Saturday, July 31, 2010

डाककर्मी के पुत्र थे मुंशी प्रेमचंद

1920 का दौर... गाँधी जी के रूप में इस देश ने एक ऐसा नेतृत्व पा लिया था, जो सत्य के आग्रह पर जोर देकर स्वतन्त्रता हासिल करना चाहता था। ऐसे ही समय में गोरखपुर में एक अंग्रेज स्कूल इंस्पेक्टर जब जीप से गुजर रहा था तो अकस्मात एक घर के सामने आराम कुर्सी पर लेटे, अखबार पढ़ रहे एक अध्यापक को देखकर जीप रूकवा ली और बडे़ रौब से अपने अर्दली से उस अध्यापक को बुलाने को कहा । पास आने पर उसी रौब से उसने पूछा-‘‘तुम बडे़ मगरूर हो। तुम्हारा अफसर तुम्हारे दरवाजे के सामने से निकल जाता है और तुम उसे सलाम भी नहीं करते।’’ उस अध्यापक ने जवाब दिया-‘‘मैं जब स्कूल में रहता हूँ तब मैं नौकर हूँ, बाद में अपने घर का बादशाह हूँ।’’

अपने घर का बादशाह यह शख्सियत कोई और नहीं, वरन् उपन्यास सम्राट प्रेमचंद थे, जो उस समय गोरखपुर में गवर्नमेन्ट नार्मल स्कूल में सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत थे। 31 जुलाई 1880 को बनारस के पास लमही में जन्मे प्रेमचन्द का असली नाम धनपत राय था। आपकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम अजायब राय था।
मुंशी प्रेमचंद जी के पिता अजायब राय डाक-कर्मचारी थे सो प्रेमचंद जी अपने ही परिवार के हुए।आज उनकी जयंती पर शत-शत नमन। डाक-परिवार अपने ऐसे सपूतों पर गर्व करता है व उनका पुनीत स्मरण करता है।


(प्रेमचंद जी पर मेरा विस्तृत आलेख साहित्याशिल्पी पर पढ़ सकते हैं)







Tuesday, July 27, 2010

सावन में घर बैठे डाक द्वारा काशी विश्वनाथ व महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर का प्रसाद

सावन का मौसम आज से आरंभ हो गया। इस मौसम में पूरे मास भगवान शिव की पूजा होती है। बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा जाता है और काशी विश्वनाथ मंदिर यहाँ का प्रमुख धार्मिक स्थल है। डाक विभाग और काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट के बीच वर्ष 2006 में हुए एक एग्रीमेण्ट के तहत काशी विश्वनाथ मंदिर का प्रसाद डाक द्वारा भी लोगों को उपलब्ध कराया जा रहा है। इसके तहत साठ रूपये का मनीआर्डर प्रवर डाक अधीक्षक, बनारस (पूर्वी) के नाम भेजना होता है और बदले में वहाँ से काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट के सौजन्य से मंदिर की भभूति, रूद्राक्ष, भगवान शिव की लेमिनेटेड फोटो और शिव चालीसा प्रेषक के पास प्रसाद रूप में भेज दिया जाता है।



काशी विश्वनाथ मंदिर के अलावा उज्जैन के प्रसिद्ध श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर का प्रसाद भी डाक द्वारा मंगाया जा सकता है। इसके लिए प्रशासक, श्री महाकालेश्वर मंदिर प्रबन्धन कमेटी, उज्जैन को 151 रूपये का मनीआर्डर करना पड़ेगा और इसके बदले में वहाँ से स्पीड पोस्ट द्वारा प्रसाद भेज दिया जाता है। इस प्रसाद में 200 ग्राम ड्राई फ्रूट, 200 ग्राम लड्डू, भभूति और भगवान श्री महाकालेश्वर जी का चित्र शामिल है।




इस प्रसाद को प्रेषक के पास एक वाटर प्रूफ लिफाफे में स्पीड पोस्ट द्वारा भेजा जाता है, ताकि पारगमन में यह सुरक्षित और शुद्ध बना रहे। तो अब आप भी सावन की इस बेला पर घर बैठे भोले जी का प्रसाद ग्रहण कीजिये और मन ही मन में उनका पुनीत स्मरण कर आशीर्वाद लीजिए !!




वन्दे देव उमा पतिम् सुरगुरुम् ।



वन्दे जगत कारणम् ।



वन्दे पन्नग भूषणम्मृगधरम् ।



वन्दे पशुनाम पतिम ।



वन्दे सूर्य शशांक वन्हिनयनम् ।



वन्दे मुकन्द प्रियम् ।



वन्दे भक्तजनाश्रयन्चवर्धम् ।



वन्दे शिवम् शंकरम् ।। ।। जय शंकर ।।।।



जय भोले नाथ ।।



भगवान शिव का नमन करते हुए आपको श्रावण मास के इस पावन पर्व पर हार्दिक बधाई।

Friday, July 16, 2010

चिट्ठी न कोई संदेश.....


पूरी छुट्टियां निकल गईं, और उस अलमारी की सफाई नहीं कर पाई, जो साल भर से मेरा मुंह जोह रही थी, आज बिना किसी प्लान के उसे साफ़ करने बैठ गई. एक बड़ा सा लिफाफा दिखाई दिया, पिछले कई सालों से इस लिफ़ाफ़े को बिना देखे ही पोंछ-पांछ के रख देती थी, आज खोल लिया, तमाम अंतर्देशीय, पोस्ट कार्ड, और लिफ़ाफ़े सामने बिखर गए और इन सारी चिट्ठियों के पीछे हमारे पोस्टमैन चाचा का चेहरा उभर कर दिखाई देने लगा.लगा कितने दिन हो गए किसी की चिट्ठी आये हुए.कितनी बार रोका है खुद को पुराने किस्से लिखने से, लेकिन क्या करुँ, पिछले बीस सालों में समय कुछ ऐसे बदला हैं, कुछ आदतें इस क़दर ख़त्म हुईं हैं, कि लिखने कुछ और बैठती हूँ, लिख कुछ और ही जाता है.आज भी नए टीवी शो " बिग-मनी" पर लिखने का मन बनाया था, लेकिन बीच में ये चिट्ठियाँ आ गईं.मन फिर वही नौगाँव की गलियों में भटकने लगा.

वो समय पोस्ट-ऑफिस के स्वर्ण युग की तरह था. चिट्ठी, तार, टेलीफोन, पार्सल, रजिस्ट्री, मनी ऑर्डर..सारे काम पोस्ट ऑफिस से, पोस्ट मैन कितने महत्वपूर्ण होते थे त. घरों में फोन लगवाने का चलन नहीं था. टेलीफोन तब केवल ऑफिसों में, बड़े सरकारी अधिकारियों के घरों में होते थे. सार्वजनिक रूप से टेलीफोन की सुविधा केवल पोस्ट ऑफिस में ही मिलती थी. लोग भी जब बहुत ज़रूरी हो, तभी फोन लगाने जाते थे. बाहर कहीं फोन लगाना है, तो ट्रंक-कॉल बुक होती थी. लाइन मिलने पर खूब चिल्ला-चिल्ला के बात करनी पड़ती थी. शायद इसीलिये पुराने लोग आज भी मोबाइल पर ज़ोर-ज़ोर से बात करते मिल जायेंगे...:)

तो पोस्ट ऑफिस का अपना अलग ही रुतबा था. और पोस्ट-मास्टर से ज्यादा पोस्ट मैन का. हम घर में पोस्ट मैन का इंतज़ार इस तरह करते थे, जैसे किसी ख़ास मेहमान का. सुबह ग्यारह बजे और दोपहर में एक बजे डाक आती थी. हम सब भाई-बहन इस कोशिश में रहते कि पत्र उसी के हाथ में आये, भले ही वो हमारे काम का हो या न हो. हमारे कान बाहर ही लगे रहते. उधर पोस्ट मैन की आवाज़ आई, इधर हम गिरते-पड़ते भागते... चिट्ठी पा जाने वाला विजेता की मुद्रा में मुस्कुराता, पत्र खोलता, हमारी आँखें उस पर लगी रहतीं- " किसका है?" जिसे पत्र मिलता, उसे ही पत्र पढ़ के सुनने का हक़ होता. घर के सारे पढ़े-लिखे लोग, पत्र सुनने बैठ जाते।

सुनने के बाद, यदि किसी ख़ास का पत्र है, तो बारी-बारी से सब पढ़ते. राय-मशविरा होता. और फिर उसे हमारे पापा अपनी फ़ाइल में सहेज लेते. पत्रों के जवाब देना उनकी दिनचर्या में शामिल था.
हमारे पोस्ट मैन, जिन्हें हम चाचा कहते थे, बड़ी दूर से "अवस्थी जीईईईई ...." की हांक लगाते थे, जिस पर हम दौड़े चले आते थे।

