Wednesday, January 13, 2010

चिट्ठी की गरमाहट एक बार फिर महसूस करें

अब फोन, मोबाइल, वीडियो कांफ्रेंसिंग, फैक्स, ई-मेल और कूरियर का ज़माना है। वे दिन गए, जब लोगों के मशहूर होते ही उनकी चिट्ठियों के संग्रह भी किताब के रूप में छप जाया करते थे। अब तो चिट्ठी लिखना-पढ़ना आउट ऑफ फैशन है तो डाकघर और उनके लाल डिब्बे भी कल की बात हो लिए, लेकिन याद कीजिए, वे भी क्या दिन थे, जब हर घर में डाकिये का, फौज से साल में एक बार महीने भर की छुट्टी पर आने वाले बीरन की तरह इंतज़ार होता था। डाकिया घर के एक सदस्य जैसा होता था। कोई भी नाराज़ हो जाए, डाकिया राजा को नाराज़ करने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता था। रक्षाबंधन पर बहनों के शगुन के 11 रुपये के मनीऑर्डर में से भी वह एक रुपया लेता था, लेता क्या था - दिए जाते थे... हंसकर... सरकार नाराज़ हो गए और चिट्ठी न लाए तो...

मेरे पिता आधे गांव की चिट्ठी लिखते थे और आधे की पढ़ते थे। दो कार्ड हमेशा सूती बंडी की जेब में रखते थे। पता नहीं, कब किसकी चिट्ठी लिखनी पड़ जाए। चिट्ठी लिखने पर कार्ड के पांच पैसे और लिखाई का एक ग्लास दूध तो मिलता ही था, दुनिया-जहान की दुआएं भीं। शहर गए तो हर घर से चिट्ठी जमा करके ले जाते थे डालने के लिए। लौटते थे तो जिस-जिसकी चिट्ठी डाकघर में पड़ी होती थीं, लेकर आते थे। लब्बोलुबाब यह कि चिट्ठी लाना-ले जाना पानी पिलाने से भी बड़ा पुण्य माना जाता था।

रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बुरी तरह से गुथे हुए डाक, डाकिया और डाकघर हमारी पीढ़ी ने देखे हैं। जाने-माने हिल स्टेशनों पर जिस तरह माल रोड या पर्वतीय शहरों में पलटन बाज़ार होते हैं, उसी तरह मैदान के हर शहर में गांधी रोड और डाकखाने वाली गली होती थीं... एक नहीं, कई-कई। नए डाकखाने वाली गली, पुराने डाकखाने वाली गली, बड़े डाकखाने वाली गली छोटे डाकखाने वाली गली। अब... सच बताइए, कितने साल पहले आप डाकघर गए थे।

साइंस बहुत आगे चला गया है - डाक टिकट, पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय और लिफाफों के लिए एटीएम जैसी मशीनें भी वहां लगवा दीजिए... सामाजिक संपर्क फिर ज़िदा हो जाएंगे। मां दूर रह रही बेटी की राजी-खुशी के खत का इंतज़ार करेगी और बाप अपने बेटे के प्रमोशन की चिट्ठी की बाट जोहेगा। बैरंग चिट्ठी आने पर ब्लड प्रेशर बढ़ने-घटने से रक्त संचार भी ठीक रहेगा।

सौ बातों की एक बात, चिट्ठी-पत्री हमारे सामाजिक ताने-बाने का एक धागा रही हैं, इतना मजबूत धागा कि जो संपर्क बना दिए, वे 5, 10 या 15 पैसे के कार्ड ने ज़िंदगी भर चलाए - लेकिन विकास इतिहास को खा रहा है। गणित बड़ा दकियानूसी-सा है, लेकिन तथ्यों पर खरा है कि जितना विकास होता है, उतना ही इतिहास दफन होता है। डाक, डाकिया और डाकघर के साथ यही हो रहा है। तरक्की के साथ उनका इतिहास और हमारी यादें दफन हो रही हैं। लेकिन इतनी आसानी से ऐसा मत होने दो यारों, अपनों को रोज़ न सही, हफ्ते में न सही महीने में तो एक चिट्ठी लिखो। मेरे कहने पर, किताबों और कपड़ों के बीच में छिपाकर रखी गई चिट्ठी के पकड़े जाने का डर और तकिये के नीचे रखी उस चिट्ठी की गरमाहट एक बार फिर महसूस तो करके देखो।

साभार : अजय शर्मा

7 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

सौ बातों की एक बात, चिट्ठी-पत्री हमारे सामाजिक ताने-बाने का एक धागा रही हैं, इतना मजबूत धागा कि जो संपर्क बना दिए, वे 5, 10 या 15 पैसे के कार्ड ने ज़िंदगी भर चलाए - लेकिन विकास इतिहास को खा रहा है। गणित बड़ा दकियानूसी-सा है, लेकिन तथ्यों पर खरा है कि जितना विकास होता है, उतना ही इतिहास दफन होता है। डाक, डाकिया और डाकघर के साथ यही हो रहा है। तरक्की के साथ उनका इतिहास और हमारी यादें दफन हो रही हैं। लेकिन इतनी आसानी से ऐसा मत होने दो यारों, अपनों को रोज़ न सही, हफ्ते में न सही महीने में तो एक चिट्ठी लिखो। मेरे कहने पर, किताबों और कपड़ों के बीच में छिपाकर रखी गई चिट्ठी के पकड़े जाने का डर और तकिये के नीचे रखी उस चिट्ठी की गरमाहट एक बार फिर महसूस तो करके देखो.........बहुत खूब .

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर जी डाकिया सच मै आदरणिया होता था, कितने ही फ़िल्मी गीत बने है, बहुत सुंदर लिखा आप ने

Bhanwar Singh said...

पुरानी यादें हमेशा सुखद होती हैं...डाकिया बाबू को भला कौन भूल सकता है.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World said...

चिट्ठियाँ जब
फेंकता है डाकिया
चूड़ियों सी खनखनाती हैं,

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World said...

चिट्ठियाँ जब
फेंकता है डाकिया
चूड़ियों सी खनखनाती हैं,

Amit Kumar Yadav said...

मेरे कहने पर, किताबों और कपड़ों के बीच में छिपाकर रखी गई चिट्ठी के पकड़े जाने का डर और तकिये के नीचे रखी उस चिट्ठी की गरमाहट एक बार फिर महसूस तो करके देखो....dIL KI BAT.

संजय भास्‍कर said...

पुरानी यादें हमेशा सुखद होती हैं.