आजकल कविता वर्मा जी चिट्ठियों पर मेहरबान हैं. तभी तो उनके ब्लॉग kase kahun? पर चिट्ठी से जुडी यादें रोज ताजा हो रही हैं. उनकी चिट्ठियों में रिश्तों की सोंधी खुशबू है, जो भीना-भीना अहसास दे जाती है. अब कविता जी की चिट्ठियाँ डाकिया बाबू नहीं बांचे तो भला कौन बांचेगा. तो आप भी कविता वर्मा जी की इन चिट्ठियों का आनंद लीजिये और अपने किसी हमदम को जल्दी से चिट्ठी लिख डालिए. और हाँ बात-बात पर डाकिया बाबू को न कोसा करिए कि वह मुआ तो अब चिट्ठियाँ ही नहीं लाता, चिट्ठियाँ तो वह तब लाये जब आपको कोई प्यार-मनुहार भरी चिट्ठियाँ लिखे तो सही...तो अब देर किस बात की तुरंत लिखने बैठ जाइये चिट्ठियाँ !!
चिठ्ठियाँ.......2
अरे हाँ याद आया इंदौर में भी एक सहेली थी मेरे पड़ोस में ही रहती थी,हमारी शामें साथ ही गुजरती थी । रोज़ शाम को छत पर बैठ कर अपने-अपने स्कूल की बाते करना, ढेर सारे गाने गाना,और जो भी कोई फिल्म देख कर आता उसकी स्टोरी दूसरे को सुनना। एक बार उससे झगडा भी हुआ था,तब मेरे और उसके भाइयों ने हम दोनों के बीच सुलह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उससे जरूर पत्रों का सिलसिला चला,पर उसकी आवृति कम थी.पर उसके साथ बिताये लम्हे आज तक जेहन में ताज़ा हैं। अब हम खंडवा में जहाँ सिर्फ इंदौर से पत्र मिलते थे.रानपुर फिर कभी जाना ही नहीं हुआ.पर ये पत्र बड़े सोच कर बढ़िया-बढ़िया बातें लिखकर भेजे जाते थे। हर पत्र को कई-कई बार पढ़ा जाता और कभी-कभी तो किताबों में रख कर स्कूल में भी चोरी से पढ़ा जाता। घर में सबको सख्त हिदायत थी की मेरे पत्र कोई नहीं खोलेगा, अब ये पत्र अन्तेर्देशिया थे जिसमे लिखे हर शब्द किसी अनमोल मोती से कम नहीं थे, और उन मोतियों को किसी से बांटने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। हाँ अपनी सहेलियों को जरूर गर्व से बताती थी की इंदौर से मेरी सहेली का पत्र आया है। कभी-कभी अपना पुराना फोल्डर खोल कर पुराने पत्र भी पढ़ लेती थी और उनमे खुद को ही बड़े होते देखती थी,हाँ मेरे सारे पुराने पत्र मेरे पास सहेज कर रखे गए थे और उनकी रक्षा किसी खजाने की रक्षा जैसे ही होती थी.जब भी कोई नया पत्र उस फोल्डर में रखती अपने खजाने को नज़र भर देखती, छूती पुराणी कितनी ही अनलिखी,अनकही यादों को याद कर लेती.इस समंदर का अगला मोती बस निकालने को ही है थोडा सा इन्तजार....!!
चिठ्ठियाँ .........3
खंडवा से जब हम बैतूल आये तब मन न जाने कैसा -कैसा हो गया.ऐसा लगा जैसे दिल को किसी ने मुठ्ठी में भींच दिया हो.युवावय की प्यारी सहेलियां जिनसे हर बात ,हर भावना साझा की जाती थी उन्हें छोड़ कर जाना ऐसा था जैसे अपने प्राण छोड़ कर शरीर कही और ले जाना। पर उस समय की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि, उस समय टेलीफोन हर घर में नहीं था। संपर्क का एक ही साधन था पत्र। हाँ दिन में स्कूल कौलेज होते थे ,इसलिए पोस्टमेन का इन्तजार नहीं किया,लेकिन घर आते ही मेरी निगाहें अपने पढ़ने की टेबल पर घूमती जहां मेरे आये ख़त रखे होते थे। फिर तो खाना -पीना भूल कर जब तक दो-चार बार उन्हें पढ़ न लूं चैन नहीं आता था। अब एक पेज के पत्र से मन भी नहीं भरता था,३-४ पेज के पत्र रात को १२-१ बजे तक बैठ कर लिखे जाते थे,जिन्हें लिखते हुए खुद ही हंसती थी खुद ही सोचती थी ये पढ़ कर मेरी सहेलियां क्या-क्या बाते करेंगी ?मेरी इंदौर वाली सहेली के पत्र आने अब बंद हो गए थे। या कहना चाहिए उसके दायरे बदल गए थे,उनका भी इंदौर से तबादला हो गया था ,पर मुझे मालूम था की वहां से वो अजमेर गए है। तो एक दिन उसे याद करते -करते अजमेर उसके पापा के ऑफिस के पते पर ऑफिस इंचार्ज के नाम एक पत्र लिख दिया। की फलां-फलां व्यक्ति इंदौर से ट्रान्सफर हो कर इस साल में वहां आये थे अब वे कहाँ है उनकी जानकारी दे। बस उस पत्र में अंकल को अपना परिचित मित्र लिखा । अब ऑफिस इंचार्ज की भलमनसाहत देखिये की उन्होंने भी लौटती डाक से उनकी जानकारी दे दी पर मेरे संबोधन के हिसाब से अन्तेर्देशीय के ऊपर मेरा नाम लिखा "श्रीमती कविता ",हमारे पत्र पापा के ऑफिस में आते थे वहां से पापा घर भेज देते थे,तो में डाकिये के इन्तजार के बजाय चपरासी का इंतज़ार करती थी। जब वो पत्र ले कर आया तो वह खुला हुआ था,देख कर बड़ा गुस्सा आया,पापा ने पत्र क्यों खोला, पर जब पत्र पर अपना नाम पढ़ा तो खुद ही हंसी आ गयी . phir ye bhee sochaa ki patra khol kar padh lene tak paapa ka blood presure kitana badh gaya hoga
चिठ्ठियाँ.....४
बस इसी तरह ठीक इसी तरह चिठ्ठियाँ लिखने का सिलसिला टूट जाया करता था सहेलियों के साथ भी, तब बहुत सारे शिकवे शिकायतों के साथ कभी बहुत बड़ा सा ख़त या कभी बहुत छोटा सा पत्र अपनी नाराजगी बताने के लिए लिखा जाता था.बैतूल में मेरी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण पड़ाव भी आया,मेरी सगाई तय हो गयी.इसकी खबर सहेलियों को लिखने से पहले न जाने कितने ही सूत्र पिरोये,कितनी ही बार खुद से ही शरमाई,मन था की बल्लियों उछल रहा था,लिखते भी नहीं बन रहा था,लिखे बिना रहा भी नहीं जा रहा था.उस पत्र के जवाब का इन्तजार सदियों सा भारी लगा.फिर एक दिन एक और पत्र आया धड़कते दिल से उसे खोला, वह पत्र था 'उनका".हाँ यही संबोधन होता था 'उनके 'लिए,जिस पर मेरी सहेलियां अच्छा उनका,वो कौन, अभी से "उनका"कह-कह कर मुझे परेशान कर देतीं थी,इस एक संबोधन से ही गाल लाल हो जाते थे,बहुत सादगी और शराफत से लिखा गया पत्र था, पर मुझे तो एक-एक शब्द मोती लग रहा था .पत्र मिलते ही जल्दी से सहेलियों से मिलने घर से निकल पड़ी,उन्हें बताये बिना चैन भी तो नहीं पड़ता था। पहले उन्हें बोल कर सब बताया क्या-क्या लिखा है,फिर न-नुकुर करते हुए पूरा पत्र पढ़ा दिया। आखिर में भी तो यही चाहती थी.इस पत्र की एक लाइन ने तो दिल को छू ही लिया,न-न ऐसा-वैसा कुछ मत सोचिये,वो लाइन थी "तुम पत्र का जवाब देने से पहले अपने मम्मी- पापा से पूछ लो उन्हें कोई एतराज़ तो नहीं है."जब से होश सम्हाला था पत्र लिख रही थी,ये पहला मौका था जब पत्र का जवाब देने से पहले मम्मी से पूछा गया,वो भी पशोपेश में थी,फिर पापा से पूछ कर बतायेंगी ,कह कर बात ख़त्म हो गयी.दूसरे दिन पत्र सिरहाने रख कर सो रही थी,की ऐसा लगा कोई पास आ कर बैठा,मैंने आँखे मूंदे राखी ,फिर एक हाथ धीरे से बड़ा और पत्र उठाया,थोड़ी देर बाद उसे वापस रख दिया,मैं अभी भी सोने का नाटक करती रही। थोड़ी देर बाद मम्मी ने आवाज़ लगाई,बेटा उठो चाय पी लो, चाय पीते हुए मम्मी ने कहा,हमने पापा से बात की थी उन्होंने ने कहा है,पत्र का जवाब दे दो इसमे तो कोई हर्ज़ नहीं है.आज अचानक चिठ्ठियों -चिठ्ठियों में कितना बड़ा फर्क हो गया.पर मन तो तुरंत जवाब देने को बैचैन था.लिखने बैठ भी गयी,पर ये क्या,आज कुछ लिखते क्यों नहीं बन रहा है,मैं तो कितने सालों से चिठ्ठियाँ लिख रही हूँ.