कुछ और बाद में जब मैं छपने लगी तो मेरी फैन-मेल आने लगी, अब पोस्ट मैन चाचा मेरे लिए और भी ख़ास हो गए थे. रचनाएं वापस न आ रहीं हों, इस डर से मेरी कोशिश होती थी कि पोस्ट मैन के आने के वक्त मैं ही बाहर रहूँ :)
धीरे-धीरे टेलीफोन का चलन बढ़ा, तो चिट्ठियों में कुछ कमी आई. लेकिन अब, जब से मोबाइल का चलन बढ़ा है, नेट का चलन आम हो गया है, पत्र आने ही बंद हो गए. कभी कोई सरकारी डाक आ जाती है बस. लोग पत्र लिखना ही भूल गए. अब तो ये भी नहीं मालूम कि लिफाफे या पोस्ट कार्ड की कीमत आज कितनी है?
इन त्वरित सेवाओं ने निश्चित रूप से दूरियां काम की हैं, लेकिन इनसे उस काल-विशेष को सहेजा नहीं जा सकता. यादों में शामिल नहीं किया जा सकता, किसी बात का अब साक्ष्य ही नहीं.. सब मौखिक रह गया...लिखित कुछ भी नहीं..
कभी-कभी सुविधाएं भी कितनी अखरने लगतीं हैं.. !!

(साभार : वन्दना अवस्थी दुबे के 'अपनी बात' ब्लॉग से )

Friday, June 11, 2010

डाक विभाग से जुडी रही हैं तमाम मशहूर हस्तियाँ

डाक विभाग ने तमाम प्रसिद्ध विभूतियों को पल्लवित-पुष्पित किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन पोस्टमैन तो भारत में पदस्थ वायसराय लार्ड रीडिंग डाक वाहक रहे। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक व नोबेल पुरस्कार विजेता सी0वी0 रमन भारतीय डाक विभाग में अधिकारी रहे वहीं प्रसिद्ध साहित्यकार व ‘नील दर्पण‘ पुस्तक के लेखक दीनबन्धु मित्र पोस्टमास्टर थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार पी0वी0अखिलंदम, राजनगर उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अमियभूषण मजूमदार, फिल्म निर्माता व लेखक पद्मश्री राजेन्द्र सिंह बेदी, मशहूर फिल्म अभिनेता देवानन्द डाक कर्मचारी रहे हैं। उपन्यास सम्राट मुंशी  प्रेमचन्द जी के पिता अजायबलाल डाक विभाग में ही क्लर्क रहे।
ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी ने आरम्भ में डाक-तार विभाग में काम किया था तो प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु भी पोस्टमैन रहे। उर्दू अदब की बेमिसाल शख्सियत पद्मश्री शम्सुररहमान फारूकी,केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के उपाध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार डा. कमल किशोर गोयनका, शायर कृष्ण बिहारी नूर, महाराष्ट्र के प्रसिद्ध किसान नेता शरद जोशी,जोशी, सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ कमल किशोर गोयनकाजोशी जजोशीजोशी सहित तमाम विभूतियाँ डाक-तार विभाग से जुड़ी रहीं। स्वयं उ0प्र0 की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के पिता डाक-तार विभाग में ही थे। 

साहित्य जगत में अपनी पहचान स्थापित करने वाले तमाम नाम- कवि तेजराम शर्मा, कर्नल तिलक राज, सुजाता चौधरी ,  कहानीकार दीपक कुमार बुदकी, कथाकार ए. एन. नन्द, ब्लॉगर और साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव, शायर अब्दाली, गीतकार राम प्रकाश शतदल, गणेश गम्भीर, गजलकार केशव शरण, कहानीकार गोवर्धन यादव, बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबंधु, लघु कथाकार बलराम अग्रवाल, कालीचरण प्रेमी, अनुराग लाक्षाकर, मंचीय कवि जवाहर लाल जलज, शारदानंद दुबे, जितेन्द्र कुमार, शायर आलम, हास्यकवि जैमिनी हरियाणवी , बंधु कुशावर्ती (लखनऊ), वंदना सक्सेना (इटावा),  खुर्शीद, हास्यकवि जैमिनी हरियाणवी, बंधु कुशावर्ती(लखनऊ), वंदना सक्सेना(इटावा), इत्यादि भारतीय डाक विभाग की समृद्ध परंपरा के ही अंग हैं। बी एम नेगी (देहरादून), लगभग हर पत्रिका जिनके रेखाचित्रों से युक्त रहती है, भी इसी परिवार के अंग रहे हैं । 

यह तो सिर्फ उन लोगों की सूची है, जिनके नाम जाहिर हैं । इससे परे भी तमाम लोग साहित्य-कला-संस्कृति में अपना जौहर दिखा रहे हैं। स्पष्ट है कि डाक विभाग सदैव से एक समृद्ध विभाग रहा है और तमाम मशहूर शख्सियतें इस विशाल विभाग की गोद में अपनी काया का विस्तार पाने में सफल रहीं। 

Wednesday, May 26, 2010

विश्व का सबसे महंगा डाक टिकट : 'ट्रेस्किलिंग येलो'

कभी आपने सोचा है कि एक डाक-टिकट की कीमत क्या हो सकती है. दहाई, सैकड़ा या हजार..जी नहीं. 22 मई, 2010 को स्विट्ज़रलैंड की राजधानी जेनेवा में विश्व के सबसे महंगे डाक टिकट 'ट्रेस्किलिंग येलो' की नीलामी हुई। यह डाक टिकट वर्ष 1855 में स्वीडन में छपा था।

इसके बारे में बताया जाता है कि दुनिया के सर्वाधिक दुर्लभ डाक टिकटों में से एक ट्रेस्किलिंग येलो [पीली टिकट] की जब छपाई हो रही थी, तो गलती से यह तीन शिलिंग की श्रेणी में छप गया। जबकि तीन शिलिंग के टिकट का रंग हरा होता था और पीले टिकट की कीमत आठ शिलिंग होती थी। इसीलिए इसे ट्रेस्किलिंग येलो कहा गया. ऐसे में यह दुर्लभ डाक टिकटों कि श्रेणी में आ गया और फिलेतलिस्ट इसके लिए मुँहमाँगी मुरीद देने को तैयार हो गए.

वर्ष 1885 में यह डाक- टिकट एक स्कूली लड़के के पास था। जिसने जेब खर्च के लिए अपने डाक टिकट संग्रह को बेच दिया था। तब से यह जर्मनी और ब्राजील के धन्ना सेठों सहित टिकट संग्रह करने वाले बहुत से लोगों के हाथों से गुजरा। अंतिम बार यह वर्ष 1996 में एक नीलामी में 2.3 मिलियन यू. एस. डालर (करीब 14 करोड़ रुपये) में बिका था। 16 वर्षों बाद 23 मई, 2010 को स्विट्ज़रलैंड की राजधानी जेनेवा में जब विश्व के इस सबसे महंगे डाक टिकट की नीलामी हुई तो यह डाक टिकट बेचने वाले डेविड फेल्डमैन ने न तो खरीददार का नाम बताया है और न कीमत। कारण, यह डाक टिकट इतना दुर्लभ और महँगा है कि इसके लिए खरीददार की जान के पीछे भी लोग पड़ सकते हैं. आखिरकार, 16 साल पहले जिस डाक टिकट की नीलामी 2.3 मिलियन यू. एस. डालर में हुई थी, उसके आज के नीलामी मूल्य के बारे में मात्र सोचा ही जा सकता है.

