Tuesday, February 9, 2010
अब नहीं होता डाकिये का इंतजार
डाकिया
छोड़ दिया है उसने
लोगों के जज्बातों को सुनना
लम्बी-लम्बी सीढियाँ चढ़ने के बाद
पत्र लेकर
झट से बंद कर
दिए गए
दरवाजों की आवाज
चोट करती है उसके दिल पर
चाहता तो है वह भी
कोई खुशी के दो पल उससे बाँटे
किसी का सुख-दुःख वो बाँटे
पर उन्हें अपने से ही फुर्सत कहाँ?
समझ रखा है उन्होंने, उसे
डाक ढोने वाला हरकारा
नहीं चाहते वे उसे बताना
चिट्ठियों में छुपे गम
और खुशियों के राज
फिर वो परवाह क्यों करे?
वह भी उन्हें कागज समझ
बिखेर आता है सीढ़ियों पर
इन कागजी जज्बातों में से
अब लोग उतरकर चुनते हैं
अपनी-अपनी खुशियों
और गम के हिस्से
और कैद हो जाते हैं अपने में।
(जनसत्ता, 6 फरवरी 2010 में प्रकाशित उपरोक्त रिपोर्ट को देखकर बरबस मुझे अपनी यह कविता " डाकिया" याद आ गई. आप भी कुछ कहें !!)
कृष्ण कुमार यादव
Labels:
खबरें,
डाकिया,
पत्रों की दुनिया
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
8 comments:
चिट्ठियों में छुपे गम
और खुशियों के राज..
अब वह दौर कहाँ .
बेहतरीन प्रस्तुति_
_______________ _________________
"शब्द-शिखर" पर सेलुलर जेल के यातना दृश्य....और वेलेंटाइन-डे पर "पहला प्यार" !
जो लोग परीक्षाएं दे रहे हैं, उनसे पूछें कि कितनी बेसब्री से प्रवेश-पत्र हेतु डाकिये का इंतजार करते हैं.
फिर वो परवाह क्यों करे?
वह भी उन्हें कागज समझ
बिखेर आता है सीढ़ियों पर
...संवेदनाएं खोती हैं तो यही होता है.
डाकिया आया और चिट्ठी देकर चला गया...हा..हा..हा..
डाकिये का इंतजार कम भले ही हो गया हो पर उसकी महत्ता अभी भी बनी हुई है.
सुन्दर कविता..बधाई.
सहज शब्दों में गूंथी गई सुन्दर अभिव्यक्तियाँ...बधाई.
Post a Comment