चिठ्ठियाँ ........५
खैर अब धड़कते दिल से चिठ्ठी लिखी, सहेलियों से भी सलाह ली गयी,जिन सहेलियों ने कभी कोई चिठ्ठी नहीं लिखी थी उन्होंने भी पूरे मनोयोग से बताया की क्या लिखना चाहिए और क्या बिलकुल नहीं लिखना चाहिए।पर इन सबके बावजूद उस एक बात का तो जवाब दिया ही नहीं की मम्मी-पापा से पूछा की नहीं ?अब चिठ्ठियों में एक नया ही रंग आ गया था,उनके इंतज़ार में एक नयी ही कसक थी,और उनकी रक्षा ...वो तो पूछिए ही मत। इन्ही पत्रों के साथ ननंदो और भाभीजी को भी पत्र लिखना शुरू हो गया,शादी के पहले उन्हें जानने समझाने का इससे अच्छा कोई जरिया नहीं था।अब पत्र अलग-अलग मन:स्थिति के साथ लिखे जाते थे,एक सहेलियों को,जो में सालो से लिख रही थी,दूसरे होने वाले पति को जहाँ एक झिझक थी साथ ही एक दूसरे को जानने की ललक भी थी। और तीसरे जहाँ एक अतिरिक्त सावधानी रखी जाती थी की किसी बात का कोई गलत अर्थ न निकल जाए। तभी एक दिन ससुरजी का आना हुआ. वे शादी कितारिख और अन्य बाते सुनिश्चित करने आये थे.उन्होंने ने मेरी गोद भराई भी की,और फल,मेवा के साथ झोली में एक पत्र भी डाल दिया। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ,ये क्या है?खैर पत्र खोला गया, पढ़ा गया,उसमे उन्होंने अपनी होने वाली बहू के लिए अपने असीम प्यार और आशीर्वाद के साथ,जीवन को संवारने के कुछ मुख्य बिन्दुओं को बड़ी ही साहित्यिक शैली में लिखा था.उनका ये पत्र अब तक के सभी पत्रों से निराला था,जिसे बार-बार पढ़ा गया और अपने आप को एक सुघड़ बहु के रूप में ढालने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में इस्तेमाल किया गया। पत्रों का ये सिलसिला बस यूँ ही चलता रहा...
चिठ्ठियाँ .....६
शादी के बाद भी पत्रों का सिलसिला चलता रहा.सहेलियों के साथ,ननदों के साथ,और मायके जाने पर उनके साथ.अब हर पत्र एक अलग रंग का होता था.अब तो मम्मी के भी पत्र आते थे,जिसमे प्यार के साथ कई सीख भी होती थी,तो ससुरजी के पत्र भी जिसमे हमारे अकेले होने की चिंता के साथ हर हफ्ते बस दो ही लाइन की कुशल क्षेम देने का आग्रह भी होता था। चिठ्ठियों का यह नया रंग अभिभूत कर देता था। शादी के बाद अपने लाये सामान के साथ बचपन से अभी तक लिखी चिठ्ठियों का मेरा खजाना भी था.जिसे गाहे बगाहे पढ़ लेती थी।
नयी-नयी गृहस्थी के साथ एक शौक अकसर महिलायों को होता है वह है साफ़ सफाई का,सो एक दिन सफाई करते हुए न जाने क्या हुआ,शायद मन कुछ ठीक नहीं था,या कुछ और,पता नहीं क्यों ये सोचा की इतनी पुरानी सहेलियां जिनसे बिछड़े करीब १५ साल हो गए है,उन्हें तो शायद मेरी याद भी नहीं होगी,मैं ही उनके पत्रों को संजोए बैठी हूँ मैंने सबसे पुराने पत्र जला डाले.हाँ-हाँ वही पत्र जिनकी खजाने की तरह रक्षा करती थी जला डाले ,पता नहीं इससे घर में कितनी जगह बनी हाँ दिल का एक कोना आज भी खाली महसूस हो रहा है।
धीरे -धीरे सब सहेलियों की भी शादियाँ हो गयी,ननदे भी ब्याह गयी,मम्मी-पापा,सासुजी-ससुरजी भी इंदौर ही आ गए,पत्रों की जगह पहले फोन फिर मोबाइल ने ले ली,सब इतने पास आ गए पर फिर भी एक दूरी बन गयी है,पत्रों में विस्तार से लिखे समाचारों की जगह,मोबाइल के "हाँ और बोलो",या "सुनाओ"ने ले ली,बात करते हुए,आधा ध्यान टाइम पर और बिल पर रहने लगा,दुनिया जीतनी छोटी हो गयी उतनी ही दूरियां बढ़ गयी,आज मेरे घर कोई चिठ्ठी नहीं आती,डाकिया सिर्फ बिल या स्टेटमेंट्स लाता है ,आज चिठ्ठियों के बिना मेरे दिन सूने है मेरी जिंदगी का एक कोना सूना है,मैं आज भी चिठ्ठियों का इंतजार करती हूँ ..!!
साभार : kase kahun?
Monday, January 25, 2010
Saturday, January 23, 2010
डाकिया डाक लाया
जब यह ब्लोग शुरू किया था तो मन में कही यह था कि उस समय और स्थान से जुडे लोग भी अपनी यादो को शेयर करें, जो हमारी जिन्दगी का एक अटूट हिस्सा हुआ करते थे तब. उनमे से एक हैं हम लोगों के पंडितजी यानी हमारी कॉलोनी के पोस्टमैन .पंडितजी हमारे घरों में केवल चिट्ठी फ़ेंक कर नही चले जाते थे बल्कि पते की लिखावट से अक्सर जान जाते थे कि चिट्ठी कहॉ से आयी है .अब सोचो तो कितनी आश्चर्यजनक बात लगती है कि कॉलोनी में कितने सारे घर थे और हर घर में कितनी जगहों से चिट्ठी आती थी .कैसे याद रखते होंगे पंडितजी इतनी सारी हन्द्व्रितिंग .पर कहते हैं ना कि the more involved you areे with your work ,the more efficient you will be .हमारे पंडितजी तो काम के साथ साथ लोगों से भी involved रहते थे तो फिर भला कैसे ना होते वे extra efficient।
पंडितजी की आवाज़ आयी नही कि आगे आने वाले घरों में उनका इंतज़ार शुरू हो जाता था .आवाज़ आयी नौ नंबर (हाँ यही नंबर हुआ करता था कॉलोनी में हमारे घर का ).उस दिन चिट्ठी नौ नंबर की थी इस लिए साइकिल हमारे घर के सामने रुकी लेकिन अगर पड़ोस वाली चाचीजी बाहर काम करती दिख गयीं तो एक सवाल उधर की ओर उछला 'और बडके भैया के यहाँ सब ठीक है ना '.कल पंडितजी आसाम में posted सपन दादा का पत्र दे कर गए थे चाचीजी को ।
दूसरे शहरों के ही संदेश केवल नही पहुँचाते थे पंडितजी हम लोगों तक .'पंडितजी आप पुराने सेंटर की ओर हो आये हैं क्या '। 'नाही अबे जैबे बिटिया .काहे कौनो काम रहए का .''हाँ पंडितजी ,वो १२१ ब्लॉक में टंडन जी की बिटिया नीरु को यह किताब दे दीजियेगा .'इसी तरह की सेवायें कॉलोनी की सभी लड़कियाँ पंडितजी से ले लिया करती थी .और ये सेवायें थी भी exclusive for girls .लड़कियों को पैदल कम चलना पडे ,उनका बाहर निकलना बच जाये ,पंडितजी के ये कुछ अपने कारण हो सकते हैं .पर यह सच है कि इस वजह से हम लड़कियाँ खुद को कुछ खास महसूस करते थे .पता नहीं आज के बच्चे इस बात को समझ पायेंगे या नहीं पर उस समय बहुत से घरों की लड़कियों को पंडितजी का यह काम एक अलग तरह की ख़ुशी देता था .कोई तो था जो कोई काम केवल उनके लिए करता था .कहीँ तो उन्हें अपने भाइयों से ज्यादा तवज्जो मिलाती थी .वो भी बुजुर्ग पंडितजी द्वारा ,जिनकी इज़्ज़त हर घर में होती थी .यूं शायद यह बहुत छोटी बात लगे पर जब अपना वजूद हर घडी दांव पर लगा अनुभव हो तो ये छोटे दिखने वाले काम और बाते ही तो आसमान की ओर खुलती खिडकी से नज़र आते हैं ।