Monday, May 24, 2010

वो चिट्ठियों की दुनिया

अभी हाल ही में मेरे एक मित्र की सगाई सम्पन्न हुई। पेशे से इंजीनियर और हाईटेक सुविधाओं से लैस मेरा मित्र अक्सर सेलफोन या चैटिंग के द्वारा अपनी मंगेतर से बातें करता रहता। तभी एक दिन उसे अपनी मंगेतर का पत्र मिला। उसे यह जानकर ताज्जुब हुआ कि पत्र में तमाम ऐसी भावनायें व्यक्त की गई थीं, जो उसे फोन पर या चैटिंग के दौरान भी नहीं पता चली थीं। अब मेरे मित्र भी अपनी खूबसूरत मनोभावनाओं को मंगेतर को पत्र लिखकर प्रकट करने लगे हैं। इसी प्रकार बिहार के एक गाँव से आकर दिल्ली में बसे अधिकारी को अपनी माँ की बीमारी का पता तब चला जब वे एक साल बाद गाँव लौटकर गये। उन्हें जानकर आश्चर्य हुआ कि इतनी लंबी बीमारी उनसे कैसे छुपी रही, जबकि वे हर सप्ताह अपने घर का हाल-चाल फोन द्वारा लेते रहते थे। आखिरकार उन्हें महसूस हुआ कि यदि इस दौरान उन्होंने घर से पत्र-व्यवहार किया होता तो बीमारी की बात जरूर किसी न किसी रूप में पत्र में व्यक्त होती।

वस्तुतः संचार क्रान्ति के साथ ही संवाद की दुनिया में भी नई तकनीकों का पदार्पण हुआ। टेलीफोन, मोबाइल फोन, इण्टरनेट,फैक्स,वीडियो कान्फं्रेसिंग जैसे साधनों ने समग्र विश्व को एक लघु गाँव में परिवर्तित कर दिया। देखते ही देखते फोन नम्बर डायल किया और सामने से इच्छित व्यक्ति की आवाज आने लगी। ई-मेल या एस0एम0एस0 के द्वारा चंद सेकेंडों में अपनी बात दुनिया के किसी भी कोने में पहुँचा दी। वैश्विक स्तर पर पहली बार 1996 में संयुक्त राज्य अमेरिका में ई-मेल की कुल संख्या डाक सेवाओं द्वारा वितरित पत्रों की संख्या को पार कर गई और तभी से यह गिरावट निरन्तर जारी है। ऐसे में पत्रों की प्रासंागिकता पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे। क्या वाकई पत्र-लेखन अतीत की वस्तु बनकर रह गया है? क्या सुदूर देश में बैठे अपने पति के पत्रों के इन्तजार में पत्नियाँ बार-बार झांककर यह नहीं देखतीं कि कहीं डाकिया बाबू उनका पत्र बाहर ही तो नहीं छोड़ गया? क्या पत्र अब किताबों में और फिर दस्तावेजों में नहीं बदलेगें ?....... पत्रों से दूरी के साथ ही अहसास की संजीदगी और संवेदनाएं भी खत्म होने लगीं।

सभ्यता के आरम्भ से ही मानव किसी न किसी रूप में पत्र लिखता रहा है। दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व का माना जाता है, जो कि मिट्टी की पटरी पर लिखा गया था। यह बेबीलोन के खंडहरों से मिला था, जो कि मूलतरू एक प्रेम-पत्र था। बेबीलोन की किसी युवती का प्रेमी अपनी भावनाओं को समेटकर उससे जब अपने दिल की बात कहने बेबीलोन तक पहुँचा तो वह युवती तब तक वहां से जा चुकी थी। वह प्रेमी युवक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और उसने वहीं मिट्टी के फर्श पर खोदते हुए लिखा- ष्मैं तुमसे मिलने आया था, तुम नहीं मिली।ष् यह छोटा सा संदेश विरह की जिस भावना से लिखा गया था, उसमें कितनी तड़प शामिल थी। इसका अंदाजा सिर्फ वह युवती ही लगा सकती थी जिसके लिये इसे लिखा गया। भावनाओं से ओत-प्रोत यह पत्र 2009 ईसा पूर्व का है और आज हम वर्ष 2010 में जी रहे हैं।

जब संचार के अन्य साधन न थे, तो पत्र ही संवाद का एकमात्र माध्यम था। पत्रों का काम मात्र सूचना देना ही नहीं बल्कि इनमें एक अजीब रहस्य या गोपनीयता, संग्रहणीयता, लेखन कला एवं अतीत को जानने का भाव भी छुपा होता है। पत्रों की सबसे बडी विशेषता इनका आत्मीय पक्ष है। यदि पत्र किसी खास का हुआ तो उसे छुप-छुप कर पढ़ने में एवम् संजोकर रखने तथा मौका पाते ही पुराने पत्रों के माध्यम से अतीत में लौटकर विचरण करने का आनंद ही कुछ और है। यह सही है कि संचार क्रान्ति में चिठ्ठियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास किया है और पूरी दुनिया का बहुत करीब ला दिया है। पर इसका एक पक्ष यह भी है कि इसने दिलों की दूरियाँ इतनी बढ़ा दी हैं कि बिल्कुल पास में रहने वाले अपने इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों की भी लोग खोज-खबर नहीं रखते। ऐसे में संवेदनाओं को बचा पाना कठिन हो गया है। युवा कवयित्री आकांक्षा यादव की कविता ’एस0एम0एस0’ में इसकी एक बानगी देखी जा सकती है- अब नहीं लिखते वो खत/करने लगे हैं एस0 एम0 एस0/तोड़ मरोड़ कर लिखे शब्दों के साथ/करते हैं खुशी का इजहार/मिटा देता है हर नया एस0 एम0 एस0/पिछले एस0 एम0 एस0 का वजूद/एस0 एम0 एस0 के साथ ही/शब्द छोटे होते गए/भावनाएँ सिमटती गईं/खो गयी सहेज कर रखने की परम्परा/लघु होता गया सब कुछ/रिश्तों की कद्र का अहसास भी।

पत्र लिखना एक शौक भी है। आज भी स्कूलों में जब बच्चों को पत्र लेखन की विधा सिखायी जाती है तो अनायास ही वे अपने माता-पिता, रिश्तेदारों या मित्रों को पत्र लिखने का प्रयास करने लगते हैं। फिर शुरू होता है पिता की हिदायतों का दौर और माँ द्वारा जल्द ही बेटे को अपने पास देखने की कामना व्यक्त करना। पत्र सदैव सम्बंधों की उष्मा बनाये रखते हैं। पत्र लिखने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें कोई जल्दबाजी या तात्कालिकता नहीं होती, यही कारण है कि हर छोटी से छोटी बात पत्रों में किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त हो जाती है जो कि फोन या ई-मेल द्वारा सम्भव नहीं है। पत्रों की सबसे बड़ी विशेषता इनका स्थायित्व है। कल्पना कीजिये जब अपनी पुरानी किताबों के बीच से कोई पत्र हम अचानक पाते हैं, तो लगता है जिन्दगी मुड़कर फिर वहीं चली गयी हो। जैसे-जैसे हम पत्रोें को पलटते हैं, सम्बन्धों का एक अनंत संसार खुलता जाता है। किसी शायर ने क्या खूब लिखा है-

खुशबू जैसे लोग मिले अफसाने में
एक पुराना खत खोला अनजाने में

सिर्फ साधारण व्यक्ति ही नहीं बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी पत्रों के अंदाज को जिया है। पत्रों का अपना एक भरा-पूरा संसार है। दुनिया की तमाम मशहूर शख्सियतों ने पत्र लिखे हैं- फिर चाहे वह महात्मा गाँधी हों, नेपोलियन, अब्राहम लिंकन, क्रामवेल, बिस्मार्क या बर्नाड शा हों। माक्र्स-एंजिल्स के मध्य ऐतिहासिक मित्रता का सूत्रपात पत्रों से ही हुआ। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने उस स्कूल के प्राचार्य को पत्र लिखा, जिसमें उनका पुत्र अध्ययनरत था। इस पत्र में उन्होंने प्राचार्य से अनुरोध किया था कि उनके पुत्र को वे सारी शिक्षायें दी जाय, जो कि एक बेहतर नागरिक बनने हेतु जरूरी हैं। इसमें किसी भी रूप में उनका पद आडे़ नहीं आना चाहिये। महात्मा गाँधी तो रोज पत्र लिखा करते थे। महात्मा गाँधी तो पत्र लिखने में इतने सिद्धहस्त थे कि दाहिने हाथ के साथ-साथ वे बाएं हाथ से भी पत्र लिखते थे। पं0 जवाहर लाल नेहरू अपनी पुत्री इन्दिरा गाँधी को जेल से भी पत्र लिखते रहे। ये पत्र सिर्फ पिता-पुत्री के रिश्तों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें तात्कालिक राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश का भी सुन्दर चित्रण है। इन्दिरा गाँधी के व्यक्तित्व को गढ़ने में इन पत्रों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज ये किताब के रूप में प्रकाशित होकर ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुके हैं। इन्दिरा गाँधी ने इस परम्परा को जीवित रखा एवं दून में अध्ययनरत अपने बेटे राजीव गाँधी को घर की छोटी-छोटी चीजों और तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के बारे में लिखती रहीं। एक पत्र में तो वे राजीव को रीवा के महाराज से मिले सौगातों के बारे में भी बताती हैं। तमाम राजनेताओं-साहित्यकारों के पत्र समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। इनसे न सिर्फ उस व्यक्ति विशेष के संबंध में जाने-अनजाने पहलुओं का पता चलता है बल्कि तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश के संबंध में भी बहुत सारी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं।


