यह मंदिर है राजस्थान के सवाई माधोपुर जनपद में रणथंभौर किले में स्थित त्रिनेत्र गणेशजी मंदिर। ई-मेल, व्हाट्सऐप और सोशल मीडिया के इस दौर में भी सवाई माधोपुर में स्थित खिलचीपुर शेरपुर शाखा डाकघर के डाकिये स्पीड पोस्ट, रजिस्टर्ड पोस्ट और साधारण डाक के रूप में प्राप्त इन निमंत्रण रूपी पत्रों को दो से तीन बोरों में भरकर मंदिर के पते पर पहुँचाते हैं। इस मंदिर में जाने के लिए लगभग 1579 फीट ऊँचाई पर भगवान गणेश के दर्शन हेतु जाना पड़ता है। मंदिर में ये पत्र पुजारियों को दे दिए जाते हैं और वे इन्हें भगवान गणेश के चरणों में अर्पित कर देते हैं। इसके बाद कुछ पत्र गणेशजी को दिन में दो बार पढ़कर सुनाए जाते हैं।
कहते हैं कि यहाँ जो भी अपना दुख बताता है, गणेश जी उसे दूर करते हैं। ऐसे में लोग पत्रों के जरिए अपनी मन्नत भी भेजते हैं जो पूरी हो जाती है। यहाँ जंगल में दुर्गम पहाड़ी पर चलकर हर रोज डाकिया हजारों कार्ड्स और पत्र लाता है। पुजारी लोगों की व्यथा और मन्नत के साथ उनके निमंत्रण को पढ़कर गणेशजी को सुनाते हैं और उनके चरणों में समर्पित कर देते हैं। यह मंदिर प्रकृति व आस्था का अनूठा संगम है। भारत के कोने-कोने से लाखों की तादाद में दर्शनार्थी यहाँ पर भगवान त्रिनेत्र गणेश जी के दर्शन हेतु आते हैं और कई मनौतियां माँगते हैं, जिन्हें भगवान त्रिनेत्र गणेश पूरी करते हैं।
भगवान श्रीगणेश के इस मंदिर का निर्माण 10वीं सदी में रणथंभौर के राजा हम्मीरदेव चौहान ने करवाया था, लेकिन मंदिर के अंदर भगवान गणेश की प्रतिमा स्वयंभू है। इतिहास में झाँकें तो राजा हम्मीरदेव चौहान व दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी का युद्ध 1299-1301 ईस्वी के बीच रणथम्भौर में हुआ। उस समय अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर के दुर्ग को चारों तरफ से घेर लिया था। नौ माह से भी अधिक समय तक रणथम्भौर दुर्ग चारों तरफ से मुगल सेना से घिरा हुआ होने के कारण दुर्ग में रसद सामग्री खत्म होने लगी। कहते हैं कि युद्ध के दौरान राजा के सपने में गणेशजी आए और उन्हें आशीर्वाद दिया। अंतत: राजा की युद्ध में विजय हुई और उन्होंने किले में मंदिर का निर्माण करवाया। किंवदंती के अनुसार भगवान राम ने जिस स्वयंभू मूर्ति की पूजा की थी उसी मूर्ति को हम्मीरदेव ने यहाँ पर प्रकट किया। कहते हैं कि भगवान राम ने लंका कूच करते समय इसी गणेश का अभिषेक कर पूजन किया था। अत: त्रेतायुग में यह प्रतिमा रणथम्भौर में स्वयंभू रूप में स्थापित हुई और लुप्त हो गई।
एक और मान्यता के अनुसार जब द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण का विवाह रूकमणी से हुआ था तब भगवान श्रीकृष्ण गलती से गणेश जी को बुलाना भूल गए जिससे भगवान गणेश नाराज हो गए और अपने मूषक को आदेश दिया की विशाल चूहों की सेना के साथ जाओ और कृष्ण के रथ के आगे सम्पूर्ण धरती में बिल खोद डालो। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण का रथ धरती में धँस गया और आगे नहीं बढ़ पाये। मूषकों के बताने पर भगवान श्रीकृष्ण को अपनी गलती का अहसास हुआ और रणथम्भौर स्थित जगह पर गणेश को लेने वापस आए, तब जाकर कृष्ण का विवाह सम्पन्न हुआ। तब से भगवान गणेश को विवाह व मांगलिक कार्यों में प्रथम आमंत्रित किया जाता है। यही कारण है कि रणथम्भौर गणेश को भारत का प्रथम गणेश कहते है।
भारत में चार स्वयंभू गणेश मंदिर माने जाते हैं, जिनमें रणथम्भौर स्थित त्रिनेत्र गणेश जी प्रथम है। इसकी विशेषता यह है कि इस मंदिर में भगवान गणेश त्रिनेत्र रूप में विराजमान हैं जिसमें तीसरा नेत्र ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। पूरी दुनिया में यह एक ही मंदिर है जहाँ भगवान गणेश अपने पूर्ण परिवार अर्थात अपनी पत्नी रिद्धि और सिद्धि और अपने पुत्र शुभ-लाभ के साथ विराजित हैं। भगवान गणेश के वाहन मूषक (चूहा) भी मंदिर में हैं। इस मंदिर के अलावा अन्य तीन स्वयंभू गणेश मंदिर, सिद्दपुर गणेश मंदिर गुजरात, अवंतिका गणेश मंदिर उज्जैन एवं सिद्दपुर सिहोर मंदिर मध्यप्रदेश में स्थित हैं । कहा जाता है कि महाराजा विक्रमादित्य जिन्होंने विक्रम संवत् की गणना शुरू की प्रत्येक बुधवार उज्जैन से चलकर रणथम्भौर स्थित त्रिनेत्र गणेश जी के दर्शन हेतु नियमित जाते थे, उन्होंने ही उन्हें स्वप्न दर्शन दे सिद्दपुर सीहोर के गणेश जी की स्थापना करवायी थी।
कहते हैं कि गणेश जी की ये मूर्ति तराशी हुई नहीं हैं बल्कि खुद-ब-खुद एक चट्टान के रूप में मिली है। गणेश जी के तीन नेत्र हैं। भारत में ये अपने आप में अनोखा मंदिर है। गजवंदनम् चितयम् में विनायक के तीसरे नेत्र का वर्णन किया गया है, लोक मान्यता है कि भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र उत्तराधिकारी स्वरूप पुत्र गणपति को सौंप दिया था और इस तरह महादेव की सारी शक्तियाँ गजानन में निहित हो गई। महागणपति षोड्श स्त्रौतमाला में विनायक के सौलह विग्रह स्वरूपों का वर्णन है। महागणपति अत्यंत विशिष्ट व भव्य है जो त्रिनेत्र धारण करते हैं, इस प्रकार ये माना जाता है कि रणथम्भौर के महागणपति का ही स्वरूप है। यही कारण है कि ऐसे में मुगल काल से ही लोगों में इस मंदिर के प्रति भारी आस्था थी। मुगलकाल में भी लोग यहाँ जाकर दर्शन करते और मांगलिक कार्यों में निमंत्रण भी देते थे। घुड़सवार यहाँ राजाओं के निमंत्रण लेकर आया करते थे। अंग्रेजों के जमाने में डाक व्यवस्था शुरू होने के बाद लोग घर बैठे निमंत्रण-पत्र और अपनी व्यथा पत्र के जरिए भेजने लगे।
- कृष्ण कुमार यादव @ डाकिया डाक लाया
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