इतना ही नही ,कॉलोनी के किसी भी घर के किसी भी दुखद समाचार की खबर वे बिना किसी के कहे कॉलोनी में उसके आत्मीय स्वजनों तक पहुचा देते थे ,फिर भला उसके लिए उन्हें कितना भी लम्बा चक्कर क्यों ना लगाना पडे या फिर से उसी ओर जाना पडे जहाँ से वे आ रहे होते थे । यह उनकी सरकारी ड्यूटी का हिस्सा तो था नही पर इसे भी वे उतनी ही गंभीरता ओर जिम्मेदारी से निभाते थे .मौसम के तेवर कितने भी बिगाड हुए क्यों ना हो पंडितजी बिना किसी रुकावट के अपना काम करते थे और वह भी अपनी चिर परिचित मुस्कराहट के साथ .ना उनके चेहरे पर कभी परेशानी झलकती थी ना उनकी आवाज़ में शिथिलता .जेठ का प्रचंड ताप हो ,मूसलाधार बारिश या फिर कडाके की सरदी पंडितजी की उपस्थिति हमारी दिनचर्या का अंग थी जैसे .घर गृहस्थी वाले आदमी थे ,रोज़ पास के गाँव से साइकिल चलाते हुए आते थे .परेशानियाँ ,झंझटें ,तो उनकी ज़िंदगी में भी आती ही रही होगीं पर उसका प्रभाव वे अपने काम और जिम्मेदारी पर नही पडने देते थे .और जिम्मेदारियां भी कैसी ,जिसमें से बहुत सारी तो उन्होने खुद ओढ़ रखी थी .हमारी कॉलोनी में पंडितजी की पोस्टिंग काफी लंबे समय तक रही थी .हमारी किशोरावस्था से हमारी शादी तक । इतने लंबे समय में मेरी याद में वे केवल एक बार छुट्टी गए थे .अपनी बिटिया की शादी के समय ।
हमारी बड़ी बहन जब शादी के बाद त्रिवेंद्रम चली गयीं थी तो पूरे घर को उनकी चिट्ठी का इन्तजार रहता था .हमारी अम्मा की बेचैनी और उत्कंठा का पंडितजी को पूरा पूरा अंदाजा रहता था .जिस बार जिज्जी की चिट्ठी ज़रा देर से आती थी ,वे अपना नियमित रास्ता छोड़ कर पहले चिट्ठी हमारे यहाँ पहुचाने आते थे भले ही उसके लिए उन्हें उल्टा चक्कर क्यों ना लगाना पडे .अम्मा के मन को दो घंटे पहले निश्चिन्तता पहुचाना ज्यादा मायने रखता था .बात केवल ससुराल गयी बिटिया की अम्मा के मन पडने की ही नही थी .पंडितजी को सबके मन में होने वाली उठा पटक का अंदाज़ा रहता था .किस बहु को मायके में होने वाली शादी के कार्ड का इन्तजार है ,किस लडके के लिए नौकरी का appointment लैटर जीवन मरण का प्रशन बना हुआ है ,किस बहु का moneyorder या चिट्ठी उसकी सास के हाथ में देने में कोई हर्ज़ नही है और किसके लिए मौका तलाशना है .पंडितजी की पकड़ हर नब्ज़ पर बिल्कुल सही थी ।
कॉलोनी में बडे हुए हर बच्चे की ज़िंदगी के हर महत्वपूर्ण पड़ाव में पंडितजी की साझेदारी थी .वे केवल आने वाली चिट्ठी ही नही पहुचाते थे वरन इन्तजार की जा रही चिट्ठी के ना आने की भी खबर दे जाते थे .'आजव नही आयी बिटिया/भैया 'कहते समय पंडितजी की आवाज़ में इतनी लाचारी होती थी कि चिट्ठी का इन्तजार करने वाला अपनी बेचैनी छुपाने लगता था .ऐसा लगता था कि वे चिट्ठी ला कर हाथ में नही रख पा रहे हैं तो जैसे चूक उनसे ही हो रही है ।
अपनी ड्यूटी के प्रती इतना गम्भीर होने का यह मतलब बिल्कुल नही था कि पंडितजी को हँसना चिढ़ाना नही आता था .और भी रस थे उनमे.पंडितजी पर यह पोस्ट हमारे romance में उनकी अहम भूमिका के जिक्र के बिना तो पूरा हो ही नही सकता .वो पंडितजी और हमारे कॉलोनी में आखिरी दिन थे .उनकी सेवानिवृति का समय पास आ रहा था और हमारे अम्मा बाबु की देहरी छोड़ने का .सुन्दर उन दिनों दिल्ली में थे .ई connectivity और ई मेल ,chat के जमाने वाले लोग समझ ही नही सकते कि चिट्ठी लिखने और उसके इन्तजार का मज़ा क्या होता है .क्या होती है धड़क्नो की रफ्तार हाथ में पकडे लिफाफे के खुलने से पहले .पर हमारे पंडित जी को सब पता था .हमने तो उस जमाने में भी दिल्ली और कानपूर की दूरी को बालिश्त भर का कर दिया था .और उसमे पंडितजी ने हमारा पूरा साथ दिया था .कभी कभी सबेरे नौ बजे ही गेट पर आवाज़ आती ,बिटिया लेव ,दिल्ली वाली चिट्ठी रहे ,तो हम कहे सबेरे पहुँचा देयी .तुम्हारे बैंक जाये से पहिले .और फिर साइकिल में चढ़ते चढ़ते अम्मा की ओर देख कर हस्नते हुए कहते ,'और का अब दिन भर चैन तो पड़ जई ।' यही नही एक दिन में आने वाली दो दो चिट्ठियों को भी वे सुबह शाम दोनो समय उतनी ही मुस्तैदी से पहुँचा जाते थे .पर हमे यह बताना भी नही भूलते थे कि यह वे मेरी मनोदशा के मद्देनज़र कर रहे है
तो ऐसे थे हमारे पंडितजी .हमारे दुःख सुख ,उतार चदाव में हमारे साथ .हमे तो ऐसा लगता है कि भगवान ने उन्हें डाकिया बनाने के हिसाब से ही बनाया था .he was cut for that job .
साभार : akshara
पंडितजी की आवाज़ आयी नही कि आगे आने वाले घरों में उनका इंतज़ार शुरू हो जाता था .आवाज़ आयी नौ नंबर (हाँ यही नंबर हुआ करता था कॉलोनी में हमारे घर का ).उस दिन चिट्ठी नौ नंबर की थी इस लिए साइकिल हमारे घर के सामने रुकी लेकिन अगर पड़ोस वाली चाचीजी बाहर काम करती दिख गयीं तो एक सवाल उधर की ओर उछला 'और बडके भैया के यहाँ सब ठीक है ना '.कल पंडितजी आसाम में posted सपन दादा का पत्र दे कर गए थे चाचीजी को ।
दूसरे शहरों के ही संदेश केवल नही पहुँचाते थे पंडितजी हम लोगों तक .'पंडितजी आप पुराने सेंटर की ओर हो आये हैं क्या '। 'नाही अबे जैबे बिटिया .काहे कौनो काम रहए का .''हाँ पंडितजी ,वो १२१ ब्लॉक में टंडन जी की बिटिया नीरु को यह किताब दे दीजियेगा .'इसी तरह की सेवायें कॉलोनी की सभी लड़कियाँ पंडितजी से ले लिया करती थी .और ये सेवायें थी भी exclusive for girls .लड़कियों को पैदल कम चलना पडे ,उनका बाहर निकलना बच जाये ,पंडितजी के ये कुछ अपने कारण हो सकते हैं .पर यह सच है कि इस वजह से हम लड़कियाँ खुद को कुछ खास महसूस करते थे .पता नहीं आज के बच्चे इस बात को समझ पायेंगे या नहीं पर उस समय बहुत से घरों की लड़कियों को पंडितजी का यह काम एक अलग तरह की ख़ुशी देता था .कोई तो था जो कोई काम केवल उनके लिए करता था .कहीँ तो उन्हें अपने भाइयों से ज्यादा तवज्जो मिलाती थी .वो भी बुजुर्ग पंडितजी द्वारा ,जिनकी इज़्ज़त हर घर में होती थी .यूं शायद यह बहुत छोटी बात लगे पर जब अपना वजूद हर घडी दांव पर लगा अनुभव हो तो ये छोटे दिखने वाले काम और बाते ही तो आसमान की ओर खुलती खिडकी से नज़र आते हैं ।
इतना ही नही ,कॉलोनी के किसी भी घर के किसी भी दुखद समाचार की खबर वे बिना किसी के कहे कॉलोनी में उसके आत्मीय स्वजनों तक पहुचा देते थे ,फिर भला उसके लिए उन्हें कितना भी लम्बा चक्कर क्यों ना लगाना पडे या फिर से उसी ओर जाना पडे जहाँ से वे आ रहे होते थे । यह उनकी सरकारी ड्यूटी का हिस्सा तो था नही पर इसे भी वे उतनी ही गंभीरता ओर जिम्मेदारी से निभाते थे .मौसम के तेवर कितने भी बिगाड हुए क्यों ना हो पंडितजी बिना किसी रुकावट के अपना काम करते थे और वह भी अपनी चिर परिचित मुस्कराहट के साथ .ना उनके चेहरे पर कभी परेशानी झलकती थी ना उनकी आवाज़ में शिथिलता .जेठ का प्रचंड ताप हो ,मूसलाधार बारिश या फिर कडाके की सरदी पंडितजी की उपस्थिति हमारी दिनचर्या का अंग थी जैसे .घर गृहस्थी वाले आदमी थे ,रोज़ पास के गाँव से साइकिल चलाते हुए आते थे .परेशानियाँ ,झंझटें ,तो उनकी ज़िंदगी में भी आती ही रही होगीं पर उसका प्रभाव वे अपने काम और जिम्मेदारी पर नही पडने देते थे .और जिम्मेदारियां भी कैसी ,जिसमें से बहुत सारी तो उन्होने खुद ओढ़ रखी थी .हमारी कॉलोनी में पंडितजी की पोस्टिंग काफी लंबे समय तक रही थी .हमारी किशोरावस्था से हमारी शादी तक । इतने लंबे समय में मेरी याद में वे केवल एक बार छुट्टी गए थे .अपनी बिटिया की शादी के समय ।
