. 'INDIPEX-2011' के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए इन लिंकों पर जाएँ-
'INDIPEX-2011'
'INDIPEX-2011'

Monday, April 12, 2010

भारत में सबसे पहले चिट्ठियों ने भरी थी हवाई उड़ान

डाक सेवा का विचार सबसे पहले ब्रिटेन में और हवाई जहाज का विचार सबसे पहले अमेरिका में राइट बंधुओं ने दिया वहीं चिट्ठियों ने विश्व में सबसे पहले भारत में हवाई उड़ान भरी। यह ऐतिहासिक घटना 18 फरवरी 1911 को इलाहाबाद में हुई। संयोग से उस साल कुंभ का मेला भी लगा था। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार उस दिन एक लाख से अधिक लोगों ने इस घटना को देखा था जब एक विशेष विमान ने शाम को साढ़े पांच बजे यमुना नदी के किनारों से उड़ान भरी और वह नदी को पार करता हुआ 15 किलोमीटर का सफर तय कर नैनी जंक्शन के नजदीक उतरा जो इलाहाबाद के बाहरी इलाके में सेंट्रल जेल के नजदीक था। आयोजन स्थल एक कृषि एवं व्यापार मेला था जो नदी के किनारे लगा था और उसका नाम ‘यूपी एक्जीबिशन’ था। इस प्रदर्शनी में दो उड़ान मशीनों का प्रदर्शन किया गया था। विमान का आयात कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने किया था। इसके कलपुर्जे अलग अलग थे जिन्हें आम लोगों की मौजूदगी में प्रदर्शनी स्थल पर जोड़ा गया।

आंकड़ों के अनुसार कर्नल वाई विंधाम ने पहली बार हवाई मार्ग से कुछ मेल बैग भेजने के लिए डाक अधिकारियों से संपर्क किया जिस पर उस समय के डाक प्रमुख ने अपनी सहर्ष स्वीकृति दे दी। मेल बैग पर ‘पहली हवाई डाक’ और ‘उत्तर प्रदेश प्रदर्शनी, इलाहाबाद’ लिखा था। इस पर एक विमान का भी चित्र प्रकाशित किया गया था। इस पर पारंपरिक काली स्याही की जगह मैजेंटा स्याही का उपयोग किया गया था। आयोजक इसके वजन को लेकर बहुत चिंतित थे, जो आसानी से विमान में ले जाया जा सके। प्रत्येक पत्र के वजन को लेकर भी प्रतिबंध लगाया गया था और सावधानीपूर्वक की गई गणना के बाद सिर्फ 6,500 पत्रों को ले जाने की अनुमति दी गई थी। विमान को अपने गंतव्य तक पहुंचने में 13 मिनट का समय लगा। विमान को फ्रेंच पायलट मोनसियर हेनरी पिक्वेट ने उड़ाया।

(चित्र में : भारतीय डाक द्वारा वर्तमान में प्रयुक्त फ्रेटर)

Saturday, April 10, 2010

क्या-क्या न कराये ये डाक टिकट संग्रह का शौक


हम सभी ने बचपन मे ढेर सारी शरारतें की होंगी, अब चिट्ठाकार है तो निसंदेह बचपन(अभी भी कौन से कम है) मे खुराफाती रहे ही होंगे। नयी नयी चीजें ट्राई करना और नए नए शौंक पालना किसे नही पसन्द? तो आइए जनाब आज बात करते है बचपन के कुछ खुराफाती शौंक की। इसी बहाने हम सभी अपने अपने बचपन मे ताक झांक कर लेंगे।

डाकटिकटों का संग्रह ये शौंक अक्सर सभी बच्चों मे पाया जाता है। अब पुराने जमाने मे चिट्ठियों का बहुत चलन था, इसलिए डाक टिकटों का संग्रह कोई महंगा शौंक नही था। पहले पहल तो हमने अपने घर मे आने वाले सारे पत्रों की डाक टिकटों का संग्रह करना शुरु किया। हम पत्रों को पाते ही, सफाई से उसकी डाक टिकट निकाल लिया करते थे, धीरे धीरे हमे डाक टिकट निकालने मे अच्छी खासी काफी महारत हासिल होने लगी। सबसे पहले हमने रामादीन पोस्टमैन को मोहरा बनाया। बस ठाकुर के होटल पर बिठाकर एक कटिंग चाय पिलाने मे काम बन जाता था। जब तक रामादीन चाचा चाय और समोसे पर हाथ साफ़ करते , हम लोग डाकटिकटों पर हाथ साफ कर देते।

