दिल, अभी यह चाहता है
खत लिखूं मैं इक गुलाबी
संग सखियों के पुराने
दिन सुहाने याद करना।
और छत पर बैठकर
चाँद से संवाद करना।
डाकिया आता नहीं अब,
ना महकते खत जबाबी।
दिल अभी यह चाहता है
खत लिखूँ मै इक गुलाबी।
सुर्ख मुखड़े के खुशी की
चाँदनी जब झिलमिलाई।
गंध गीली याद की, हिय
प्राण, अंतस में समाई।
सुबह, दुपहर, साँझ, साँसें
गीत गाती हैं खिताबी।
दिल अभी यह चाहता है
खत लिखूँ मै इक गुलाबी।
मौसमी नव रंग सारे
प्रकृति में कुछ यूँ समाये
नेह के आँचल तले, हर
एक दीपक मुस्कुराये।
छाँव बरगद की नहीं, माँ
बात लगती हैं किताबी।
दिल अभी यह चाहता है
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी।
- शशि पुरवार
(साभार : सरस्वती सुमन पत्रिका)
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