हमारी बड़ी बहन जब शादी के बाद त्रिवेंद्रम चली गयीं थी तो पूरे घर को उनकी चिट्ठी का इन्तजार रहता था .हमारी अम्मा की बेचैनी और उत्कंठा का पंडितजी को पूरा पूरा अंदाजा रहता था .जिस बार जिज्जी की चिट्ठी ज़रा देर से आती थी ,वे अपना नियमित रास्ता छोड़ कर पहले चिट्ठी हमारे यहाँ पहुचाने आते थे भले ही उसके लिए उन्हें उल्टा चक्कर क्यों ना लगाना पडे .अम्मा के मन को दो घंटे पहले निश्चिन्तता पहुचाना ज्यादा मायने रखता था .बात केवल ससुराल गयी बिटिया की अम्मा के मन पडने की ही नही थी .पंडितजी को सबके मन में होने वाली उठा पटक का अंदाज़ा रहता था .किस बहु को मायके में होने वाली शादी के कार्ड का इन्तजार है ,किस लडके के लिए नौकरी का appointment लैटर जीवन मरण का प्रशन बना हुआ है ,किस बहु का moneyorder या चिट्ठी उसकी सास के हाथ में देने में कोई हर्ज़ नही है और किसके लिए मौका तलाशना है .पंडितजी की पकड़ हर नब्ज़ पर बिल्कुल सही थी ।
कॉलोनी में बडे हुए हर बच्चे की ज़िंदगी के हर महत्वपूर्ण पड़ाव में पंडितजी की साझेदारी थी .वे केवल आने वाली चिट्ठी ही नही पहुचाते थे वरन इन्तजार की जा रही चिट्ठी के ना आने की भी खबर दे जाते थे .'आजव नही आयी बिटिया/भैया 'कहते समय पंडितजी की आवाज़ में इतनी लाचारी होती थी कि चिट्ठी का इन्तजार करने वाला अपनी बेचैनी छुपाने लगता था .ऐसा लगता था कि वे चिट्ठी ला कर हाथ में नही रख पा रहे हैं तो जैसे चूक उनसे ही हो रही है ।
अपनी ड्यूटी के प्रती इतना गम्भीर होने का यह मतलब बिल्कुल नही था कि पंडितजी को हँसना चिढ़ाना नही आता था .और भी रस थे उनमे.पंडितजी पर यह पोस्ट हमारे romance में उनकी अहम भूमिका के जिक्र के बिना तो पूरा हो ही नही सकता .वो पंडितजी और हमारे कॉलोनी में आखिरी दिन थे .उनकी सेवानिवृति का समय पास आ रहा था और हमारे अम्मा बाबु की देहरी छोड़ने का .सुन्दर उन दिनों दिल्ली में थे .ई connectivity और ई मेल ,chat के जमाने वाले लोग समझ ही नही सकते कि चिट्ठी लिखने और उसके इन्तजार का मज़ा क्या होता है .क्या होती है धड़क्नो की रफ्तार हाथ में पकडे लिफाफे के खुलने से पहले .पर हमारे पंडित जी को सब पता था .हमने तो उस जमाने में भी दिल्ली और कानपूर की दूरी को बालिश्त भर का कर दिया था .और उसमे पंडितजी ने हमारा पूरा साथ दिया था .कभी कभी सबेरे नौ बजे ही गेट पर आवाज़ आती ,बिटिया लेव ,दिल्ली वाली चिट्ठी रहे ,तो हम कहे सबेरे पहुँचा देयी .तुम्हारे बैंक जाये से पहिले .और फिर साइकिल में चढ़ते चढ़ते अम्मा की ओर देख कर हस्नते हुए कहते ,'और का अब दिन भर चैन तो पड़ जई ।' यही नही एक दिन में आने वाली दो दो चिट्ठियों को भी वे सुबह शाम दोनो समय उतनी ही मुस्तैदी से पहुँचा जाते थे .पर हमे यह बताना भी नही भूलते थे कि यह वे मेरी मनोदशा के मद्देनज़र कर रहे है
तो ऐसे थे हमारे पंडितजी .हमारे दुःख सुख ,उतार चदाव में हमारे साथ .हमे तो ऐसा लगता है कि भगवान ने उन्हें डाकिया बनाने के हिसाब से ही बनाया था .he was cut for that job .
साभार : akshara
Labels:
अन्य ब्लॉग पर डाक / डाकिया,
डाकिया
Wednesday, January 20, 2010
चिट्ठियाँ हों इन्द्रधनुषी
जयकृष्ण राय तुषार जी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत के पेशे के साथ-साथ गीत-ग़ज़ल लिखने में भी सिद्धहस्त हैं. इनकी रचनाएँ देश की तमाम चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाती रहती हैं. मूलत: ग्रामीण परिवेश से ताल्लुक रखने वाले तुषार जी एक अच्छे एडवोकेट व साहित्यकार के साथ-साथ सहृदय व्यक्ति भी हैं. सीधे-सपाट शब्दों में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने वाले वाले तुषार जी ने पिछले दिनों डाकिया पर लिखा एक गीत इस ब्लॉग के सूत्रधार और भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कवि-ह्रदय कृष्ण कुमार यादव जी समर्पित करते हुए भेंट किया. इस खूबसूरत गीत को इस ब्लॉग के माध्यम से आप सभी के साथ शेयर कर रहा हूँ-
फोन पर
बातें न करना
चिट्ठियाँ लिखना।
हो गया
मुश्किल शहर में
डाकिया दिखना।
चिट्ठियों में
लिखे अक्षर
मुश्किलों में काम आते हैं,
हम कभी रखते
किताबों में इन्हें
कभी सीने से लगाते हैं,
चिट्ठियाँ होतीं
सुनहरे
वक्त का सपना।
इन चिट्ठियों
से भी महकते
फूल झरते हैं,
शब्द
होठों की तरह ही
बात करते हैं
यह हाल सबका
पूछतीं
हो गैर या अपना।
चिट्ठियाँ जब
फेंकता है डाकिया
चूड़ियों सी खनखनाती हैं,
तोड़ती हैं
कठिन सूनापन
स्वप्न आँखों में सजाती हैं,
याद करके
इन्हें रोना या
कभी हँसना।
वक्त पर
ये चिट्ठियाँ
हर रंग के चश्में लगाती हैं,
दिल मिले
तो ये समन्दर
सरहदों के पार जाती हैं,
चिट्ठियाँ हों
इन्द्रधनुषी
रंग भर इतना ।
-जयकृष्ण राय तुषार,63 जी/7, बेली कालोनी,
स्टेनली रोड, इलाहाबाद, मो0- 9415898913
फोन पर
बातें न करना
चिट्ठियाँ लिखना।
हो गया
मुश्किल शहर में
डाकिया दिखना।
चिट्ठियों में
लिखे अक्षर
मुश्किलों में काम आते हैं,
हम कभी रखते
किताबों में इन्हें
कभी सीने से लगाते हैं,
चिट्ठियाँ होतीं
सुनहरे
वक्त का सपना।
इन चिट्ठियों
से भी महकते
फूल झरते हैं,
शब्द
होठों की तरह ही
बात करते हैं
यह हाल सबका
पूछतीं
हो गैर या अपना।
चिट्ठियाँ जब
फेंकता है डाकिया
चूड़ियों सी खनखनाती हैं,
तोड़ती हैं
कठिन सूनापन
स्वप्न आँखों में सजाती हैं,
याद करके
इन्हें रोना या
कभी हँसना।
वक्त पर
ये चिट्ठियाँ
हर रंग के चश्में लगाती हैं,
दिल मिले
तो ये समन्दर
सरहदों के पार जाती हैं,
चिट्ठियाँ हों
इन्द्रधनुषी
रंग भर इतना ।
-जयकृष्ण राय तुषार,63 जी/7, बेली कालोनी,
स्टेनली रोड, इलाहाबाद, मो0- 9415898913
Labels:
पत्रों की दुनिया
Tuesday, January 19, 2010
एक नज़र यहाँ भी
कानपुर में साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों द्वारा 17 जनवरी, 2010 (रविवार) को आयोजित विदाई-समारोह के दौरान दैनिक जागरण अख़बार के "भाई साहब" स्तम्भ में कार्टून बनाने वाले अंकुश जी ने "डाकिया डाक लाया" ब्लाग के सूत्रधार कृष्ण कुमार यादव जी का डाकिया पर एक कार्टून बनाया और कार्यक्रम के दौरान भेंट किया. इसे आप भी देखें और आनंद उठायें.
