Tuesday, April 26, 2011

प्यार की चिट्ठी

'प्यार की चिट्ठी' भला किसे न सुहाए. टेक्नालाजी कहाँ की कहाँ पहुँच गई, पर अभी भी उन प्यार भरे चिट्ठियों की बात होते ही मन में सिहरन सी उठने लगती है. ऐसी ही इक प्यार भरी चिट्ठी जनसत्ता के समान्तर स्तम्भ में 21 अप्रैल, 2011 को पढ़ी, तो सोचा की इसे यहाँ भी बांच लूं. इस प्यार भरी चिट्ठी के लेखक हैं सिद्धेश्वर जी. उनकी (प्रेम) पत्र - लेखन और (प्रेम) पत्र - पठन के (वे) दिन पोस्ट यहाँ पर साभार प्रस्तुत है !!


तब रंगीन लगती थीं श्वेत श्याम तस्वीरें
और किताबों के बीच चुपके से रखे गए सूखे फूल
बोसीदा कमरे में भर में भर देते थे सुगन्ध।


रात के दो के आसपास का समय था।वोल्वो तेज रफ्तार से भाग रही थी. बस में थोड़े-थोड़े अंतराल पर एक ही गाना बार-बार बज रहा था-'चिठ्ठी आई है ,वतन से चिठ्ठी आई है'.लग रहा था कि बस के ड्राइवर और स्टाफ को घर की याद आ रही होगी. मैं ऐसा शायद इसलिए भी अनुमान कर रहा क्योंकि स्वयं घर से दूर था - हजारों मील, लेकिन घर की याद बिना किसी टिकट भाड़े नजदीक और नजदीक चली आ रही थी. मुझसे आगे की सीट पर बैठा युवक अपनी साथी को बता रहा था-'नाम फिल्म इसी गाने से पंकज उधास का नाम फेमस हुआ था'.शुक्र है कि युवती ने 'कौन पंकज, कौन उधास?' नहीं पूछा.मुझे याद आया कि एक सहकर्मी ने एक दिन बताया था कि उन दिनों जब यह गाना खूब चला था तब उन्होंने इसी से 'प्रेरणा'लेकर गणित में एम.एस-सी.करने के तत्काल बाद एक विदेशी स्कूल की नौकरी के बदले अपने कस्बेनुमा शहर की मास्टरी को इसलिए तरजीह दी थी कि 'उमर बहुत है छोटी,अपने घर में भी है रोटी'.हालांकि बाद में,थोड़ी तरलता आने पर उन्होंने बेहद मीठे और मुलायम अंदाज में यह भी खुलासा किया था कि इस निर्णय के केन्द्र में 'प्रेम' भी (शायद प्रेम ही!) एक मजबूत कारण या आधार था.और यह भी कि उन दिनों वह रोजाना बिला नागा 'उसे' एक पत्र लिखा करते थे - प्रेम पत्र.

वह कोई दूसरा समय था
इतिहास का एक बनता हुई कालखंड
समय की खराद पर
उसी में ढलना था हम सबका जीवन।

आजकल पत्र कौन लिखता है? सरकारी,व्यव्सायी,नौकरी-चाकरी के आवेदन-बुलावा आदि के अतिरिक्त पारिवारिक-सामाजिक पत्र हमारी जिंदगी के हाशिए से भी सरक गए लगते है.क्या ऐसा संचार के वैकल्पिक संसाधनों-साधनों की सहज - सरल - सस्ती उपलब्धता के कारण हुआ है? या कि समय का अभाव,पारिवारिक-सामाजिक संरचना के तंतुजाल में दरकाव,पेपरलेस कम्युनिकेशन की ओर अग्रगामिता आदि-इत्यादि चीजें इसकी वजहें हैं? बहरहाल, इस गुरु-गंभीर विषय पर विमर्श की विचार-वीथिका में वरिष्ठ-गरिष्ठ विद्वानों को विचरण करने का सुअवसर प्रदान करते हुए मैं तो बस यही कहना चाह रहा हूं कि कहां गए वो दिन? वो पत्र-लेखन और पत्र-पठन के दिन अब तो पत्र-लेखन कला स्कूली पाठ्यक्रमों में सिमट कर रह-सी गई है।

दुनिया बदलती जा रही है पल-प्रतिपल।
तमाम जतन और जुगत के बावजूद
हर ओर सतत जारी है कुरूपताओं का कारोबार
बढ़ता ही जा रहा है कूड़ा कबाड़
फिर भी मन का कोई कोई कोना
खोजता है एकान्त

कुछ लोग कहेंगे कि ई मेल ,एसएमएस,इंस्टैन्ट मैसेजिंग आदि पर मेरी नजर क्यों नहीं जा रही है. हां,ये भी पत्र के विकल्प रूप - प्रारूप हैं और इनके जरिए व्यक्त की जाने वाली संवेदना तथा उसके शिल्प को मैं नकार भी नहीं रहा हूं किन्तु यहां मेरी मुराद कागज पर लिखे जाने वाले उस पत्र से है जिससे तमाम भाषाओं का विपुल साहित्य भरा पड़ा है,जिसको लेकर रचा गया समूचे संसार का शास्त्रीय-उपशास्त्रीय-लोक-फ़ोक संगीत अनंत काल तक दिग्-दिगंत में गूंजता रहेगा,जो कभी मानवीय संबंधों की ऊष्मा का कागजी पैरहन था,जो कभी सूखे हुए फूलों के साथ किताबों के पन्नों में मिला करता था और दिक्काल की सीमाओं को एक झटके में तिरोहित कर जीवन-जगत के तमस में आलोक का आश्चर्य भर देता था.

