Monday, January 25, 2010

पत्रों का सिलसिला चलता रहे...

आजकल कविता वर्मा जी चिट्ठियों पर मेहरबान हैं. तभी तो उनके ब्लॉग kase kahun? पर चिट्ठी से जुडी यादें रोज ताजा हो रही हैं. उनकी चिट्ठियों में रिश्तों की सोंधी खुशबू है, जो भीना-भीना अहसास दे जाती है. अब कविता जी की चिट्ठियाँ डाकिया बाबू नहीं बांचे तो भला कौन बांचेगा. तो आप भी कविता वर्मा जी की इन चिट्ठियों का आनंद लीजिये और अपने किसी हमदम को जल्दी से चिट्ठी लिख डालिए. और हाँ बात-बात पर डाकिया बाबू को न कोसा करिए कि वह मुआ तो अब चिट्ठियाँ ही नहीं लाता, चिट्ठियाँ तो वह तब लाये जब आपको कोई प्यार-मनुहार भरी चिट्ठियाँ लिखे तो सही...तो अब देर किस बात की तुरंत लिखने बैठ जाइये चिट्ठियाँ !!

चिठ्ठियाँ.......2
अरे हाँ याद आया इंदौर में भी एक सहेली थी मेरे पड़ोस में ही रहती थी,हमारी शामें साथ ही गुजरती थी । रोज़ शाम को छत पर बैठ कर अपने-अपने स्कूल की बाते करना, ढेर सारे गाने गाना,और जो भी कोई फिल्म देख कर आता उसकी स्टोरी दूसरे को सुनना। एक बार उससे झगडा भी हुआ था,तब मेरे और उसके भाइयों ने हम दोनों के बीच सुलह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उससे जरूर पत्रों का सिलसिला चला,पर उसकी आवृति कम थी.पर उसके साथ बिताये लम्हे आज तक जेहन में ताज़ा हैं। अब हम खंडवा में जहाँ सिर्फ इंदौर से पत्र मिलते थे.रानपुर फिर कभी जाना ही नहीं हुआ.पर ये पत्र बड़े सोच कर बढ़िया-बढ़िया बातें लिखकर भेजे जाते थे। हर पत्र को कई-कई बार पढ़ा जाता और कभी-कभी तो किताबों में रख कर स्कूल में भी चोरी से पढ़ा जाता। घर में सबको सख्त हिदायत थी की मेरे पत्र कोई नहीं खोलेगा, अब ये पत्र अन्तेर्देशिया थे जिसमे लिखे हर शब्द किसी अनमोल मोती से कम नहीं थे, और उन मोतियों को किसी से बांटने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी। हाँ अपनी सहेलियों को जरूर गर्व से बताती थी की इंदौर से मेरी सहेली का पत्र आया है। कभी-कभी अपना पुराना फोल्डर खोल कर पुराने पत्र भी पढ़ लेती थी और उनमे खुद को ही बड़े होते देखती थी,हाँ मेरे सारे पुराने पत्र मेरे पास सहेज कर रखे गए थे और उनकी रक्षा किसी खजाने की रक्षा जैसे ही होती थी.जब भी कोई नया पत्र उस फोल्डर में रखती अपने खजाने को नज़र भर देखती, छूती पुराणी कितनी ही अनलिखी,अनकही यादों को याद कर लेती.इस समंदर का अगला मोती बस निकालने को ही है थोडा सा इन्तजार....!!

चिठ्ठियाँ .........3
खंडवा से जब हम बैतूल आये तब मन न जाने कैसा -कैसा हो गया.ऐसा लगा जैसे दिल को किसी ने मुठ्ठी में भींच दिया हो.युवावय की प्यारी सहेलियां जिनसे हर बात ,हर भावना साझा की जाती थी उन्हें छोड़ कर जाना ऐसा था जैसे अपने प्राण छोड़ कर शरीर कही और ले जाना। पर उस समय की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि, उस समय टेलीफोन हर घर में नहीं था। संपर्क का एक ही साधन था पत्र। हाँ दिन में स्कूल कौलेज होते थे ,इसलिए पोस्टमेन का इन्तजार नहीं किया,लेकिन घर आते ही मेरी निगाहें अपने पढ़ने की टेबल पर घूमती जहां मेरे आये ख़त रखे होते थे। फिर तो खाना -पीना भूल कर जब तक दो-चार बार उन्हें पढ़ न लूं चैन नहीं आता था। अब एक पेज के पत्र से मन भी नहीं भरता था,३-४ पेज के पत्र रात को १२-१ बजे तक बैठ कर लिखे जाते थे,जिन्हें लिखते हुए खुद ही हंसती थी खुद ही सोचती थी ये पढ़ कर मेरी सहेलियां क्या-क्या बाते करेंगी ?मेरी इंदौर वाली सहेली के पत्र आने अब बंद हो गए थे। या कहना चाहिए उसके दायरे बदल गए थे,उनका भी इंदौर से तबादला हो गया था ,पर मुझे मालूम था की वहां से वो अजमेर गए है। तो एक दिन उसे याद करते -करते अजमेर उसके पापा के ऑफिस के पते पर ऑफिस इंचार्ज के नाम एक पत्र लिख दिया। की फलां-फलां व्यक्ति इंदौर से ट्रान्सफर हो कर इस साल में वहां आये थे अब वे कहाँ है उनकी जानकारी दे। बस उस पत्र में अंकल को अपना परिचित मित्र लिखा । अब ऑफिस इंचार्ज की भलमनसाहत देखिये की उन्होंने भी लौटती डाक से उनकी जानकारी दे दी पर मेरे संबोधन के हिसाब से अन्तेर्देशीय के ऊपर मेरा नाम लिखा "श्रीमती कविता ",हमारे पत्र पापा के ऑफिस में आते थे वहां से पापा घर भेज देते थे,तो में डाकिये के इन्तजार के बजाय चपरासी का इंतज़ार करती थी। जब वो पत्र ले कर आया तो वह खुला हुआ था,देख कर बड़ा गुस्सा आया,पापा ने पत्र क्यों खोला, पर जब पत्र पर अपना नाम पढ़ा तो खुद ही हंसी आ गयी . phir ye bhee sochaa ki patra khol kar padh lene tak paapa ka blood presure kitana badh gaya hoga