Labels:
Cartoon,
के.के. यादव,
डाक विभाग की मशहूर हस्तियाँ,
डाकिया
Monday, January 18, 2010
ब्लागर- साहित्यकार-प्रशासक के.के. यादव के निदेशक बनने पर अभिनन्दन व विदाई
ब्लागिंग और साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय तथा भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव व "डाकिया डाक लाया" ब्लाग के सूत्रधार को निदेशक पद पर प्रोन्नति के उपलक्ष्य में कानपुर में 17 जनवरी, 2010 को आयोजित एक समारोह में भावभीनी विदाई दी गई। केंद्र सरकार के एक अधिकारी के साथ-साथ साहित्यकार व ब्लागर के रूप में चर्चित केके यादव की विदाई पर कानपुर में आयोजित इस कार्यक्रम में तमाम प्रमुख साहित्यकार, बुद्विजीवी, शिक्षाविद, पत्रकार, अधिकारीगण मौजूद थे।
इस मौके पर कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार पद्मश्री गिरिराज किशोर ने कहा कि प्रशासन के साथ-साथ साहित्यिक दायित्वों का निर्वहन बेहद जटिल कार्य है पर कृष्ण कुमार यादव ने इसका भलीभांति निर्वहन कर रचनात्मकता को बढ़ावा दिया। गिरिराज किशोर ने इस बात पर जोर दिया कि आज समाज और राष्ट्र को ऐसे ही अधिकारी की जरूरत है जो पदीय दायित्वों के कुशल निर्वहन के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं से भी अपने को जोड़ सके। जीवन में लोग ऐसे पदों पर आते-जाते हैं, पर मनुष्य का व्यक्तित्व ही उसकी विराटता का परिचायक होता है। मानस संगम के संयोजक डॉ बद्री नारायण तिवारी ने कहा कि केके यादव जहां एक कर्तव्यनिष्ठ एवं ईमानदार अधिकारी की भूमिका अदा कर रहे हैं, वहीं एक साहित्य साधक एवं सशक्त रचनाधर्मी के रूप में भी अपने दायित्वों का बखूबी निर्वहन कर रहे हैं। विशिष्ट अतिथि के रुप में उपस्थित टीआर यादव, संयुक्त निदेशक कोषागार, कानपुर मण्डल ने एक कहावत के माध्यम से साहित्यकार केके यादव को इंगित करते हुए कहा कि कोई भी पद महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि उसे धारण करने वाला व्यक्ति अपने गुणों से उसे महत्वपूर्ण बनाता है। एक ही पद को विभिन्न समयावधियों में कई लोग धारण करते हैं पर उनमें से कुछ ही पद और पद से परे कार्य करते हुए समाज में अपनी अमिट छाप छोड़ पाते हैं, केके यादव इन्हीं में एक हैं। समाजसेवी एवं व्यवसायी सुशील कनोडिया ने कहा कि यह कानपुर का गौरव है कि केके यादव जैसे अधिकारियों ने न सिर्फ यहां से बहुत कुछ सीखा बल्कि यहां लोगों के प्रेरणास्त्रोत भी बने।
वरिष्ठ बाल साहित्यकार डॉ राष्ट्रबन्धु ने अपने अनुभवों को बांटते हुए कहा कि वे स्वयं डाक विभाग से जुड़े रहे हैं, ऐसे में केके यादव जैसे गरिमामयी व्यक्तित्व को देखकर हर्ष की अनुभूति होती है। सामर्थ्य की संयोजिका गीता सिंह ने कहा कि बहुआयामी प्रतिभा सम्पन्न श्री यादव अपने कार्यों और रचनाओं में प्रगतिवादी हैं और जमीन से जुडे़ हुए व्यक्ति हैं। उत्कर्ष अकादमी के निदेशक डॉ प्रदीप दीक्षित ने कहा कि केके यादव इस बात के प्रतीक हैं कि साहित्य हमारे जाने-पहचाने संसार के समानांतर एक दूसरे संसार की रचना करता है और हमारे समय में हस्तक्षेप भी करता है। जेके किड्स स्कूल के प्रबन्धक इन्द्रपाल सिंह सेंगर ने श्री यादव को युवाओं का प्रेरणास्त्रोत बताया। केके यादव पर संपादित पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर‘‘ के संपादक दुर्गाचरण मिश्र ने कहा कि उनकी नजर में वे डाक विभाग के पहले ऐसे अधिकारी हैं, जिन्होंने नगर में रहकर नये कीर्तिमान स्थापित किये। इसी कारण उन पर पुस्तक भी संपादित की गई। प्रेस इन्फारमेशन ब्यूरो इंचार्ज एमएस यादव ने आशा व्यक्त की कि श्री यादव जैसे कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों के चलते लोगों का साहित्य प्रेम बना रहेगा। नगर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ एसपी शुक्ल ने कहा कि श्री यादव कम समय में ज्यादा उपलब्धियों को समेटे न सिर्फ एक अधिकारी हैं बल्कि साहित्य-कला को समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए कटिबद्ध भी दिखते हैं। कवयित्री गीता सिंह चौहान ने श्री यादव की संवेदनात्मक अनुभूति की प्रशंसा की। सहायक निदेशक बचत राजेश वत्स ने श्री यादव के सम्मान में कहा कि वे डाक विभाग जैसे बड़े उपक्रम में जो अपने कठोर अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा व ईमानदारी के लिए प्रसिद्ध है। जिला बचत अधिकारी विमल गौतम ने श्री यादव के कार्यकाल के दौरान महत्वपूर्ण उपलब्धियों को इंगित किया तो सेवानिवृत्त अपर जिलाधिकारी श्यामलाल यादव ने श्री यादव को एक लोकप्रिय अधिकारी बताया।
केके यादव ने इस अवसर पर कहा कि अब तक कानपुर में उनका सबसे लम्बा कार्यकाल रहा है और इस दौरान उन्हें यहां से बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। यहां के परिवेश ने न सिर्फ उनकी सृजनात्मकता में वृद्धि की बल्कि उन्नति की राह भी दिखाई। वे विभागीय रूप में भले ही यहां से जा रहे हैं पर कानपुर से उनका भावनात्मक संबंध हमेशा बना रहेगा। केके यादव की प्रोन्नति के अवसर पर नगर की तमाम साहित्यिक-सामाजिक संस्थाओं ने अभिनन्दन एवं सम्मान किया। इनमें मानस संगम, उप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन युवा प्रकोष्ठ, विधि प्रकोष्ठ, सामर्थ्य, उत्कर्ष अकादमी, मानस मण्डल जैसी तमाम चर्चित संस्थाएं शामिल हैं।
दैनिक जागरण में "भाई साहब" स्तम्भ के चर्चित कार्टूनिस्ट अंकुश जी ने इस अवसर पर के.के. यादव का एक चित्र भी बनाकर भेंट किया.
Labels:
के.के. यादव,
खबरें,
बधाई
Sunday, January 17, 2010
डाकिया डाक लाया
डाकिया डाक लाया
डाक लाया
ख़ुशी का पयाम कहीं दर्दनाक लाया
डाकिया डाक लाया ...
इन्दर के भतीजे की साली की सगाई है
ओ आती पूरणमासी को क़रार पाई है
मामा आपको लेने आते मगर मजबूरी है
बच्चों समेत आना आपको ज़रूरी है
दादा तो अरे रे रे रे दादा तो गुज़र गए दादी बीमार है
नाना का भी तेरहवां आते सोमवार है
छोटे को प्यार देना बड़ों को नमस्कार
मेरी मजबूरी समझो कारड को तार
शादी का संदेसा तेरा है सोमनाथ लाया
डाकिया डाक लाया ...!!
ऐ डाकिया बाबू
क्या है री
छः महीना होई गवा ख़त नहीं लिखीं
ख़त नहीं लिखीं
बोल क्या लिखूँ
बस जल्दी से आने का लिख दे
बिरह में कैसे-कैसे काटीं रतियाँ
सावन सुनाए बैरी भीगी-भीगी बतियाँ
अग्नि की जलन में जले बावरिया
ओ नौकरिया छोड़ के तू आ जाना साँवरिया
आजा रे साँवरिया आजा बैसाख आया
डाकिया डाक लाया ...!!
(पलकों की छाहों में फिल्म का एक चर्चित गाना, जिसे गुलजार जी ने लिखा और किशोर कुमार तथा वंदना शास्त्री ने स्वर दिया)
डाक लाया
ख़ुशी का पयाम कहीं दर्दनाक लाया
डाकिया डाक लाया ...
इन्दर के भतीजे की साली की सगाई है
ओ आती पूरणमासी को क़रार पाई है
मामा आपको लेने आते मगर मजबूरी है
बच्चों समेत आना आपको ज़रूरी है
दादा तो अरे रे रे रे दादा तो गुज़र गए दादी बीमार है
नाना का भी तेरहवां आते सोमवार है
छोटे को प्यार देना बड़ों को नमस्कार
मेरी मजबूरी समझो कारड को तार
शादी का संदेसा तेरा है सोमनाथ लाया
डाकिया डाक लाया ...!!
ऐ डाकिया बाबू
क्या है री
छः महीना होई गवा ख़त नहीं लिखीं
ख़त नहीं लिखीं
बोल क्या लिखूँ
बस जल्दी से आने का लिख दे
बिरह में कैसे-कैसे काटीं रतियाँ
सावन सुनाए बैरी भीगी-भीगी बतियाँ
अग्नि की जलन में जले बावरिया
ओ नौकरिया छोड़ के तू आ जाना साँवरिया
आजा रे साँवरिया आजा बैसाख आया
डाकिया डाक लाया ...!!
(पलकों की छाहों में फिल्म का एक चर्चित गाना, जिसे गुलजार जी ने लिखा और किशोर कुमार तथा वंदना शास्त्री ने स्वर दिया)
Wednesday, January 13, 2010
चिट्ठी की गरमाहट एक बार फिर महसूस करें
अब फोन, मोबाइल, वीडियो कांफ्रेंसिंग, फैक्स, ई-मेल और कूरियर का ज़माना है। वे दिन गए, जब लोगों के मशहूर होते ही उनकी चिट्ठियों के संग्रह भी किताब के रूप में छप जाया करते थे। अब तो चिट्ठी लिखना-पढ़ना आउट ऑफ फैशन है तो डाकघर और उनके लाल डिब्बे भी कल की बात हो लिए, लेकिन याद कीजिए, वे भी क्या दिन थे, जब हर घर में डाकिये का, फौज से साल में एक बार महीने भर की छुट्टी पर आने वाले बीरन की तरह इंतज़ार होता था। डाकिया घर के एक सदस्य जैसा होता था। कोई भी नाराज़ हो जाए, डाकिया राजा को नाराज़ करने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पाता था। रक्षाबंधन पर बहनों के शगुन के 11 रुपये के मनीऑर्डर में से भी वह एक रुपया लेता था, लेता क्या था - दिए जाते थे... हंसकर... सरकार नाराज़ हो गए और चिट्ठी न लाए तो...
