Friday, March 26, 2010

पोस्टमैन

तन पर कोट डटा है, सिर पर खाकी साफा बांधे
चला आ रहा है लटकाए, झोला अपना कांधे
कितने पत्र पिताओं के हैं, माताओं के कितने
उतने यहां खड़े बालकगण, बाट जोहते जितने
सबका नाम पुकार वस्तुएं, सबकी सबको देता है
बदले में न किसी से भी, एक दाम है लेता।

हरिशचंद्र देव चातक

9 comments:

Udan Tashtari said...

बेहतरीन!!

सुशीला पुरी said...

ओह !!! कितने दिनों से नही आए तुम भैया ?

Akanksha Yadav said...

लाजवाब..डाकिया बाबू का इंतजार..

डॉ. मनोज मिश्र said...

वाह,बेहद खूबसूरत.

Amit Kumar Yadav said...

अंतर्मन की सुन्दर अभिव्यक्ति...

S R Bharti said...

सर ,
मेरा unicode अच्छी तरह काम नहीं कर रहा है
कृपया मेरी इ.मेल आई डी पर unicode प्रेषित करने की कृपा करें

www.dakbabu.blogspot.com said...

आप सभी का आभार कि अपने हमारी हौसलाअफ़जाई की व हमारे ब्लॉग पर आये. अपना स्नेह इसी तरह बनाये रखें.

Bhanwar Singh said...

Majedar ...!!

संजय भास्‍कर said...

,बेहद खूबसूरत.
dobara padne chala aaya