तन पर कोट डटा है, सिर पर खाकी साफा बांधे
चला आ रहा है लटकाए, झोला अपना कांधे
कितने पत्र पिताओं के हैं, माताओं के कितने
उतने यहां खड़े बालकगण, बाट जोहते जितने
सबका नाम पुकार वस्तुएं, सबकी सबको देता है
बदले में न किसी से भी, एक दाम है लेता।
हरिशचंद्र देव चातक
9 comments:
बेहतरीन!!
ओह !!! कितने दिनों से नही आए तुम भैया ?
लाजवाब..डाकिया बाबू का इंतजार..
वाह,बेहद खूबसूरत.
अंतर्मन की सुन्दर अभिव्यक्ति...
सर ,
मेरा unicode अच्छी तरह काम नहीं कर रहा है
कृपया मेरी इ.मेल आई डी पर unicode प्रेषित करने की कृपा करें
आप सभी का आभार कि अपने हमारी हौसलाअफ़जाई की व हमारे ब्लॉग पर आये. अपना स्नेह इसी तरह बनाये रखें.
Majedar ...!!
,बेहद खूबसूरत.
dobara padne chala aaya
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