मेरे पिता आधे गांव की चिट्ठी लिखते थे और आधे की पढ़ते थे। दो कार्ड हमेशा सूती बंडी की जेब में रखते थे। पता नहीं, कब किसकी चिट्ठी लिखनी पड़ जाए। चिट्ठी लिखने पर कार्ड के पांच पैसे और लिखाई का एक ग्लास दूध तो मिलता ही था, दुनिया-जहान की दुआएं भीं। शहर गए तो हर घर से चिट्ठी जमा करके ले जाते थे डालने के लिए। लौटते थे तो जिस-जिसकी चिट्ठी डाकघर में पड़ी होती थीं, लेकर आते थे। लब्बोलुबाब यह कि चिट्ठी लाना-ले जाना पानी पिलाने से भी बड़ा पुण्य माना जाता था।
रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बुरी तरह से गुथे हुए डाक, डाकिया और डाकघर हमारी पीढ़ी ने देखे हैं। जाने-माने हिल स्टेशनों पर जिस तरह माल रोड या पर्वतीय शहरों में पलटन बाज़ार होते हैं, उसी तरह मैदान के हर शहर में गांधी रोड और डाकखाने वाली गली होती थीं... एक नहीं, कई-कई। नए डाकखाने वाली गली, पुराने डाकखाने वाली गली, बड़े डाकखाने वाली गली छोटे डाकखाने वाली गली। अब... सच बताइए, कितने साल पहले आप डाकघर गए थे।
साइंस बहुत आगे चला गया है - डाक टिकट, पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय और लिफाफों के लिए एटीएम जैसी मशीनें भी वहां लगवा दीजिए... सामाजिक संपर्क फिर ज़िदा हो जाएंगे। मां दूर रह रही बेटी की राजी-खुशी के खत का इंतज़ार करेगी और बाप अपने बेटे के प्रमोशन की चिट्ठी की बाट जोहेगा। बैरंग चिट्ठी आने पर ब्लड प्रेशर बढ़ने-घटने से रक्त संचार भी ठीक रहेगा।
सौ बातों की एक बात, चिट्ठी-पत्री हमारे सामाजिक ताने-बाने का एक धागा रही हैं, इतना मजबूत धागा कि जो संपर्क बना दिए, वे 5, 10 या 15 पैसे के कार्ड ने ज़िंदगी भर चलाए - लेकिन विकास इतिहास को खा रहा है। गणित बड़ा दकियानूसी-सा है, लेकिन तथ्यों पर खरा है कि जितना विकास होता है, उतना ही इतिहास दफन होता है। डाक, डाकिया और डाकघर के साथ यही हो रहा है। तरक्की के साथ उनका इतिहास और हमारी यादें दफन हो रही हैं। लेकिन इतनी आसानी से ऐसा मत होने दो यारों, अपनों को रोज़ न सही, हफ्ते में न सही महीने में तो एक चिट्ठी लिखो। मेरे कहने पर, किताबों और कपड़ों के बीच में छिपाकर रखी गई चिट्ठी के पकड़े जाने का डर और तकिये के नीचे रखी उस चिट्ठी की गरमाहट एक बार फिर महसूस तो करके देखो।
साभार : अजय शर्मा
मेरे पिता आधे गांव की चिट्ठी लिखते थे और आधे की पढ़ते थे। दो कार्ड हमेशा सूती बंडी की जेब में रखते थे। पता नहीं, कब किसकी चिट्ठी लिखनी पड़ जाए। चिट्ठी लिखने पर कार्ड के पांच पैसे और लिखाई का एक ग्लास दूध तो मिलता ही था, दुनिया-जहान की दुआएं भीं। शहर गए तो हर घर से चिट्ठी जमा करके ले जाते थे डालने के लिए। लौटते थे तो जिस-जिसकी चिट्ठी डाकघर में पड़ी होती थीं, लेकर आते थे। लब्बोलुबाब यह कि चिट्ठी लाना-ले जाना पानी पिलाने से भी बड़ा पुण्य माना जाता था।
रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बुरी तरह से गुथे हुए डाक, डाकिया और डाकघर हमारी पीढ़ी ने देखे हैं। जाने-माने हिल स्टेशनों पर जिस तरह माल रोड या पर्वतीय शहरों में पलटन बाज़ार होते हैं, उसी तरह मैदान के हर शहर में गांधी रोड और डाकखाने वाली गली होती थीं... एक नहीं, कई-कई। नए डाकखाने वाली गली, पुराने डाकखाने वाली गली, बड़े डाकखाने वाली गली छोटे डाकखाने वाली गली। अब... सच बताइए, कितने साल पहले आप डाकघर गए थे।
साइंस बहुत आगे चला गया है - डाक टिकट, पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय और लिफाफों के लिए एटीएम जैसी मशीनें भी वहां लगवा दीजिए... सामाजिक संपर्क फिर ज़िदा हो जाएंगे। मां दूर रह रही बेटी की राजी-खुशी के खत का इंतज़ार करेगी और बाप अपने बेटे के प्रमोशन की चिट्ठी की बाट जोहेगा। बैरंग चिट्ठी आने पर ब्लड प्रेशर बढ़ने-घटने से रक्त संचार भी ठीक रहेगा।
सौ बातों की एक बात, चिट्ठी-पत्री हमारे सामाजिक ताने-बाने का एक धागा रही हैं, इतना मजबूत धागा कि जो संपर्क बना दिए, वे 5, 10 या 15 पैसे के कार्ड ने ज़िंदगी भर चलाए - लेकिन विकास इतिहास को खा रहा है। गणित बड़ा दकियानूसी-सा है, लेकिन तथ्यों पर खरा है कि जितना विकास होता है, उतना ही इतिहास दफन होता है। डाक, डाकिया और डाकघर के साथ यही हो रहा है। तरक्की के साथ उनका इतिहास और हमारी यादें दफन हो रही हैं। लेकिन इतनी आसानी से ऐसा मत होने दो यारों, अपनों को रोज़ न सही, हफ्ते में न सही महीने में तो एक चिट्ठी लिखो। मेरे कहने पर, किताबों और कपड़ों के बीच में छिपाकर रखी गई चिट्ठी के पकड़े जाने का डर और तकिये के नीचे रखी उस चिट्ठी की गरमाहट एक बार फिर महसूस तो करके देखो।
साभार : अजय शर्मा
Labels:
इतिहास से,
डाकिया,
पत्रों की दुनिया
Monday, January 11, 2010
एक चिट्ठी ने बदला देवानंद का भाग्य
भारत के स्क्रीन लिजेंड्स की अगर कभी लिस्ट बनाई जाएगी तो उसमें हिंदी फ़िल्मों के सदाबहार अभिनेता और निर्माता-निर्देशक देव आनंद साहब का नाम सबसे ऊपर शुमार होगा. पर बहुत काम लोगों को पता होगा कि उनके कैरियर की शुरुआत चिट्ठियों के साथ हुई थी. जी हाँ देवानंद साहब की उम्र जब बमुश्किल 20-21 साल की थी, तो 1945 में उन्हें पहला ब्रेक मिला. नहीं समझे न आप, देवानंद साहब को सेना में सेंसर ऑफ़िस में पहली नौकरी मिली. उस समय दितीय विश्व-युद्ध चल रहा था. उनका काम होता था फ़ौजियों की चिट्ठियों को सेंसर करना. सच में एक से एक बढ़कर रोमांटिक चिट्ठियाँ होती थी. एक चिट्ठी का ज़िक्र स्वयं देवानंद साहब बड़ी दिल्लगी से करते हैं, जिसमें एक मेजर ने अपनी बीवी को लिखा कि उसका मन कर रहा है कि वो इसी वक़्त नौकरी छोड़कर उसकी बाहों में चला आए. बस इसी के बाद देवानंद साहब को भी ऐसा लगा कि मैं भी नौकरी छोड़ दूँ. बस फिर छोड़ दी नौकरी, लेकिन क़िस्मत की बात है कि उसके तीसरे ही दिन उन्हें प्रभात फ़िल्म्स से बुलावा आ गया और 1947 में प्रभात बैनर की पहली फ़िल्म ‘हम एक हैं’ आई.
