Friday, April 20, 2012

ये ख़त है




ये ख़त है
जो कभी
तुमने लिखे थे
मुझको.

उसका अक्षर-अक्षर
तेरा अक्श बन
उभर आता है
आज भी
मेरे जेहन में
चाहे-अनचाहे.

क्योंकि
इन खतों में हैं
कुछ हँसते,
खिल-खिलाते पल,
कुछ सिसकते,
सहलाते पल.
बांटा था जिन्हें
हमने
आपस में
मिल-बैठ कर.

इन पलों में
आज भी
सिमटी है
तुमसे मिलने की चाह,
न मिल पाने का गम
दूर रहकर भी
पास होने का भ्रम
जो पलता रहा है,
बढ़ता रहा है
सदा
साथ-साथ

तेज होती
धडकनों के साथ
पलती है
प्यार की तपिश
जो देती है
झुलसने का अहसास.

ये सब सिलवटें हैं
शब्दों के घरौंदे
घरौंदा
जो घर हो गया है
बीती बातों का,
आशाओं का,
अरमानों का,
धड़कनों में छिपी
विवशता का,
बैचैनी का
टूटते-बनते रिश्तों का.

मेरे-तुम्हारे होने का
एक-दूसरे से अलग
एक-दूसरे के साथ
जीवनपर्यंत
एक सिलसिला बनकर.

- राजीव पुष्पराज
rajivpushpraj@gmail.com

5 comments:

kunwarji's said...

ह्रदय-स्पर्शी रचना...



कुँवर जी,

नीरज गोस्वामी said...

अनूठे शब्द और अद्भुत भाव...सुन्दर रचना...बधाई

नीरज

Shahroz said...

Wow...Adbhut.

Unknown said...

Beautiful Letter !!

Shyama said...

...दिल की बात कही. खूबसूरत रचना..बधाई.