चिठ्ठियाँ.....४
बस इसी तरह ठीक इसी तरह चिठ्ठियाँ लिखने का सिलसिला टूट जाया करता था सहेलियों के साथ भी, तब बहुत सारे शिकवे शिकायतों के साथ कभी बहुत बड़ा सा ख़त या कभी बहुत छोटा सा पत्र अपनी नाराजगी बताने के लिए लिखा जाता था.बैतूल में मेरी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण पड़ाव भी आया,मेरी सगाई तय हो गयी.इसकी खबर सहेलियों को लिखने से पहले न जाने कितने ही सूत्र पिरोये,कितनी ही बार खुद से ही शरमाई,मन था की बल्लियों उछल रहा था,लिखते भी नहीं बन रहा था,लिखे बिना रहा भी नहीं जा रहा था.उस पत्र के जवाब का इन्तजार सदियों सा भारी लगा.फिर एक दिन एक और पत्र आया धड़कते दिल से उसे खोला, वह पत्र था 'उनका".हाँ यही संबोधन होता था 'उनके 'लिए,जिस पर मेरी सहेलियां अच्छा उनका,वो कौन, अभी से "उनका"कह-कह कर मुझे परेशान कर देतीं थी,इस एक संबोधन से ही गाल लाल हो जाते थे,बहुत सादगी और शराफत से लिखा गया पत्र था, पर मुझे तो एक-एक शब्द मोती लग रहा था .पत्र मिलते ही जल्दी से सहेलियों से मिलने घर से निकल पड़ी,उन्हें बताये बिना चैन भी तो नहीं पड़ता था। पहले उन्हें बोल कर सब बताया क्या-क्या लिखा है,फिर न-नुकुर करते हुए पूरा पत्र पढ़ा दिया। आखिर में भी तो यही चाहती थी.इस पत्र की एक लाइन ने तो दिल को छू ही लिया,न-न ऐसा-वैसा कुछ मत सोचिये,वो लाइन थी "तुम पत्र का जवाब देने से पहले अपने मम्मी- पापा से पूछ लो उन्हें कोई एतराज़ तो नहीं है."जब से होश सम्हाला था पत्र लिख रही थी,ये पहला मौका था जब पत्र का जवाब देने से पहले मम्मी से पूछा गया,वो भी पशोपेश में थी,फिर पापा से पूछ कर बतायेंगी ,कह कर बात ख़त्म हो गयी.दूसरे दिन पत्र सिरहाने रख कर सो रही थी,की ऐसा लगा कोई पास आ कर बैठा,मैंने आँखे मूंदे राखी ,फिर एक हाथ धीरे से बड़ा और पत्र उठाया,थोड़ी देर बाद उसे वापस रख दिया,मैं अभी भी सोने का नाटक करती रही। थोड़ी देर बाद मम्मी ने आवाज़ लगाई,बेटा उठो चाय पी लो, चाय पीते हुए मम्मी ने कहा,हमने पापा से बात की थी उन्होंने ने कहा है,पत्र का जवाब दे दो इसमे तो कोई हर्ज़ नहीं है.आज अचानक चिठ्ठियों -चिठ्ठियों में कितना बड़ा फर्क हो गया.पर मन तो तुरंत जवाब देने को बैचैन था.लिखने बैठ भी गयी,पर ये क्या,आज कुछ लिखते क्यों नहीं बन रहा है,मैं तो कितने सालों से चिठ्ठियाँ लिख रही हूँ.