Saturday, January 9, 2010
चिठ्ठी में बंद यादें
मेहरुन्निसा परवेज़ का नाम साहित्य की दुनिया में जाना-पहचाना है. उनसे मेरा परिचय "समर लोक" पत्रिका के "युवा विशेषांक" के प्रकाशन के दौरान हुआ, उस समय मैं भोपाल में ट्रेनिंग ले रहा था. बाद में मेहरुन्निसा परवेज़ जी को पद्मश्री भी मिला. हाल ही में उन्होंने समर लोक का 'डाक' पर एक विशेषांक भी निकाला था. पत्रों पर मेरा भी एक लेख प्रकाशित किया, पर उसकी प्रति मुझे आज तक नहीं मिली....वैसे भी इंतजार का अपना अलग मजा होता है. कभी-न-कभी कोई शुभचिंतक पत्रिका की प्रति दे ही जायेगा. अभी मेहरुन्निसा परवेज़ जी का एक संस्मरण "चिठ्ठी में बंद यादें" पढ़ रहा था, जिसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है, आप भी इसके साझीदार बनें-
कहते हैं व्यक्ति के निर्माण में उसकी जन्म कुंडली के शुभ और अशुभ ग्रहों का विशेष प्रभाव होता है। हर ग्रह अपने भावों के साथ बैठा होता है, जिससे व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का आकलन किया जा सकता है। ऐसे ही बचपन में पाए संस्कार हमारे साथ जीवन भर रहते हैं। हमारी उंगली पकड़कर हमें दौड़ाते हैं।
उस दिन पुरानी आलमारी की सफाई कर रही थी। उसमें जाने कितने वर्षों पुराना अटाला भरा था। एक गट्ठर वहाँ रखा था। खोला तो पुरानी चिट्ठियों का बँधा ढेर था। हर चिट्ठी के साथ एक स्मृति और उसका इतिहास जुड़ा था। अम्मा के खत, अब्बा के लम्बे कई-कई पन्नों वाले पत्र और भी जाने कितने मित्रों के, पाठकों के पत्र थे। याने खत ही खत मेरे सामने थे। लिखने वालों में अब अधिकांश इस संसार में जीवित नहीं थे, पर उन चिट्ठियों में उस व्यक्ति की अपनी छवि, आब और वजूद वैसा ही बरकरार था। पोस्टकार्ड पर, लिफ़ाफ़ों पर उस समय की तारीखें और सन के साथ डाकघर की मोहर मौजूद थी। पोस्टकार्ड केवल अम्मा के थे। वह अपने खत पोस्टकार्ड पर ही लिखवाती थीं। आज भी किसी का पोस्टकार्ड पर लिखा खत आया है, तो एकदम से अम्मा की याद की फुरेरी कौंध जाती हैं। कितनी ढेर-ढेर स्मृतियों ने एक साथ आकर मुझे घेर लिया। स्मृतियों के हो-हल्ले और शोर ने मुझे बीते दिनों में पहुँचा दिया। हर स्मृति की अपनी अलग-अलग महक थी। जैसे किसी पुराने इत्रदान में रखे फोहा की महक। इत्र खत्म हो गया पर उसकी खुशबू उसमें अभी भी बसी थी। अब्बा के लम्बे पत्रों में दुनिया की, समाज की बातें और अन्त में नन्हा-सा एक आश्वासन, जो हमेशा मेरे काँपते कमज़ोर पैरों को ताकत देता था।
अम्मा के खुद के लिखे उर्दू के या फिर किसी के द्वारा लिखाए हिन्दी के खत और अन्त में बतौर तसदीक में उनके वही टेढ़े-मेढ़े हिन्दी के हस्ताक्षर, जिसे मैंने उन्हें कभी चौथी कक्षा में पढ़ते समय लिखना सिखाया था। टूटे-फूटे शब्द वाले हस्ताक्षर जो बाद में बैंक से लेकर जायदाद के दस्तावेज़ों में भी चलने लगे थे। अम्मा के हस्ताक्षर उनकी उपस्थिति को दर्ज कराता था। यह सारे पत्र अब मेरे लिए ज़िन्दगी के कीमती धरोहर थे। अम्मा के खतों में घर-परिवार और उनकी अपनी निजी बातें। लगता जैसे अम्मा बस सामने बैठी हैं और बोल रही हैं। हर शब्द के साथ उनकी ममता होती और दबी-छुपी गुप्त रहस्य की बातें होतीं। हर शब्द के पीछे तहखाना छुपा होता। अम्मा की इन्हीं बातों ने क्या मुझे हमेशा थामे नहीं रखा था? संसार के किसी कानून को नहीं मानने वाला मन इन्हीं हिदायतों की पाबंदी को कभी लांघ नहीं पाया था।
छोटी थी तब अम्मा के दुख-सुख की इकलौती गवाह थी। अम्मा की कितने दिनों की चिरौरी पर स्कूल के रास्ते में जो डाकघर पड़ता था, वहाँ से एक पोस्टकार्ड ख़रीद कर लाती और लौटकर अम्मा के हाथ में पोस्टकार्ड रख देती, जिसे वह झट अपने आँचल में छुपा लेतीं। अपने विद्वान पति से वह डरती थीं। देख लेने पर वह मखौल उड़ाते। इसलिए जब वह लम्बे दौरे पर होते और रात जब मैं पढ़ रही होती, तो कई बार झाँक कर देखतीं फिर चुपचाप आकर बैठ जातीं। मैं भी उनकी उत्सुकता, बेचैनी को ताड़ जाती, इसलिए जल्दी ही पढ़ाई खत्म करके उनका खत लिखने बैठ जाती। वह अपने अब्बा को और अपने इकलौते भाई को खत लिखातीं। वह बोलती जातीं और याद कर-कर रोती जातीं। कितनी ढेर बातें वह कहतीं फिर मना करतीं, "नहीं, नहीं, इसे मत लिखना वह लोग मेरे दु:खों का पता पा लेंगे।" अम्मा की कितनी ढेर बातें जो लिखाई नहीं जातीं। उन रद्द की गई बातों का ढेर मेरे आगे कचरे की तरह इकठ्ठा होता रहता। मुझे भी पता था अम्मा दस बात कहेंगी और एक बात लिखने कहेंगी इसलिए खुद ही उन बातों को संशोधन कर जो ठीक लगता उसे लिख देती। क्या आज के संपादक होने का गुण अम्मा के द्वारा लिखाए गए ख़तों से आया था? बचपन में अब्बा के दो वर्ष बीमार रहने के कारण उनके द्वारा लिखाए कोर्ट के फ़ैसले लिखते-लिखते मैं लेखिका बन गईं थी। क्या बाल मज़दूर की भूमिका में मुझे भविष्य के लिए मेरे माता-पिता गढ़ रहे थे? गीली माटी को सान-सान कर पच-पच लोंदो को थोप-थोप कर एक मूरत तैयार कर रहे थे? आज अम्मा नहीं हैं, ज़िंदा होतीं तो कहती, "रहने दे इसे मत लिख, ऐसा कहीं कोई संपादकीय लिखता है?"
स्कूल के रास्ते में डाकघर था। सड़क पर ही लाल पोस्ट बॉक्स लगा था जिसे हम बच्चे भानुमती का डिब्बा कहते थे। हमारी यह परिकल्पना थी कि इसके अन्दर एक जिन्न बंद है जो हर समस्या को सुलझा सकता है। बहुत छोटी थी, शायद पहली कक्षा में पढ़ती थी। किसी ने बताया था इसमें चिट्ठी डालते है जो कहीं भी पहुँच सकती है। नन्हें मन में एक विचार कौंधा और झट से अपनी कक्षा की कापी का पन्ना फाड़कर एक पत्र टूटी भाषा में दौरे पर गए अब्बा को लिखा था। ढेर सारे तोहफ़े लाने की फ़रमाइशें थीं, मेरे जीवन का वह पहला पत्र था। वह तोहफ़े तो कभी नहीं आए पर एक दिन जब उसी पत्र को डाकघर के पीछे कचरे के ढेर पर पड़ा देखा तो डाकघर वालों पर बहुत गुस्सा आया और उन्हें सजा देने का सोचा। रोज़ पोस्ट बॉक्स में ढेर-ढेर कंकड़-पत्थर-मेंढक डालने लगी। डाकघर वाले परेशान। एक दिन पोस्ट-मास्टर ने छुपकर पकड़ लिया। मेरी शिकायत पर उन्होंने समझाया, बेटा, पत्र लिफ़ाफ़े में रख, पता लिखकर उसे गोंद से चिपका कर भेजा जाता है। वह सबक आज तक रटा हुआ है। उसके बाद कभी मेरा कोई पत्र गुम नहीं हुआ। मुझे लिखे मेरे पाठकों के पत्र भी कभी गुम नहीं हुए। किसी ने सिर्फ़ मेरा नाम तथा भारत लिखा तो वह पत्र घूम-घूमकर सालों बाद भी मिला पर ज़रूर मिला। कई बार तो डेड-बॉक्स में पड़े रहने के बाद पोस्ट-मास्टर के लिखे पत्र के साथ मुझे भेजा गया। मैंने जो बचपन में डाकघर वालों को सजा दी थी, क्या यह उसी का परिणाम था?