यह अनायास ही नहीं है कि डाक विभाग ने तमाम प्रसिद्ध विभूतियों को पल्लवित-पुष्पित किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन पोस्टमैन तो भारत में पदस्थ वायसराय लार्ड रीडिंग डाक वाहक रहे। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक व नोबेल पुरस्कार विजेता सी0वी0 रमन भारतीय डाक विभाग में अधिकारी रहे वहीं प्रसिद्ध साहित्यकार व ‘नील दर्पण‘ पुस्तक के लेखक दीनबन्धु मित्र पोस्टमास्टर थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार पी0वी0अखिलंदम, राजनगर उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अमियभूषण मजूमदार, फिल्म निर्माता व लेखक पद्मश्री राजेन्द्र सिंह बेदी, मशहूर फिल्म अभिनेता देवानन्द डाक कर्मचारी रहे हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी के पिता अजायबलाल डाक विभाग में ही क्लर्क रहे। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी ने आरम्भ में डाक-तार विभाग में काम किया था तो प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डाॅ0 राष्ट्रबन्धु भी पोस्टमैन रहे। उर्दू अदब की बेमिसाल शख्सियत पद्मश्री शम्सुररहमान फारूकी, शायर कृष्ण बिहारी नूर, महाराष्ट्र के प्रसिद्ध किसान नेता शरद जोशी सहित तमाम विभूतियाँ डाक विभाग से जुड़ी रहीं। स्वयं उ0प्र0 की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के पिता डाक-तार विभाग में ही थे। साहित्य जगत में अपनी पहचान स्थापित करने वाले तमाम नाम- कवि तेजराम शर्मा, साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव, कहानीकार दीपक कुमार बुदकी, कथाकार ए. एन. नन्द, शायर अब्दाली, गीतकार राम प्रकाश शतदल, गजलकार केशव शरण, कहानीकार व समीक्षक गोवर्धन यादव, बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबंधु, लघु कथाकार बलराम अग्रवाल, कालीचरण प्रेमी, अनुराग लाक्षाकर, मंचीय कवि जवाहर लाल जलज, शारदानंद दुबे, जितेन्द्र कुमार, शायर आलम खुर्शीद इत्यादि भारतीय डाक विभाग की समृद्ध परंपरा के ही अंग हैं। स्पष्ट है कि डाक विभाग सदैव से एक समृद्ध विभाग रहा है और तमाम मशहूर शख्सियतें इस विशाल विभाग की गोद में अपनी काया का विस्तार पाने में सफल रहीं।

सूचना क्रान्ति की बात करने वाले दिग्गज भले ही बड़ी-बड़ी बातें करें, पर भारतीय संदर्भ में इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि आज भी एक अरब से ज्यादा जनसंख्या वाले क्षेत्र में लगभग 50 करोड़ लोगों के पास ही टेलीफोन सुविधायें हैं अर्थात् समग्र टेलीफोन घनत्व मात्र लगभग 45 फीसदी है, जबकि गाँवों में यह और भी कम है। इण्टरनेट सुविधा का इस्तेमाल तो वर्ष 2008 तक मात्र 4.53 करोड़ लोग ही कर रहे थे। सूचना क्रान्ति के दिग्गज तो आज एफ0एम0 क्रान्ति की बात करते हैं, पर गाँवों में जाकर देखिए कितने लोग एफ0एम0 के बारे में जानते हैं। दूरदर्शन को पिछड़ा करार देकर बहु-चैनलीय संस्कृति की बात की जा रही है, टेलीफोन की बजाय मोबाइल और फिर एस0एम0एस0 की जगह एम0एम0एस0 की बात की जा रही है, पर कितने लोग इन सुविधाओं का लाभ उठा पा रहे हैं। सूचना क्रान्ति के जिन महारथियों ने विभिन्न चैनलों पर पत्रों को घिसा-पिटा करार देकर सीधे एस0एम0एस0 द्वारा जवाब माँगना आरम्भ कर दिया है, वे भारत की कितनी प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं? यह सब ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार चुनावों से पहले बड़े-बड़े ‘‘मतदान पूर्व सर्वेक्षणों’’ का दावा किया जाता है, पर चुनाव के बाद अधिकतर सर्वेक्षण फ्लाप नजर आते हैं। कारण ये सर्वेक्षण समाज के मात्र एक तबके के मध्य ही किये गये हैं, ग्रामीण भारत की उनमें पूरी उपेक्षा की गई है। कोई भी सूचना या संचार क्रान्ति ग्रामीण भारत को शामिल किए बिना संभव नहीं।

पत्र कल भी लिखे जाते रहे हैं और आज भी लिखे जा रहे हैं। आज भी हर मिनट में संसार में 1,90,000 पत्र आते-जाते हैं। हाल ही में अन्तरिक्ष में उड़ान भरने वाली भारतीय मूल की सुनीता विलियम्स अपने साथ भगवद्गीता और गणेशजी की प्रतिमा के साथ-साथ अपने पिता के हिन्दी में लिखे पत्र भी साथ लेकर गयी हैं। कोई भी अखबार या पत्रिका ‘पाठकों के पत्र’ कालम का मोह नहीं छोड़ पाती है। डाकघरों के साथ-साथ कूरियर सेवाओं का समानान्तर विकास पत्रों की महत्ता को उजागर करता है। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे सूचना क्रान्ति के अगुआ राष्ट्रों में आज भी प्रति व्यक्ति, हर वर्ष 734 डाक मदें प्राप्त करता है अर्थात एक दिन में दो से भी कुछ अंश ज्यादा। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा को आज भी रोज 40,000 से ज्यादा पत्र प्राप्त होते हैं। फोन द्वारा न तो हर बात करना सम्भव है और न ही इण्टरनेट हर किसी की हैसियत के अन्तर्गत आते हैं। भारतीय गाँवों में जहाँ पत्नियाँ अभी भी घरों से बाहर ज्यादा नहीं निकलतीं, दूर रह रहे पति को अपनी समस्याओं व भावनाओं से पत्रों के माध्यम से ही अवगत कराती हैं और फिर पति द्वारा भेजी गई चिट्ठियों को सहेज कर बाक्स में सबसे नीचे रखती हैं ताकि अन्य किसी के हाथ न लगें। परदेश कमाने गये बेटे की चिट्ठियाँ अभी भी माँ डाकिये से पढ़वाती है और फिर उसी से जवाब लिखने की भी मनुहार करती हैं। कई बार बातों से जब बात नहीं बनती तो भी लिखने पड़ते हैं पत्र। पत्र हाथ में आते ही चेहरे पर न जाने कितने भाव आते हैं व जाते हैं, कारण पत्र की लिखावट देखकर ही उसका मजमून भांपने की अदा। व्यक्ति चिट्ठियाँ तात्कालिक रूप से भले ही जल्दी-जल्दी पढ़ ले पर फिर शुरू होती है-एकान्त की खोज और फिर पत्र अगर किसी खास के हों तो सम्बन्धों की पवित्र गोपनीयता की रक्षा करते हुए उसे छिप-छिप कर बार-बार पढ़ना व्यक्ति को ऐसे उत्साह व ऊर्जा से भर देता है, जहाँ से उसके कदम जमीं पर नहीं होते। वह जितनी ही बार पत्र पढ़ता है, उतने ही नये अर्थ उसके सामने आते हैं। ऐसा लगता है मानो वे ही साक्षात खड़े हों। ऐसे ही किसी समय में हसरत मोहानी ने लिखा होगा-

लिक्खा था अपने हाथों से जो तुमने एक बार
अब तक हमारे पास है वो यादगार खत!