थोड़े दिनो मे रामादीन ने भी डिमांड करनी शुरु कर दी , बोले कटिंग चाय और बांसी समोसे से काम नही चलेगा, बोले आधा पाव दूध वाली चाय और मिठाई खिलाओ। हम लोगों ने कास्ट बेनिफिट एनालिसिस किया, और यह निश्चय किया कि हम रामादीन की वामपंथियो टाइप ब्लैकमेलिंग के आगे नही झुकेंगे और कांग्रेस की तरह अपने बलबूते मैदान मे उतरेंगे। इस तरह से हम लोगों ने, आत्मनिर्भर होकर मोहल्ले की चिट्ठियों को निशाना बनाना शुरु कर दिया।

हमारे लिए घर के बाहर लगे चिट्ठी वाले डाक बक्से खोलना भी कोई बड़ी बात नही रही थी। अब वो ज्ञान ही क्या जो अपना प्रकाश दूर दूर तक ना फैलाए, सो इस सूक्ति को चरितार्थ करते हुए हमने अपनी इस महारत को गली मौहल्ले के बच्चों तक पहुँचाया। लोगों को अब पत्र बिना डाक टिकट के मिलने लगे थे, पहले पहल तो लोगों को पता ही नही चलता, लेकिन धीरे धीरे कुछ शक्की लोगों ने हम लोगों की निगरानी शुरु कर दी थी। एक दो बार पकड़े भी गए, सूते भी गए, अब वो शौंक ही क्या, जो दबाने से दब जाए। हमारा यह शौंक जारी रहा, धीरे धीरे लोगों ने डाक टिकटों की परवाह करनी छोड़ दी।

अगली समस्या थी संग्रह करने की। हम लोग एक डब्बे मे डाक टिकटे संग्रहित करते, लेकिन टिल्लू और मैने एक दूसरे पर चोरी का इल्जाम लगाया। जो कि काफी हद तक सही इल्जाम था। काफी मुहाँचाई और हाथापाई के बाद नतीजा निकला कि हम लोग अपनी अपनी स्कूल की किताबों और कापियों मे टिकट सम्भालकर रखेंगे। थोड़े दिनो तक तो हम किताबों के अन्दर ही डाकटिकट संग्रहित कर लेते थे, लेकिन परेशानी ये होती थी, स्कूल मे दोस्त यार डाकटिकट छुवा देते, अब हमारी मेहनत पर कोई हाथ साफ करे, ऐसा कैसे हो सकता था। सो हम लोगों ने डाक टिकट संग्रह करने के लिए एक फाइल खरीदने का निश्चय किया। अब ये शौंक महंगा लगने लगा था।

अपने शौंक को और बेहतर बनाने के लिए हम हैड पोस्ट ऑफिस वाले पोस्टमास्टर से मिले, उसने हमको और नयी नयी कहानी समझा दी। बोला इस तरह का डाक टिकट संग्रह कुछ मायने नही रखता, तुम लोग फर्स्ट डे स्टैम्प का संग्रह करो, यानि जिस भी दिन कोई नयी डाक टिकट जारी हो (वैसे भी भारत मे इतने राजनेता वगैरहा है, किसी ना किसी की जन्म, मृत्यू या कोई एचीवमेंट डे अक्सर हर दिन होता ही रहता है।) पोस्ट ऑफिस मे आओ, फर्स्ट डे स्टैम्प कार्ड खरीदो, डाक टिकट लगाओ,स्टैम्प लगवाओ और उसको संग्रहित करो। मामला खर्चीला था, लेकिन अब क्या करें, जानकारी कम थी, इसलिए इनकी नसीहत को भी अपनाना पड़ा।

धीरे धीरे देशी डाकटिकटो से मन भर गया तो हम विदेशी चिट्ठियों की डाक टिकटों पर हाथ साफ़ करने लगे। उस जमाने मे सोवियत संघ से किताबे आया करती थी, उस पर डाकटिकट हुआ करते थे। हम लोग वो डाकटिकट छुवा दिया करते थे। फिर एक दिन पता चला कि किदवई नगर मे एक दुकानदार बाकायदा विदेशी डाकटिकटों की बिक्री करता है। ब्रिटेन, रोमानिया, हंगरी, नामिबिया और ना जाने कौन कौन से देशों की नयी नयी डाकटिकटे देखने को मिली। हमने जब उसके सोर्स के बारे मे जाँच पड़ताल की तो हमे पता चला कि वो जनाब विदेशी डाकटिकटों की रिप्रिंटिग करके बेचते थे। चोर को मिले मोर, हम लोग हर हफ़्ते(जिस दिन जेबखर्च मिलता था) किदवई नगर जाकर, डाक टिकट खरीदेते, खरीदते क्या जी, चार खरीदते और आठ चुपचाप गायब कर लाते। इस तरह से चोर के घर चोरी का सिलसिला शुरु हुआ। धीरे धीरे दुकानदार को हम पर शक होने लगा और उसने हम लोगों की दुकान मे इंट्री ही बैन कर दी। अब वो खुद चोरी करता था तो सही था, हम लोग करते थे तो गलत, ये कहाँ का इन्साफ़ है। सही कहते है, चोर वही होता है जो पकड़ा जाता है। अब हमारी जेबखर्च का आधा हिस्सा कामिक्स मे और बाकी का हिस्सा डाक टिकटों मे खर्च (ईमानदारी से खरीदने में) होने लगा. आप भी अपनी बचपन की डाकटिकटों के संग्रह वाली कहानी छापना मत भूलना।