खाकी वर्दी में पत्रों का थैला लटकाए हाथों में पत्रों का गट्ठर लिए उस अजनबी व्यक्ति का सबको इंतज़ार रहता है। खुशी की खबर, दु:खों की सूचना लिए दौड़ता वह डाकिया कितना अपना, निकट का व्यक्ति लगता है। वह सरकारी व्यक्ति है, यह बात मानने को मन तैयार नहीं होता। डाकिया की जो परिभाषा हमने जानी और समझी है, उसमें वह केवल सन्देश वाहक ही नहीं हैं बल्कि दूरस्थ अंचलों में बसे अनपढ़ों के लिए तो वह पत्रवाचक तथा पत्रलेखक भी है। वह हमारी संवेदना का श्रोत और खुशियों का हिस्सेदार भी है। एक छोटा-सा कर्मचारी हमारी ज़िन्दगी में किस तरह घुल-मिल गया है, कि उसका आगमन एक सरकारी कर्मचारी की तरह नहीं, भावनाओं के बादलों की तरह वह हमारे आँगन में दुख-सुख की बरसात करने वाले व्यक्ति के रूप में हम उसे जानते हैं। उसके थैले में हमारे अरमानों के और खुशियों के हीरे-मोती भरे होते हैं। सूरज के साथ वह निकलता है और मनुष्य के निस्सार जीवन में कितना रंग, कितनी हलचल और उथल-पुथल भर देता है।
'विरहा प्रेम की जागृत गति है और सुषुप्ति मिलन है।' वियोग की असह्य पीड़ा का निदान सन्देश से ही संभव है। सीताहरण के पश्चात राम निर्जन कानन में भटकते हुए पूछते हैं, "हे खग मृग हो मधुकर श्रेनी, तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।" मारू के बाल विवाह के पश्चात जब वह यौवन को प्राप्त होती है तब वह अपने पति ढोला से मिलने के लिए बेचैन है। मन के अंतरतम दर्द की गोपनीयता बनाए रखने के लिए तोते के माध्यम से सन्देश भेजती है। इस प्रकार अपने प्रियतम को सन्देश पहुँचाने की बेचैनी में लोगों ने वृक्ष, पर्वत, तोते, कबूतर, भँवरे एवं बादलों का सहारा लिया। कुटनी के सहारे अपने सन्देश पहुँचाने की कोशिश की है। कहीं अपनी अंगूठी, वस्त्र चिन्ह और रंग के माध्यम से अपने संदेश पहुँचाए हैं। मनुष्य को अपने सामाजिक संबंधों को निभाने तथा मन की भावनाओं को दूसरे तक पहुँचाने के उपक्रम में कितना भटकना पड़ा है। सदियों बाद डाकिया के उदय होने के पश्चात उसने राहत की सांस ली है। सन्देश संप्रेषण के रूप में जनभावना के संरक्षक की तरह उसने मानव इतिहास में एक अद्वितीय भूमिका निभाई है।
पत्रों ने जहाँ प्रेमियों को राहत दी, वहीं कई षड़यंत्र भी रचे और गवाह भी बने, पत्रों ने क्रांति की। बड़े साम्राज्यों के उत्थान-पतन के कारण बने। पत्रों से ग़लतफहमियाँ भी हुईं। इस तरह पत्रों ने उत्पात भी मचाया। पत्रों के माध्यम से अपराध पकड़े गए। आत्महत्या के समय लोग पत्र लिखकर मर जाते हैं, अन्त समय भी मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति पत्र से ही कर पाता है। सामाजिक संबंधों के पत्र, शादी-ब्याह के संदेश। आदिवासी इलाकों में लाल मिर्च, कमल का फूल युद्ध के संदेश माने जाते थे। बादशाह अकबर को रानी दुर्गावती ने पत्र लिखा था। रानी दुर्गावती ने सूत कातने का करघा अकबर को भेजा था कि बूढ़े हो गए घर बैठकर सूत कातो। अकबर ने उत्तर में चूड़ियाँ भेजी थीं कि - चूड़ी पहनो और घर बैठो। मीराबाई जब सामाजिक तानों और यातना से परेशान थी। साधु संगत से जोड़कर उस पर नाना प्रकार के आरोप लगाए जा रहे थे तब उसने तुलसी को पद में पत्र लिखा था। तुलसी ने भी उसका उत्तर पद से ही दिया था।
क्या टेलीफ़ोन, इन्टरनेट के फैलते जाल में अब डाकिया गुम होकर रह जाएगा? हर घर, हर गली में लगी फ़ोन सुविधा अब चिट्ठियाँ लिखने का रिवाज़ ही ख़त्म कर देंगी। सेलुलर फोन पर सड़क चलते, कार में, ट्रेन एवं एरोप्लेन में भी लोग खबर लेते रहते हैं कि पहुँच रहे हैं, क्या खाना पका, नींद आई या नहीं, तबीयत कैसी है, आदि। इसी प्रकार इंटरनेट संदेशों के आदान-प्रदान के साथ ही किसी विषय पर विचार, दवा के नुसख़े तथा अजनबियों से विचार-विमर्श। यहाँ तक कि सबेरे आनेवाला अखबार, लेख एवं पुस्तकों की पांडुलिपि तक बिना समय बिताए पढ़ सकते हैं। इतनी ढेर-ढेर सुविधाओं ने क्या मानवीय संवेदनाओं की बेल को सुखा नहीं दिया है? आज समय ही समय है परन्तु एहसास की, भावनाओं की कमी हो गई है, मन के भावों का समूचा ताल ही जैसे सूख गया है। नए संचार माध्यमों की जलकुंभी में सहज संदेशों के मनोहारी कमल क्या गुम हो जाएँगे, यह समय ही बताएगा।
Labels:
डाकिया,
पत्रों की दुनिया
Monday, January 4, 2010
चिठ्ठियाँ
आज एक ब्लॉग पढ़ा जिसमे चिठ्ठियों का जिक्र था, पढ़ कर कई सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं। मैं जब कक्षा ४ में थी तब हम लोग रतलाम से झाबुआ जिले के एक छोटे से गांव रानापुर में ट्रान्सफर हो कर गए थे । वह अपनी सहेलियों से बिछड़ने का पहला मौका था। आंसू भरी आँखों से उन सभी से उनका पता लिया और चिठ्ठी लिखने का वादा भी लिया। बचपन के वादे ज्यादा सच्चे होते है,इसीलिए सभी सहेलियों ने उसे ईमानदारी से निभाया, लगभग हर हफ्ते मुझे एक पोस्टकार्ड मिलाता, और मै उतनी ही ईमानदारी से उसका जवाब भी देती। हाँ इतना जरूर था की में एक हफ्ते में एक सहेली को पत्र लिखती थी और उसमे ही बाकियों को भी उनके प्रशनों या कहें की जिज्ञासाओं का जवाब दे देती थी। उस गाँव से ट्रान्सफर होने पर हम इंदौर आये । अब मेरा सखियों का संसार विस्तृत हो गया था,उसमे रतलाम और रानपुर की सहेलिया थीं,और सभी पूरे मन से इस दोस्ताने को निभा रही थी। इंदौर में ४ सालो के दौरान कई सहेलियां बनी पर शायद किसी से भी उतने मन से नहीं जुड़ पायी,इसी लिए इंदौर छोड़ने के बाद किसी से पत्रों के जरिये सतत संपर्क नहीं रहा। अब तक रतलाम की सहेलियों से भी पत्रों का सिलसिला टूट सा गया था ,एक तो उनसे दुबारा मिलाना नहीं हुआ ,दूसरे उनका भी एक नया दायरा बन गया था,पर हाँ उनकी यादे जरूर दिमाग के किसी कोने में बसी थी कुछ टूटी-फूटी ही सही पर थी जरूर। इसके आगे भी यादों, दोस्ती और पत्रों का सफ़र जारी रहा...!!
साभार : kase kahun?
साभार : kase kahun?
Saturday, January 2, 2010
डाकिया बीमार है
मोबाइल क्रान्ति के इस युग में रामकुमार कृषक जी के ये कविता बहुत से लोगों को चकित कर सकती है। मगर सिर्फ एक दशक पहले तक इस देश में डाकिये के संदर्भ वाले य़े नज़ारे हुआ करते थे। यकीनन आज भी होंगे, मगर नई पीढी यह मान चुकी है कि देश के कोने कोने में सेल फोन बज रहे हैं-
सोचकर बैठी है घर से डाकिया बीमार है
बेखबर आंगन, खबर से डाकिया बीमार है
गांव, घर व पगडण्डियां, सड़कें वही मोटर वही
पर खुशी आए किधर से डाकिया बीमार है
दो महीने हो गए पैसा नहीं , पाती नहीं
कुछ न कुछ आता शहर से , डाकिया बीमार है
सैकड़ों खतरे सदा, परदेस का रहना बुरा
सूखना हरदम फिकर से डाकिया बीमार है
आंख दायीं लैकती है और सपने भी बुरे
बिल्लियां रोती हैं स्वर से डाकिया बीमार है
बाल बच्चों का न उसका पैरहन साबुत रहा
खुलनेवाले हैं मदरसे डाकिया बीमार है
भूख , बेकारी, दवादारू कुबेरों की नज़र
हर कदम लड़ना जबर से डाकिया बीमार है
-रामकुमार कृषक
साभार : शब्दों का सफर
सोचकर बैठी है घर से डाकिया बीमार है
बेखबर आंगन, खबर से डाकिया बीमार है
गांव, घर व पगडण्डियां, सड़कें वही मोटर वही
पर खुशी आए किधर से डाकिया बीमार है
दो महीने हो गए पैसा नहीं , पाती नहीं
कुछ न कुछ आता शहर से , डाकिया बीमार है
सैकड़ों खतरे सदा, परदेस का रहना बुरा
सूखना हरदम फिकर से डाकिया बीमार है
आंख दायीं लैकती है और सपने भी बुरे
बिल्लियां रोती हैं स्वर से डाकिया बीमार है
बाल बच्चों का न उसका पैरहन साबुत रहा
खुलनेवाले हैं मदरसे डाकिया बीमार है
भूख , बेकारी, दवादारू कुबेरों की नज़र
हर कदम लड़ना जबर से डाकिया बीमार है
-रामकुमार कृषक
साभार : शब्दों का सफर
Friday, January 1, 2010
Subscribe to:
Posts (Atom)