'प्यार की चिट्ठी' भला किसे न सुहाए. टेक्नालाजी कहाँ की कहाँ पहुँच गई, पर अभी भी उन प्यार भरे चिट्ठियों की बात होते ही मन में सिहरन सी उठने लगती है. ऐसी ही इक प्यार भरी चिट्ठी जनसत्ता के समान्तर स्तम्भ में 21 अप्रैल, 2011 को पढ़ी, तो सोचा की इसे यहाँ भी बांच लूं. इस प्यार भरी चिट्ठी के लेखक हैं सिद्धेश्वर जी. उनकी (प्रेम) पत्र - लेखन और (प्रेम) पत्र - पठन के (वे) दिन पोस्ट यहाँ पर साभार प्रस्तुत है !!
तब रंगीन लगती थीं श्वेत श्याम तस्वीरें
और किताबों के बीच चुपके से रखे गए सूखे फूल
बोसीदा कमरे में भर में भर देते थे सुगन्ध।
रात के दो के आसपास का समय था।वोल्वो तेज रफ्तार से भाग रही थी. बस में थोड़े-थोड़े अंतराल पर एक ही गाना बार-बार बज रहा था-'चिठ्ठी आई है ,वतन से चिठ्ठी आई है'.लग रहा था कि बस के ड्राइवर और स्टाफ को घर की याद आ रही होगी. मैं ऐसा शायद इसलिए भी अनुमान कर रहा क्योंकि स्वयं घर से दूर था - हजारों मील, लेकिन घर की याद बिना किसी टिकट भाड़े नजदीक और नजदीक चली आ रही थी. मुझसे आगे की सीट पर बैठा युवक अपनी साथी को बता रहा था-'नाम फिल्म इसी गाने से पंकज उधास का नाम फेमस हुआ था'.शुक्र है कि युवती ने 'कौन पंकज, कौन उधास?' नहीं पूछा.मुझे याद आया कि एक सहकर्मी ने एक दिन बताया था कि उन दिनों जब यह गाना खूब चला था तब उन्होंने इसी से 'प्रेरणा'लेकर गणित में एम.एस-सी.करने के तत्काल बाद एक विदेशी स्कूल की नौकरी के बदले अपने कस्बेनुमा शहर की मास्टरी को इसलिए तरजीह दी थी कि 'उमर बहुत है छोटी,अपने घर में भी है रोटी'.हालांकि बाद में,थोड़ी तरलता आने पर उन्होंने बेहद मीठे और मुलायम अंदाज में यह भी खुलासा किया था कि इस निर्णय के केन्द्र में 'प्रेम' भी (शायद प्रेम ही!) एक मजबूत कारण या आधार था.और यह भी कि उन दिनों वह रोजाना बिला नागा 'उसे' एक पत्र लिखा करते थे - प्रेम पत्र.
वह कोई दूसरा समय था
इतिहास का एक बनता हुई कालखंड
समय की खराद पर
उसी में ढलना था हम सबका जीवन।
आजकल पत्र कौन लिखता है? सरकारी,व्यव्सायी,नौकरी-चाकरी के आवेदन-बुलावा आदि के अतिरिक्त पारिवारिक-सामाजिक पत्र हमारी जिंदगी के हाशिए से भी सरक गए लगते है.क्या ऐसा संचार के वैकल्पिक संसाधनों-साधनों की सहज - सरल - सस्ती उपलब्धता के कारण हुआ है? या कि समय का अभाव,पारिवारिक-सामाजिक संरचना के तंतुजाल में दरकाव,पेपरलेस कम्युनिकेशन की ओर अग्रगामिता आदि-इत्यादि चीजें इसकी वजहें हैं? बहरहाल, इस गुरु-गंभीर विषय पर विमर्श की विचार-वीथिका में वरिष्ठ-गरिष्ठ विद्वानों को विचरण करने का सुअवसर प्रदान करते हुए मैं तो बस यही कहना चाह रहा हूं कि कहां गए वो दिन? वो पत्र-लेखन और पत्र-पठन के दिन अब तो पत्र-लेखन कला स्कूली पाठ्यक्रमों में सिमट कर रह-सी गई है।
दुनिया बदलती जा रही है पल-प्रतिपल।
तमाम जतन और जुगत के बावजूद
हर ओर सतत जारी है कुरूपताओं का कारोबार
बढ़ता ही जा रहा है कूड़ा कबाड़
फिर भी मन का कोई कोई कोना
खोजता है एकान्त
कुछ लोग कहेंगे कि ई मेल ,एसएमएस,इंस्टैन्ट मैसेजिंग आदि पर मेरी नजर क्यों नहीं जा रही है. हां,ये भी पत्र के विकल्प रूप - प्रारूप हैं और इनके जरिए व्यक्त की जाने वाली संवेदना तथा उसके शिल्प को मैं नकार भी नहीं रहा हूं किन्तु यहां मेरी मुराद कागज पर लिखे जाने वाले उस पत्र से है जिससे तमाम भाषाओं का विपुल साहित्य भरा पड़ा है,जिसको लेकर रचा गया समूचे संसार का शास्त्रीय-उपशास्त्रीय-लोक-फ़ोक संगीत अनंत काल तक दिग्-दिगंत में गूंजता रहेगा,जो कभी मानवीय संबंधों की ऊष्मा का कागजी पैरहन था,जो कभी सूखे हुए फूलों के साथ किताबों के पन्नों में मिला करता था और दिक्काल की सीमाओं को एक झटके में तिरोहित कर जीवन-जगत के तमस में आलोक का आश्चर्य भर देता था.
