मोबाइल क्रान्ति के इस युग में रामकुमार कृषक जी के ये कविता बहुत से लोगों को चकित कर सकती है। मगर सिर्फ एक दशक पहले तक इस देश में डाकिये के संदर्भ वाले य़े नज़ारे हुआ करते थे। यकीनन आज भी होंगे, मगर नई पीढी यह मान चुकी है कि देश के कोने कोने में सेल फोन बज रहे हैं-
सोचकर बैठी है घर से डाकिया बीमार है
बेखबर आंगन, खबर से डाकिया बीमार है
गांव, घर व पगडण्डियां, सड़कें वही मोटर वही
पर खुशी आए किधर से डाकिया बीमार है
दो महीने हो गए पैसा नहीं , पाती नहीं
कुछ न कुछ आता शहर से , डाकिया बीमार है
सैकड़ों खतरे सदा, परदेस का रहना बुरा
सूखना हरदम फिकर से डाकिया बीमार है
आंख दायीं लैकती है और सपने भी बुरे
बिल्लियां रोती हैं स्वर से डाकिया बीमार है
बाल बच्चों का न उसका पैरहन साबुत रहा
खुलनेवाले हैं मदरसे डाकिया बीमार है
भूख , बेकारी, दवादारू कुबेरों की नज़र
हर कदम लड़ना जबर से डाकिया बीमार है
-रामकुमार कृषक
साभार : शब्दों का सफर
7 comments:
सोचकर बैठी है घर से डाकिया बीमार है
बेखबर आंगन, खबर से डाकिया बीमार है
गांव, घर व पगडण्डियां, सड़कें वही मोटर वही
पर खुशी आए किधर से डाकिया बीमार है
दो महीने हो गए पैसा नहीं , पाती नहीं
कुछ न कुछ आता शहर से , डाकिया बीमार है....
वाह-वाह ,बढ़िया रचना.
बेहतरीन...सिर्फ कविता नहीं सच्ची बात है ये.
आज भी डाकिया को नए-नए कार्य करने पड़ रहे हैं. डाक व्यवस्था का यह महत्वपूर्ण अंग है.
अरे डाकिया बाबू बीमार हो जायेंगें तो चिट्ठियां कौन लायेगा.
Krishak ji ne yah kavita badi dillagi se likhi hai...sadhuvad.
Padhkar dil bag-bag ho gaya.
Very Nice Post. Thank for posting it.
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