कृष्ण कुमार यादव

Saturday, May 1, 2010

मोर्स कोड टेलीग्राफ


हमारी पिछली पोस्ट 'डाक तार नहीं मात्र डाक विभाग' के सन्दर्भ में कुछेक पाठकों ने टेलीग्राफ के सम्बन्ध में जानकारी चाही थी. उसी क्रम में यह पोस्ट प्रस्तुत है-


महान वैज्ञानिक सैमुअल मोर्स ने मोर्स कोर्ड टेलीग्राफ की खोज करके दुनिया में संचार क्रांति को नया रूप दिया था. मोर्स ने 1840 के दशक में संदेश भेजने की इस नई पद्धति का नाम मोर्स कोड टेलीग्राफ दिया. 19वीं सदी में जब टेलीफोन की खोज नहीं हुई थी उस समय संकेत के द्वारा संदेश एक जगह से दूसरी जगह तक भेजे जाते थे। सैमुएल मोर्स ने इसका निर्माण वैद्युत टेलीग्राफ के माध्यम से संदेश भेजने के लिए किया था। इस दौर में तार मोर्स कोड के जरिए भेजे जाते थे। मोर्स कोड में वस्तुत : एक लघु संकेत तथा दूसरा दीर्घ संकेत प्रयोग किया जाता है। मोर्स कोड में कुछ भी लिखने के लिए लघु संकेत के रूप में डाट का प्रयोग तथा दीर्घ संकेत के लिए डैश का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा मोर्स कोड के लघु और दीर्घ संकेतों के लिए अन्य चिन्ह भी प्रयुक्त हो सकते हैं जैसे- ध्वनि, पल्स या प्रकाश आदि।

इसका प्रचालन भले ही अब काम हो गया हो पर अभी भी मोर्स कोड पद्धति का इस्तेमाल कई जगह पर गुप्त संदेश भेजने के लिए किया जाता है। पानी के जहाज पर अभी भी इसके जरिए संदेश भेजे जाते हैं। आसानी से पकड़े नहीं जाने के कारण गुप्तचर भी इस पद्धति का प्रयोग करते हैं। सेना के सिग्नल रेजिमेंट में इसका बहुत काम है। मोर्स कोड का इस्तेमाल प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में जमकर किया गया। मोर्स कोड के जरिए संदेश को कोड के रूप में बदलकर टेलीग्राफ लाइन और समुद्र के नीचे बिछी केबलों के द्वारा एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता था। संदेश पहुंचने के बाद इसे डीकोड करके लोगों तक भेजा जाता था। वस्तुत: मोर्स कोड ने बेतार संचार के क्षेत्र में एक ऐसा रास्ता खोला जो आगे चलकर संचार क्रांति में बदल गया। इससे आगे चलकर टेलीफोन और मोबाइल क्रांति का सूत्रपात हुआ। एक तरह से यह वायरलेस तकनीक की शुरूआत थी और इसी के आधार पर आगे चलकर टेलीफोन, मोबाइल और सेटेलाइट फोन का आगमन हुआ। यह तकनीक पुरानी हो जाने के बावजूद अभी भी काफी प्रासंगिक है और सेना, नौसेना और हैम रेडियो में इसका इस्तेमाल किया जाता है। कई बार सरकारी कार्यालयों में भी आपात स्थिति हेतु इसका उपयोग किया जाता है !!

Thursday, April 29, 2010

डाक-तार नहीं मात्र डाक विभाग

अक्सर लोगों को कहते सुनता हूँ कि पोस्ट एंड टेलीग्राफ डिपार्टमेंट. पुराने लोगों कि तो छोडिये, नए लोग भी अभी यही जुमला दुहराते हैं. जानकारी के लिए बता दूँ कि अब पोस्ट एंड टेलीग्राफ डिपार्टमेंट पृथक हो चुके हैं. 1984 में डाक व दूरसंचार विभागों के पृथक्करण के साथ ही टेलीग्राफ सेवाएँ दूरसंचार विभाग के साथ जुड़ गईं. अब डाकघरों से टेलीग्राम नहीं होता बल्कि दूरसंचार विभाग के कार्यालयों से होता है. अब पोस्ट एंड टेलीग्राफ डिपार्टमेंट नहीं बल्कि सिर्फ पोस्ट अर्थात डाक विभाग रहा.

वर्तमान में केंद्र सरकार के अधीन संचार मंत्रालय के अधीन डाक, दूरसंचार, सूचना प्रौद्योगिकी- कुल तीन विभाग हैं. इन तीनों विभागों के अपने-अपने सचिव/ CMD होते हैं, जो कि उसी विभाग से होते हैं. मसलन डाक विभाग का सचिव कोई IAS इत्यादि नहीं बल्कि भारतीय डाक सेवा (Indian Postal Services) का वरिष्ठतम अधिकारी ही होता है. डाक भवन संसद मार्ग, नई दिल्ली में स्थित है. सिविल सर्विस डे पर प्रधानमंत्री ने डाक विभाग कि सचिव को विभाग के उत्कृष्ट कार्यों के लिए सम्मानित भी किया है. डाक विभाग की वेबसाईट पर भी तमाम जानकारियाँ ली जा सकती हैं. आशा करता हूँ कि इस पोस्ट के बाद यह भ्रम टूट जाना चाहिए कि डाक एवं तार (P&T) जैसी कोई चीज अब अस्तित्व में है. अब मात्र भारतीय डाक विभाग है और टेलीग्राम सेवाएँ दूरसंचार विभाग के साथ जुड़ चुकी हैं !!

Wednesday, April 21, 2010

युग-युग जियो डाकिया भैया

युग-युग जियो डाकिया भैया, सांझ सबेरे इहै मनाइत है.....
हम गंवई के रहवैया
पाग लपेटे, छतरी ताने, कांधे पर चमरौधा झोला,
लिए हाथ मा कलम दवाती, मेघदूत पर मानस चोला
सावन हरे न सूखे कातिक, एकै धुन से सदा चलैया......

शादी, गमी, मनौती, मेला, बारहमासी रेला पेला
पूत कमासुत की गठरी के बल पर, फैला जाल अकेला
गांव सहर के बीच तुहीं एक डोर, तुंही मरजाद रखवैया
थानेदार, तिलंगा, चैकीदार, सिपाही तहसीलन के
क्रुकअमीन गिरदावर आवत, लोटत नागिन छातिन पै
तुहैं देख कै फूलत छाती, नयन जुड़ात डाकिया भैया
युग-युग जियो डाकिया भैया.......

अनिल मोहन

Sunday, April 18, 2010

पत्रों का घटता चलन एक गंभीर सांस्कृतिक खतरा- महाश्वेता देवी


भारतीय डाक विभाग के 150 वर्ष पूरे होने पर ‘भारतीय डाक : सदियों का सफरनामा’ नामक पुस्तक लिखकर चर्चा में आए अरविंद कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं. अरविन्द जी से जब पहली बार मेरी बातचीत हुई थी तो वे हरिभूमि से जुड़े हुए थे, फ़िलहाल रेल मंत्रालय की मैग्जीन ‘भारतीय रेल’ के संपादकीय सलाहकार के रूप में दिल्ली में कार्यरत हैं। ‘भारतीय डाक : सदियों का सफरनामा’ पुस्तक में जिस आत्मीयता के साथ उन्होंने डाक से जुड़े विभिन्न पहलुओं की चर्चा की है, वह काबिले-तारीफ है. यहाँ तक कि दैनिक पत्र हिंदुस्तान में प्रत्येक रविवार को लिखे जाने वाले अपने स्तम्भ 'परख' में इसकी चर्चा मशहूर लेखिका और सोशल एक्टिविस्ट महाश्वेता देवी ने "अविराम चलने वाली यात्रा'' शीर्षक से की. (2 अगस्त, 2009). इसे हम यहाँ साभार प्रस्तुत कर रहे हैं !!

(यहाँ यह उल्लेख करना जरुरी है कि महाश्वेता देवी ने भी अपने आरंभिक वर्षों में डाक विभाग में नौकरी की थी)

Wednesday, April 14, 2010

भारत में अन्तराष्ट्रीय डाक टिकट (फिलेटलिक) प्रदर्शनी का आयोजन

'INDIPEX-2011' का आयोजन 12-18 फरवरी, 2011 के मध्य प्रगति मैदान, दिल्ली में किया जा रहा है. भारत में पहली अन्तराष्ट्रीय डाक टिकट (फिलेटलिक) प्रदर्शनी का आयोजन 1954 में डाक टिकटों की शताब्दी वर्ष में हुआ था. इस डाक टिकट प्रदर्शनी का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि भारत ने ही दुनिया में सर्वप्रथम इलाहबाद से नैनी के मध्य प्रतीकात्मक रूप में एयर-मेल सेवा आरंभ की. यह ऐतिहासिक घटना 18 फरवरी 1911 को इलाहाबाद में हुई। अर्थात जिस दिन 'INDIPEX-2011' के आयोजन का अंतिम दिन होगा, उसी दिन इस ऐतिहासिक घटना के 100 साल भी पूरे हो जायेंगें. 'INDIPEX-2011' के बारे में ज्यादा जानकारी के लिए इन लिंकों पर जाएँ-
'INDIPEX-2011'
'INDIPEX-2011'