अब भी मँडराती हैं
ढेर सारी कटी पतंगे
तलाशती हुईं अपनी डोरियाँ
अपनी लटाइयाँ
और अपने-अपने हिस्से का आकाश।
और किताबों के बीच चुपके से रखे गए सूखे फूल
बोसीदा कमरे में भर में भर देते थे सुगन्ध।
रात के दो के आसपास का समय था।वोल्वो तेज रफ्तार से भाग रही थी. बस में थोड़े-थोड़े अंतराल पर एक ही गाना बार-बार बज रहा था-'चिठ्ठी आई है ,वतन से चिठ्ठी आई है'.लग रहा था कि बस के ड्राइवर और स्टाफ को घर की याद आ रही होगी. मैं ऐसा शायद इसलिए भी अनुमान कर रहा क्योंकि स्वयं घर से दूर था - हजारों मील, लेकिन घर की याद बिना किसी टिकट भाड़े नजदीक और नजदीक चली आ रही थी. मुझसे आगे की सीट पर बैठा युवक अपनी साथी को बता रहा था-'नाम फिल्म इसी गाने से पंकज उधास का नाम फेमस हुआ था'.शुक्र है कि युवती ने 'कौन पंकज, कौन उधास?' नहीं पूछा.मुझे याद आया कि एक सहकर्मी ने एक दिन बताया था कि उन दिनों जब यह गाना खूब चला था तब उन्होंने इसी से 'प्रेरणा'लेकर गणित में एम.एस-सी.करने के तत्काल बाद एक विदेशी स्कूल की नौकरी के बदले अपने कस्बेनुमा शहर की मास्टरी को इसलिए तरजीह दी थी कि 'उमर बहुत है छोटी,अपने घर में भी है रोटी'.हालांकि बाद में,थोड़ी तरलता आने पर उन्होंने बेहद मीठे और मुलायम अंदाज में यह भी खुलासा किया था कि इस निर्णय के केन्द्र में 'प्रेम' भी (शायद प्रेम ही!) एक मजबूत कारण या आधार था.और यह भी कि उन दिनों वह रोजाना बिला नागा 'उसे' एक पत्र लिखा करते थे - प्रेम पत्र.
वह कोई दूसरा समय था
इतिहास का एक बनता हुई कालखंड
समय की खराद पर
उसी में ढलना था हम सबका जीवन।
आजकल पत्र कौन लिखता है? सरकारी,व्यव्सायी,नौकरी-चाकरी के आवेदन-बुलावा आदि के अतिरिक्त पारिवारिक-सामाजिक पत्र हमारी जिंदगी के हाशिए से भी सरक गए लगते है.क्या ऐसा संचार के वैकल्पिक संसाधनों-साधनों की सहज - सरल - सस्ती उपलब्धता के कारण हुआ है? या कि समय का अभाव,पारिवारिक-सामाजिक संरचना के तंतुजाल में दरकाव,पेपरलेस कम्युनिकेशन की ओर अग्रगामिता आदि-इत्यादि चीजें इसकी वजहें हैं? बहरहाल, इस गुरु-गंभीर विषय पर विमर्श की विचार-वीथिका में वरिष्ठ-गरिष्ठ विद्वानों को विचरण करने का सुअवसर प्रदान करते हुए मैं तो बस यही कहना चाह रहा हूं कि कहां गए वो दिन? वो पत्र-लेखन और पत्र-पठन के दिन अब तो पत्र-लेखन कला स्कूली पाठ्यक्रमों में सिमट कर रह-सी गई है।
दुनिया बदलती जा रही है पल-प्रतिपल।
तमाम जतन और जुगत के बावजूद
हर ओर सतत जारी है कुरूपताओं का कारोबार
बढ़ता ही जा रहा है कूड़ा कबाड़
फिर भी मन का कोई कोई कोना
खोजता है एकान्त
कुछ लोग कहेंगे कि ई मेल ,एसएमएस,इंस्टैन्ट मैसेजिंग आदि पर मेरी नजर क्यों नहीं जा रही है. हां,ये भी पत्र के विकल्प रूप - प्रारूप हैं और इनके जरिए व्यक्त की जाने वाली संवेदना तथा उसके शिल्प को मैं नकार भी नहीं रहा हूं किन्तु यहां मेरी मुराद कागज पर लिखे जाने वाले उस पत्र से है जिससे तमाम भाषाओं का विपुल साहित्य भरा पड़ा है,जिसको लेकर रचा गया समूचे संसार का शास्त्रीय-उपशास्त्रीय-लोक-फ़ोक संगीत अनंत काल तक दिग्-दिगंत में गूंजता रहेगा,जो कभी मानवीय संबंधों की ऊष्मा का कागजी पैरहन था,जो कभी सूखे हुए फूलों के साथ किताबों के पन्नों में मिला करता था और दिक्काल की सीमाओं को एक झटके में तिरोहित कर जीवन-जगत के तमस में आलोक का आश्चर्य भर देता था.
अब भी मँडराती हैं
ढेर सारी कटी पतंगे
तलाशती हुईं अपनी डोरियाँ
अपनी लटाइयाँ
और अपने-अपने हिस्से का आकाश।
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सिद्धेश्वर
सिद्धेश्वर