साभार : http://www.jitu.info/merapanna/?gtlang=sq

Wednesday, April 7, 2010

पत्रों पर आधारित फिल्म 'जैपनीज वाइफ'

पत्रों की दुनिया किसे नहीं भाती. फोन और एसएमएस के सूचना और संपर्क-सूत्र बनने के इस दौर में भी पत्र के जरिये अपनी भावनाएं व्यक्त करना लोग भूले नहीं हैं. तभी तो अभी भी पत्रों की दुनिया पर फ़िल्में बनती रहती हैं. पंकज उदास द्वारा नाम फिल्म में गाया गया गाना- चिट्ठी आई है हर किसी की जुबान पर चढ़ा था. हाल ही में ' वेलकम टू सज्जनपुर' फिल्म की थीम भी पत्र ही थे. अब मशहूर फिल्मकार अपर्णा सेन ने सूचना और भावभिव्यक्ति के इस सबसे पुराने माध्यम पत्र लेखन की थीम पर ' जैपनीज वाइफ' फिल्म का निर्माण किया है. यह फिल्म अंग्रेजी राइटर कुणाल बसु की शॉर्ट स्टोरी पर बेस्ड है। यह फिल्म अंग्रेजी और बांग्ला में बनी है।

फिल्म में नायक और नायिका पत्र-मित्र हैं। यह फिल्म सुंदरवन के टीचर स्नेहमोय और जापानी लडकी मियोग की अनूठी प्रेम कहानी पर आधारित है। ये दोनों पत्रों के जरिए एक दूसरे से मिलते हैं और दोनों में प्यार हो जाता है। और तो और दोनों पत्रों के माध्यम से शादी भी कर लेते हैं। सुन रहे हैं न, अभी तक नेट पर लोग शादियाँ कर लेते थे, अब पत्रों द्वारा. सबसे रोचक तो यह है कि पत्र-मित्रता द्वारा हुई उनकी शादी को 15 साल हो गए हैं, लेकिन उन्होंने एक दूसरे को देखा तक नहीं है। तो आप भी डाकिया बाबू के साथ इस फिल्म का लुत्फ़ उठाईयेगा और एक बार फिर से पत्रों कि दुनिया में पहुँच जाइएगा !!
(चित्र में फिल्म की नायिका राईमा सेन )

Thursday, April 1, 2010

जनगणना कार्य में पहली बार डाकिया बाबू

आज 1 अप्रैल से भारत में अब तक की सबसे विस्तृत व व्यापक जनगणना का कार्य आरंभ हो गया. दो चरणों में होने वाली इस जनगणना में पहली बार राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR) भी तैयार किया जायेगा, जिसके जरिये नागरिकों की व्यापक पहचान का डाटा-बेस तैयार किया जायेगा. इस बार 3 तरह के अलग-अलग फार्म तैयार किये गए हैं, जो कुल 16 भाषाओँ में होंगें और उनकी कुल संख्या 64 करोड़ से भी ज्यादा होगी. यह सामग्री प्रेस में छपने के बाद सीधे ही 17, 500 प्रभारी अधिकारीयों के पास पहुंचेगी. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जनगणना 1897 लगे कर्मचारियों की संख्या दुनिया के 82 देशों कि जनसंख्या से अधिक है. जाहिर है काम ज्यादा है तो जटिल भी है, फिर डाकिया बाबू किस दिन काम आयेगा. जी हाँ, इस बार पहली बार इन फार्मों और दूसरी सामग्री के वितरण के लिए डाक विभाग की सेवाएँ ली जा रही हैं, ताकि सारी सामग्री समय से सही व्यक्ति/अधिकारी के पास पहुँच जाएँ. चलिए इसी बहाने डाकिया बाबू भी इस महत्वपूर्ण अनुष्ठान का अंग बना. अब आप लोग भी तैयार हो जाइये इस अनुष्ठान में अपनी भागीदारी हेतु ताकि यह अच्छी तरह से निपट सके !!