Monday, April 12, 2010

भारत में सबसे पहले चिट्ठियों ने भरी थी हवाई उड़ान

डाक सेवा का विचार सबसे पहले ब्रिटेन में और हवाई जहाज का विचार सबसे पहले अमेरिका में राइट बंधुओं ने दिया वहीं चिट्ठियों ने विश्व में सबसे पहले भारत में हवाई उड़ान भरी। यह ऐतिहासिक घटना 18 फरवरी 1911 को इलाहाबाद में हुई। संयोग से उस साल कुंभ का मेला भी लगा था। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार उस दिन एक लाख से अधिक लोगों ने इस घटना को देखा था जब एक विशेष विमान ने शाम को साढ़े पांच बजे यमुना नदी के किनारों से उड़ान भरी और वह नदी को पार करता हुआ 15 किलोमीटर का सफर तय कर नैनी जंक्शन के नजदीक उतरा जो इलाहाबाद के बाहरी इलाके में सेंट्रल जेल के नजदीक था। आयोजन स्थल एक कृषि एवं व्यापार मेला था जो नदी के किनारे लगा था और उसका नाम ‘यूपी एक्जीबिशन’ था। इस प्रदर्शनी में दो उड़ान मशीनों का प्रदर्शन किया गया था। विमान का आयात कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने किया था। इसके कलपुर्जे अलग अलग थे जिन्हें आम लोगों की मौजूदगी में प्रदर्शनी स्थल पर जोड़ा गया।

आंकड़ों के अनुसार कर्नल वाई विंधाम ने पहली बार हवाई मार्ग से कुछ मेल बैग भेजने के लिए डाक अधिकारियों से संपर्क किया जिस पर उस समय के डाक प्रमुख ने अपनी सहर्ष स्वीकृति दे दी। मेल बैग पर ‘पहली हवाई डाक’ और ‘उत्तर प्रदेश प्रदर्शनी, इलाहाबाद’ लिखा था। इस पर एक विमान का भी चित्र प्रकाशित किया गया था। इस पर पारंपरिक काली स्याही की जगह मैजेंटा स्याही का उपयोग किया गया था। आयोजक इसके वजन को लेकर बहुत चिंतित थे, जो आसानी से विमान में ले जाया जा सके। प्रत्येक पत्र के वजन को लेकर भी प्रतिबंध लगाया गया था और सावधानीपूर्वक की गई गणना के बाद सिर्फ 6,500 पत्रों को ले जाने की अनुमति दी गई थी। विमान को अपने गंतव्य तक पहुंचने में 13 मिनट का समय लगा। विमान को फ्रेंच पायलट मोनसियर हेनरी पिक्वेट ने उड़ाया।

(चित्र में : भारतीय डाक द्वारा वर्तमान में प्रयुक्त फ्रेटर)

Saturday, April 10, 2010

क्या-क्या न कराये ये डाक टिकट संग्रह का शौक


हम सभी ने बचपन मे ढेर सारी शरारतें की होंगी, अब चिट्ठाकार है तो निसंदेह बचपन(अभी भी कौन से कम है) मे खुराफाती रहे ही होंगे। नयी नयी चीजें ट्राई करना और नए नए शौंक पालना किसे नही पसन्द? तो आइए जनाब आज बात करते है बचपन के कुछ खुराफाती शौंक की। इसी बहाने हम सभी अपने अपने बचपन मे ताक झांक कर लेंगे।

डाकटिकटों का संग्रह ये शौंक अक्सर सभी बच्चों मे पाया जाता है। अब पुराने जमाने मे चिट्ठियों का बहुत चलन था, इसलिए डाक टिकटों का संग्रह कोई महंगा शौंक नही था। पहले पहल तो हमने अपने घर मे आने वाले सारे पत्रों की डाक टिकटों का संग्रह करना शुरु किया। हम पत्रों को पाते ही, सफाई से उसकी डाक टिकट निकाल लिया करते थे, धीरे धीरे हमे डाक टिकट निकालने मे अच्छी खासी काफी महारत हासिल होने लगी। सबसे पहले हमने रामादीन पोस्टमैन को मोहरा बनाया। बस ठाकुर के होटल पर बिठाकर एक कटिंग चाय पिलाने मे काम बन जाता था। जब तक रामादीन चाचा चाय और समोसे पर हाथ साफ़ करते , हम लोग डाकटिकटों पर हाथ साफ कर देते।

थोड़े दिनो मे रामादीन ने भी डिमांड करनी शुरु कर दी , बोले कटिंग चाय और बांसी समोसे से काम नही चलेगा, बोले आधा पाव दूध वाली चाय और मिठाई खिलाओ। हम लोगों ने कास्ट बेनिफिट एनालिसिस किया, और यह निश्चय किया कि हम रामादीन की वामपंथियो टाइप ब्लैकमेलिंग के आगे नही झुकेंगे और कांग्रेस की तरह अपने बलबूते मैदान मे उतरेंगे। इस तरह से हम लोगों ने, आत्मनिर्भर होकर मोहल्ले की चिट्ठियों को निशाना बनाना शुरु कर दिया।

हमारे लिए घर के बाहर लगे चिट्ठी वाले डाक बक्से खोलना भी कोई बड़ी बात नही रही थी। अब वो ज्ञान ही क्या जो अपना प्रकाश दूर दूर तक ना फैलाए, सो इस सूक्ति को चरितार्थ करते हुए हमने अपनी इस महारत को गली मौहल्ले के बच्चों तक पहुँचाया। लोगों को अब पत्र बिना डाक टिकट के मिलने लगे थे, पहले पहल तो लोगों को पता ही नही चलता, लेकिन धीरे धीरे कुछ शक्की लोगों ने हम लोगों की निगरानी शुरु कर दी थी। एक दो बार पकड़े भी गए, सूते भी गए, अब वो शौंक ही क्या, जो दबाने से दब जाए। हमारा यह शौंक जारी रहा, धीरे धीरे लोगों ने डाक टिकटों की परवाह करनी छोड़ दी।

अगली समस्या थी संग्रह करने की। हम लोग एक डब्बे मे डाक टिकटे संग्रहित करते, लेकिन टिल्लू और मैने एक दूसरे पर चोरी का इल्जाम लगाया। जो कि काफी हद तक सही इल्जाम था। काफी मुहाँचाई और हाथापाई के बाद नतीजा निकला कि हम लोग अपनी अपनी स्कूल की किताबों और कापियों मे टिकट सम्भालकर रखेंगे। थोड़े दिनो तक तो हम किताबों के अन्दर ही डाकटिकट संग्रहित कर लेते थे, लेकिन परेशानी ये होती थी, स्कूल मे दोस्त यार डाकटिकट छुवा देते, अब हमारी मेहनत पर कोई हाथ साफ करे, ऐसा कैसे हो सकता था। सो हम लोगों ने डाक टिकट संग्रह करने के लिए एक फाइल खरीदने का निश्चय किया। अब ये शौंक महंगा लगने लगा था।

अपने शौंक को और बेहतर बनाने के लिए हम हैड पोस्ट ऑफिस वाले पोस्टमास्टर से मिले, उसने हमको और नयी नयी कहानी समझा दी। बोला इस तरह का डाक टिकट संग्रह कुछ मायने नही रखता, तुम लोग फर्स्ट डे स्टैम्प का संग्रह करो, यानि जिस भी दिन कोई नयी डाक टिकट जारी हो (वैसे भी भारत मे इतने राजनेता वगैरहा है, किसी ना किसी की जन्म, मृत्यू या कोई एचीवमेंट डे अक्सर हर दिन होता ही रहता है।) पोस्ट ऑफिस मे आओ, फर्स्ट डे स्टैम्प कार्ड खरीदो, डाक टिकट लगाओ,स्टैम्प लगवाओ और उसको संग्रहित करो। मामला खर्चीला था, लेकिन अब क्या करें, जानकारी कम थी, इसलिए इनकी नसीहत को भी अपनाना पड़ा।

धीरे धीरे देशी डाकटिकटो से मन भर गया तो हम विदेशी चिट्ठियों की डाक टिकटों पर हाथ साफ़ करने लगे। उस जमाने मे सोवियत संघ से किताबे आया करती थी, उस पर डाकटिकट हुआ करते थे। हम लोग वो डाकटिकट छुवा दिया करते थे। फिर एक दिन पता चला कि किदवई नगर मे एक दुकानदार बाकायदा विदेशी डाकटिकटों की बिक्री करता है। ब्रिटेन, रोमानिया, हंगरी, नामिबिया और ना जाने कौन कौन से देशों की नयी नयी डाकटिकटे देखने को मिली। हमने जब उसके सोर्स के बारे मे जाँच पड़ताल की तो हमे पता चला कि वो जनाब विदेशी डाकटिकटों की रिप्रिंटिग करके बेचते थे। चोर को मिले मोर, हम लोग हर हफ़्ते(जिस दिन जेबखर्च मिलता था) किदवई नगर जाकर, डाक टिकट खरीदेते, खरीदते क्या जी, चार खरीदते और आठ चुपचाप गायब कर लाते। इस तरह से चोर के घर चोरी का सिलसिला शुरु हुआ। धीरे धीरे दुकानदार को हम पर शक होने लगा और उसने हम लोगों की दुकान मे इंट्री ही बैन कर दी। अब वो खुद चोरी करता था तो सही था, हम लोग करते थे तो गलत, ये कहाँ का इन्साफ़ है। सही कहते है, चोर वही होता है जो पकड़ा जाता है। अब हमारी जेबखर्च का आधा हिस्सा कामिक्स मे और बाकी का हिस्सा डाक टिकटों मे खर्च (ईमानदारी से खरीदने में) होने लगा. आप भी अपनी बचपन की डाकटिकटों के संग्रह वाली कहानी छापना मत भूलना।