अब भी मँडराती हैं
ढेर सारी कटी पतंगे
तलाशती हुईं अपनी डोरियाँ
अपनी लटाइयाँ
और अपने-अपने हिस्से का आकाश।

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सिद्धेश्वर

16 comments:

नीरज गोस्वामी said...

बहुत अच्छी और साहित्यिक पोस्ट है आपकी, बीच बीच में दिए पध्य बताते हैं के आपने कितना कुछ पढ़ रखा है और उसे याद भी रखा है...आपकी इस विलक्षण प्रतिभा को सलाम...

नीरज

Unknown said...

सिद्धेश्वर जी का यह लेख वाकई अनुपम है. इस के लिए उन्हें ढेरों बधाई.

Unknown said...

चिट्ठियों के बारे में जितना भी लिखा जाये कम ही होगा. सुन्दर रचना के लिए बधाई.

Ashish (Ashu) said...

सर जी, सच कहा आपने...जो स्पर्श की अनुभूति चिठ्ठी मे होती हॆ वो e-mail या sms मे कहा सम्भव हे..
आज भी मुझॆ अपने १० बाई ११ के स्ट्डी रूम की सफाई करने मे 2 दिन लग जाते हॆ..क्या करे सफाई करते ही कोई पुराना खत हाथ मे आते ही फ्लॆश बॆक मे पहुच जाते हॆ...उसकी हॆडराईटिग..उसके लिखने की कला..ऎसा लगता हे कि जॆसे कल की ही बात हो....ऒर अगर खत प्रिये का हो तो क्या कहने...

S R Bharti said...

पत्रों के प्रति अनुपम भावों को सिद्धेश्वर जी ने सुन्दर शब्दों में ढाला है. आपकी लेखनी को साधुवाद.

S R Bharti said...

पत्रों के प्रति अनुपम भावों को सिद्धेश्वर जी ने सुन्दर शब्दों में ढाला है. आपकी लेखनी को साधुवाद.

Bhanwar Singh said...

पुराने दिनों की यादें ताजा हो गईं...

Kunal Verma said...

चिट्ठियोँ की तो बात ही निराली थी दोस्त

Akshitaa (Pakhi) said...

मुझे भी तो पत्र लिखना सीखना है...

तरुण भारतीय said...

सही कहा आपने पत्र लिखने की कला स्कूलों के पाठ्यक्रम तक सिमट तक रह गई है ..........
मै भी कभी कभी आकाशवाणी के कार्य कर्मो में पत्र डालता हूँ .........

Dr. Brajesh Swaroop said...

चिट्ठियों की भी अद्भुत दास्ताँ है...सिद्धेश्वर जी ने लाजवाब लिखा. बधाई.

siddheshwar singh said...

आभार! बंधु के०के०यादव जी और सभी साथियों के प्रति, saajhaa aura sheyara karane ke lie !

संतराम यादव said...

इस बार घर जाने पर एक पुराना खत हाथ लग गया तो लगा जैसे कोई अनमोल खजाना मिल गया हो. उस चिट्ठी में जो आत्मीयता और प्यार की सुंदर अनुभूति होती थी वह ईमेल व एसएमएस तो सोची भी नहीं जा सकती.

डॉ० डंडा लखनवी said...

सिद्धेश्वर जी! नमस्कार!
आपको वर्षों बाद आपका लेख आँखों के सामने पड़ा और पुरानी यादे ताजी हो गईं। सन १९७० के आस-पास ’शुभ-तारिका’ में आपकी रचनाएं प्रकाशित होती थीं और मेरी भी । उस समय पत्र ही संवाद का सस्ता और आसान साधन होता था। आपसे मेरा पत्राचार होता रहा है। बीच में यह क्रम टूट गया। आपका पत्रों पर आलेख रोचक है।
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
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Shyama said...

आज हम भी अपनी चिट्ठियों का पिटारा खोलेंगें...सुन्दर पोस्ट.

Shyama said...

KK जी,
नन्हीं अक्षिता को बेस्ट बेबी ब्लागर अवार्ड प्राप्त होने पर बधाई.इसे कहते हैं पूत के पांव पालने में.
के.के. जी और आकांक्षा जी ने बिटिया पाखी को जो संस्कार और परिवेश दिया है, वाकई अनुकरणीय है. श्रद्धावत नमन. .