चिठ्ठियाँ ........५
खैर अब धड़कते दिल से चिठ्ठी लिखी, सहेलियों से भी सलाह ली गयी,जिन सहेलियों ने कभी कोई चिठ्ठी नहीं लिखी थी उन्होंने भी पूरे मनोयोग से बताया की क्या लिखना चाहिए और क्या बिलकुल नहीं लिखना चाहिए।पर इन सबके बावजूद उस एक बात का तो जवाब दिया ही नहीं की मम्मी-पापा से पूछा की नहीं ?अब चिठ्ठियों में एक नया ही रंग आ गया था,उनके इंतज़ार में एक नयी ही कसक थी,और उनकी रक्षा ...वो तो पूछिए ही मत। इन्ही पत्रों के साथ ननंदो और भाभीजी को भी पत्र लिखना शुरू हो गया,शादी के पहले उन्हें जानने समझाने का इससे अच्छा कोई जरिया नहीं था।अब पत्र अलग-अलग मन:स्थिति के साथ लिखे जाते थे,एक सहेलियों को,जो में सालो से लिख रही थी,दूसरे होने वाले पति को जहाँ एक झिझक थी साथ ही एक दूसरे को जानने की ललक भी थी। और तीसरे जहाँ एक अतिरिक्त सावधानी रखी जाती थी की किसी बात का कोई गलत अर्थ न निकल जाए। तभी एक दिन ससुरजी का आना हुआ. वे शादी कितारिख और अन्य बाते सुनिश्चित करने आये थे.उन्होंने ने मेरी गोद भराई भी की,और फल,मेवा के साथ झोली में एक पत्र भी डाल दिया। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ,ये क्या है?खैर पत्र खोला गया, पढ़ा गया,उसमे उन्होंने अपनी होने वाली बहू के लिए अपने असीम प्यार और आशीर्वाद के साथ,जीवन को संवारने के कुछ मुख्य बिन्दुओं को बड़ी ही साहित्यिक शैली में लिखा था.उनका ये पत्र अब तक के सभी पत्रों से निराला था,जिसे बार-बार पढ़ा गया और अपने आप को एक सुघड़ बहु के रूप में ढालने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में इस्तेमाल किया गया। पत्रों का ये सिलसिला बस यूँ ही चलता रहा...

चिठ्ठियाँ .....६
शादी के बाद भी पत्रों का सिलसिला चलता रहा.सहेलियों के साथ,ननदों के साथ,और मायके जाने पर उनके साथ.अब हर पत्र एक अलग रंग का होता था.अब तो मम्मी के भी पत्र आते थे,जिसमे प्यार के साथ कई सीख भी होती थी,तो ससुरजी के पत्र भी जिसमे हमारे अकेले होने की चिंता के साथ हर हफ्ते बस दो ही लाइन की कुशल क्षेम देने का आग्रह भी होता था। चिठ्ठियों का यह नया रंग अभिभूत कर देता था। शादी के बाद अपने लाये सामान के साथ बचपन से अभी तक लिखी चिठ्ठियों का मेरा खजाना भी था.जिसे गाहे बगाहे पढ़ लेती थी।
नयी-नयी गृहस्थी के साथ एक शौक अकसर महिलायों को होता है वह है साफ़ सफाई का,सो एक दिन सफाई करते हुए न जाने क्या हुआ,शायद मन कुछ ठीक नहीं था,या कुछ और,पता नहीं क्यों ये सोचा की इतनी पुरानी सहेलियां जिनसे बिछड़े करीब १५ साल हो गए है,उन्हें तो शायद मेरी याद भी नहीं होगी,मैं ही उनके पत्रों को संजोए बैठी हूँ मैंने सबसे पुराने पत्र जला डाले.हाँ-हाँ वही पत्र जिनकी खजाने की तरह रक्षा करती थी जला डाले ,पता नहीं इससे घर में कितनी जगह बनी हाँ दिल का एक कोना आज भी खाली महसूस हो रहा है।
धीरे -धीरे सब सहेलियों की भी शादियाँ हो गयी,ननदे भी ब्याह गयी,मम्मी-पापा,सासुजी-ससुरजी भी इंदौर ही आ गए,पत्रों की जगह पहले फोन फिर मोबाइल ने ले ली,सब इतने पास आ गए पर फिर भी एक दूरी बन गयी है,पत्रों में विस्तार से लिखे समाचारों की जगह,मोबाइल के "हाँ और बोलो",या "सुनाओ"ने ले ली,बात करते हुए,आधा ध्यान टाइम पर और बिल पर रहने लगा,दुनिया जीतनी छोटी हो गयी उतनी ही दूरियां बढ़ गयी,आज मेरे घर कोई चिठ्ठी नहीं आती,डाकिया सिर्फ बिल या स्टेटमेंट्स लाता है ,आज चिठ्ठियों के बिना मेरे दिन सूने है मेरी जिंदगी का एक कोना सूना है,मैं आज भी चिठ्ठियों का इंतजार करती हूँ ..!!

साभार : kase kahun?

6 comments:

डॉ. मनोज मिश्र said...

बढियां lgee yh post.

Udan Tashtari said...

कविता जी की चिट्ठी पोस्ट पढ़कर चिट्ठी लिखने का एक हौसला आया है, आज ही लिखूंगा किसी प्रिय को. :)

आभार इस पोस्ट का.

सुशीला पुरी said...

sundar post......

Akanksha Yadav said...

खूबसूरत चिट्ठियां....!!

kavita verma said...

aap sabhi ko hardik dhanyavaad.

Amit Kumar Yadav said...

kHUBSURAT YADEN...KAVITA JI KO BADHAI.