साभार : http://www.jitu.info/merapanna/?gtlang=sq

Wednesday, April 7, 2010

पत्रों पर आधारित फिल्म 'जैपनीज वाइफ'

पत्रों की दुनिया किसे नहीं भाती. फोन और एसएमएस के सूचना और संपर्क-सूत्र बनने के इस दौर में भी पत्र के जरिये अपनी भावनाएं व्यक्त करना लोग भूले नहीं हैं. तभी तो अभी भी पत्रों की दुनिया पर फ़िल्में बनती रहती हैं. पंकज उदास द्वारा नाम फिल्म में गाया गया गाना- चिट्ठी आई है हर किसी की जुबान पर चढ़ा था. हाल ही में ' वेलकम टू सज्जनपुर' फिल्म की थीम भी पत्र ही थे. अब मशहूर फिल्मकार अपर्णा सेन ने सूचना और भावभिव्यक्ति के इस सबसे पुराने माध्यम पत्र लेखन की थीम पर ' जैपनीज वाइफ' फिल्म का निर्माण किया है. यह फिल्म अंग्रेजी राइटर कुणाल बसु की शॉर्ट स्टोरी पर बेस्ड है। यह फिल्म अंग्रेजी और बांग्ला में बनी है।

फिल्म में नायक और नायिका पत्र-मित्र हैं। यह फिल्म सुंदरवन के टीचर स्नेहमोय और जापानी लडकी मियोग की अनूठी प्रेम कहानी पर आधारित है। ये दोनों पत्रों के जरिए एक दूसरे से मिलते हैं और दोनों में प्यार हो जाता है। और तो और दोनों पत्रों के माध्यम से शादी भी कर लेते हैं। सुन रहे हैं न, अभी तक नेट पर लोग शादियाँ कर लेते थे, अब पत्रों द्वारा. सबसे रोचक तो यह है कि पत्र-मित्रता द्वारा हुई उनकी शादी को 15 साल हो गए हैं, लेकिन उन्होंने एक दूसरे को देखा तक नहीं है। तो आप भी डाकिया बाबू के साथ इस फिल्म का लुत्फ़ उठाईयेगा और एक बार फिर से पत्रों कि दुनिया में पहुँच जाइएगा !!
(चित्र में फिल्म की नायिका राईमा सेन )

Thursday, April 1, 2010

जनगणना कार्य में पहली बार डाकिया बाबू

आज 1 अप्रैल से भारत में अब तक की सबसे विस्तृत व व्यापक जनगणना का कार्य आरंभ हो गया. दो चरणों में होने वाली इस जनगणना में पहली बार राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR) भी तैयार किया जायेगा, जिसके जरिये नागरिकों की व्यापक पहचान का डाटा-बेस तैयार किया जायेगा. इस बार 3 तरह के अलग-अलग फार्म तैयार किये गए हैं, जो कुल 16 भाषाओँ में होंगें और उनकी कुल संख्या 64 करोड़ से भी ज्यादा होगी. यह सामग्री प्रेस में छपने के बाद सीधे ही 17, 500 प्रभारी अधिकारीयों के पास पहुंचेगी. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जनगणना 1897 लगे कर्मचारियों की संख्या दुनिया के 82 देशों कि जनसंख्या से अधिक है. जाहिर है काम ज्यादा है तो जटिल भी है, फिर डाकिया बाबू किस दिन काम आयेगा. जी हाँ, इस बार पहली बार इन फार्मों और दूसरी सामग्री के वितरण के लिए डाक विभाग की सेवाएँ ली जा रही हैं, ताकि सारी सामग्री समय से सही व्यक्ति/अधिकारी के पास पहुँच जाएँ. चलिए इसी बहाने डाकिया बाबू भी इस महत्वपूर्ण अनुष्ठान का अंग बना. अब आप लोग भी तैयार हो जाइये इस अनुष्ठान में अपनी भागीदारी हेतु ताकि यह अच्छी तरह से निपट सके !!

Friday, March 26, 2010

पोस्टमैन

तन पर कोट डटा है, सिर पर खाकी साफा बांधे
चला आ रहा है लटकाए, झोला अपना कांधे
कितने पत्र पिताओं के हैं, माताओं के कितने
उतने यहां खड़े बालकगण, बाट जोहते जितने
सबका नाम पुकार वस्तुएं, सबकी सबको देता है
बदले में न किसी से भी, एक दाम है लेता।

हरिशचंद्र देव चातक

Sunday, March 21, 2010

शेरशाह सूरी के घोड़े

मेरी स्मृति में
अब भी दौड़ते हैं
शेरशाह सूरी के घोड़े

घोड़ों की पीठ पर सवार जांबाज
जांबाज की पीठ पर कसा चमढ़े का थैला
चमढ़े के थैलों में भरी ढ़ेर सारी चिट्ठियां

जमीन पर सरपट दौड़ते ये घोड़े
जंगल-पहाड़-बीहड़ों को लांघते
नदी-तालाब-नालों को फांदते

जा पहुंचते है उस गांव में
जहाँ एक प्रेमिका न जाने कब से
बैठी है एक पत्र पाने के इंतजार में

पत्र पाते ही खिल जाता है
उसका मुरझाया हुआ चेहरा
बहने लगती है एक नदी
हरहराकर उसकी देह में

घोड़ों को वापिस लौटता देख
पूछती है मुमताजमहल
अपनी प्रिय सहेली से
ये घोड़े फिर कब लौटेंगे?

गोवर्धन यादव
103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (म0प्र0)

Thursday, March 11, 2010

पत्र लिखिए : मित्र बनाइए

अभी वरिष्ठ साहित्यकार गिरिराज किशोर द्वारा सम्पादित पत्रिका ’अकार‘ को मैं पढ रही थी, उसमें लार्ड भिक्खु पारीख की ’ओसामा बिन लादेन बनाम महात्मा गाँधी‘ काल्पनिक पत्र-संवाद के माध्यम से लिखी रचना प्रकाशित की गयी है। एक तरफ लादेन का इस्लामवाद बनाम हिंसावाद है तो दूसरी तरफ गाँधी का अहिंसावाद है। दोनों ने अपनी बात पत्रों के माध्यम से कही है। एक ने हिंसा की वकालात की है तो दूसरे ने अहिंसा का मार्ग ही श्रेष्ठ बताया है। लादेन के रूप में लेखक ने अमेरिका और ईसाइयत की मंशा को प्रकट किया है, इसी कारण इस्लामी साम्राज्यवाद को भी विस्तार देने एवं उसे पुनःस्थापित करने का तर्क प्रस्तुत किया है। पत्रों के माध्यम से लेखक ने एक सशक्त अभिव्यक्ति पाठकों को उपलब्ध कराई है। इसी प्रकार पत्रिका में अज्ञेय के कुछ पत्र भी प्रकाशित किए गए हैं। पत्रों को पढने के बाद मन में पत्र-शैली के प्रति विस्मृत प्रेम उमड पडता है, लेकिन वर्तमान में पत्र-लेखन के अभाव के कारण कहीं एक शून्य भी उभर आता है। हमारे आपसी रिश्तों का शून्य, अभिव्यक्ति की सरलता और सहजता का शून्य, आत्मा के आनन्द का शून्य। क्या प्रेम की अभिव्यक्ति के ये सहज माध्यम, भविष्य में अपना अस्तित्व खो देंगे? क्या हमारे मध्य केवल सूचनाओं का ही आदान-प्रदान होगा? क्या अब कोई नायिका बिस्तर पर, टाँगों को झुलाती हुई, पत्रों का सुख प्राप्त नहीं करेगी? क्या कोई नायक अब अपने मन की बात लिखाने को अपना कोई मित्र नहीं तलाशेगा? सीमा पर गए किसी पुत्र का पत्र क्या अब चौपाल पर नहीं पढा जाएगा? क्या अब इन्टरनेट के माध्यम से केवल ’मैं ठीक हूँ, आप कैसे हैं‘ का ही आदान-प्रदान होगा? या फिर हम फोन से ही घण्टों चिफ रहकर दिनचर्या और रात्रिचर्या का ही विवरण देते रहेंगे ?

लाल, हरी, नीली, काली स्याही, यहाँ तक की कभी खून से खत लिखना, एक-एक शब्द को सजाना, कभी शब्दों के माथे को कंगूरेदार बंधन से बाँधना तो कभी वैसे ही खुले छोड देना। कभी किन्हीं पंक्तियों को अण्डर लाइन करना तो कभी बॉक्स बना देना। लिफाफा देखकर ही मजमूं भाँप लेना और पत्र को होले से, चुफ से खोलना। पत्र पर पता सीधे ही व्यक्ति को इंगित करते हुए लिखा जाए या फिर केयर ऑफ या फिर डॉटर आफ या ऐसा ही कुछ। जैसे ही सुबह के ग्यारह बजते, बराण्डा आबाद हो जाता। बार-बार चहलकदमी करते हुए मुख्य द्वार पर ही निगाहें टिकी रहतीं। कब डाकिया आएगा और कब कोई पत्र वह लाएगा? यह जरूरी नहीं था कि कोई प्रेम पत्र ही आएगा, लेकिन कोई भी पत्र आए, बस यही इन्तजार रहता था। डाकिया भी कभी पानी पीता, कभी छाछ पी लेता, होली-दीवाली ईनाम भी पा लेता। लेकिन अब न जाने कब डाकिया आता है और कब डिब्बे में फालतू से कागज डालकर चला जाता है। हाँ, कूरीयर वाला जरूर हाथ में डाक देकर जाता है। लेकिन वह भी तो किसी मीटिंग की सूचना मात्र ही होती है।

मन तडप उठता है, कभी ठाले बैठे हुए। कलम की स्याही मचलने लगती है, शब्द भी बादलों की तरह घुमड-घुमड कर आने लगते हैं, लेकिन किस को पत्र लिखें? कभी बच्चों को एकाध बार लिख दिया तो वे फोन पर बोले कि इतना बडा पत्र पढने में तो समय लगेगा, कभी फुर्सत से पढेंगे, और यह फुर्सत उन्हें आज तक नहीं मिली। पति और पत्नी तो आज साथ-साथ ही रहते हैं, कैसे पत्र लिखें? यदि अलग-अलग शहरों में नौकरी के कारण रहते हैं भी तो फोन है न, हालचाल पूछने के लिए। मित्र तो आज रहे ही नहीं, बस सभी या तो साथी हैं या फिर बिजनेस पार्टनर। लेकिन फिर भी पत्र लिखे जा रहे हैं। मधुमती जैसे ही लोगों के हाथों में जाती है, वैसे ही कुछ पत्र आते हैं। लेकिन लगता है जैसे यह भी एक सभ्यता का तकाजा मात्र ही है। शायद उसके पीछे भी कहीं छपासीय-सम्बन्ध बनाने की ही सोच है। कभी-कभी लगता है कि नहीं कुछ लोग हैं जो वास्तव में पत्र लिख रहे हैं। वे यदि प्रयास करें और मित्र-भाव को ही बढावा देने के लिए पत्र लिखें तो पत्रों का वजूद पुनः जीवित हो उठेगा। नहीं तो हमारा आने वाला कल पत्र-विहीन हो जाएगा।

ऐसा नहीं है कि संचार-माध्यमों के कारण पत्रों का वजूद समाप्त हुआ हो। इसका एक कारण मुझे और दिखायी देता है। हमारे मन में अपनी बात कहने की जो ललक थी, वह समाप्त होती जा रही है। हमारा अन्दर जैसे रीत गया हो। हम जब बातें भी करते हैं तब भी यही होता है, फालतू की बातें, राजनीति की बातें, खेल की बातें आदि। कभी लगता है जैसे हम अपने आपसे ही भागते फिर रहे हैं। कहीं बातें करने लगें और रिश्तों की बातें निकल जाएँ, उन्हें पनपाने की बातें निकल जाएँ, तो फिर क्या होगा ? नौकरी में भी यही डर बना रहता है, सबसे दूरी बनाकर चलो। नजदीकियाँ परेशानी का कारण बन सकती हैं। हम एक-दूसरे को मात देने का ही खेल खेल रहे हैं, इसी कारण यदि मन की और आत्मा की बातें कर लीं तो फिर झगडा ही क्या रह जाएगा ? घर-परिवार में भी यही डर हम पर हावी है। बेटा, बाप से बात नहीं करता। क्यों नहीं करता ? कहीं बाप उससे उसकी कमाई न पूछ ले! बेटा आजकल माँ से भी बात नहीं करता, कहीं माँ उससे प्रेम की भीख न माँग ले! भाई अपनी बहन से भी बात करते हुए कतराता है, कहीं वह अपना हिस्सा न माँग ले। जब रक्त के रिश्तों की ही यह हालत है तो फिर दूसरे रिश्तों की तो बिसात ही क्या है ? किसी पैसे वाले से रिश्ता कायम कर नहीं सकते, क्योंकि वह ही नहीं चाहता कि आप उससे रिश्ता कायम करें। किसी गरीब से भी रिश्ता नहीं बना सकते क्योंकि एक डर हमेशा बना रहता है कि यह कब आफ संसाधनों की माँग कर लेगा? यही डर हमें कहीं दूर ले गया है हमारी अभिव्यक्ति से। बस अब तो हम केवल मात्र एक मशीन बनकर रह गए हैं। खाओ-पीओ और सो जाओ।

अपने अन्दर का आनन्द सूखता जा रहा है। आनन्द का सोता तो एक-दूसरे का मन बाँटने से फूटता है, अब यह प्रथा बन्द हो गयी है और आनन्द का झरना भी सूख गया है। सुबह उठते ही कभी हम टी.वी में आनन्द ढूँढने की कोशिश करते हैं और कभी समाचार-पत्र में। आप अपने दिल पर हाथ रखिए और ईमानदारी से बताइए कि क्या आपका कोई राजदार है? है ऐसा कोई इस दुनिया में जिसे आप अपने मन की बात बताते हैं? और मन की बात भी कैसी? पैसा कमाने की नहीं, भोग की नहीं। शुद्ध मन की। कभी टटोलिए तो सही अपने मन को, पता नहीं इसमें कितना कुछ दबा है? धकेलिए तो सही कभी पैसे को अपने पास से और फिर चिंतन करिए केवल अपने आपका। संसार को अपनी बाँहों में समेटने का मन हो जाएगा। सारे ही मन के कलुष धुल जाएंगे। मन आपसे प्रश्न करेगा कि अरे मैं क्यों अपने ही सहयात्री से ईर्ष्या कर रहा हूँ ? क्यों उसके मार्ग की बाधा बनना ही मेरा उद्देश्य रह गया है ? क्या मेरा जीवन केवल उसकी ईर्ष्या को ही समर्पित होकर रह जाएगा ? कभी फक्कडों वाला प्रेम करके देखिए। जैसे हम कहीं पिकनिक पर जाते हैं और सारे ही मिलकर अपने-अपने टिफन खोलते हैं, वैसे ही खोलिए अपने-अपने मन। फिर देखिए कितनी मिठास आफ जीवन में भर जाएगी ?

फिर मैं अपनी मूल बात पर लौट आती हूँ। जब पेन में स्याही रीत जाए और आप कुछ लिखना चाहें तो क्या आप लिख सकेंगे? ऐसे ही जब मन में प्रेम की स्याही ही सूख जाए तब हम कैसे अपनी अभिव्यक्ति को शब्द दे सकेंगे? फिर हम बहाना बनाएँगे, समय का। अरे छोडो भी, समय कहाँ है, जो पत्र लिखें ! फोन उठाओ और समाचार दे दो। इसलिए इस प्रेम की स्याही को सूखने मत दीजिए। अपने मन को रीता कभी मत होने दीजिए। रिश्ते न सही, मित्र न सही, बस ऐसे ही किसी को भी पत्र लिखिए। आफ पास स्याही शेष है तो रिश्ते भी कभी अपने हो ही जाएँगे। यदि स्याही ही सूख गयी तो फिर रिश्तों को कौन सिंचित करेगा? कभी मन होता है कि अनजान व्यक्तियों को ही पत्र लिखें, ऐसे व्यक्तियों की ही पत्र लिखें जिनके जीवन में बसन्त की जगह पतझड ने ले ली है। लेकिन फिर डर हावी होने लगता है, रिश्ता बनने का। रिश्ते से अधिक किसी के लिए कुछ करने का। हम केवल आत्मिक सुख को ही नहीं तलाशते हैं, कि किसी के पत्र से हमें कितना सुकून मिला है! लेकिन हम फिर उस पर निर्भर भी होना चाहते हैं, यही डर हमें किसी को भी पत्र नहीं लिखने देता। मुझे कुछ लोगों से बातें करना अच्छा लगता है, कभी मन होता है कि किसी को पत्र लिखूँ, लेकिन फिर वही डर मुझ पर भी हावी होने लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मुझसे उसकी उम्मीदें जगने लगेंगी ? इन्हीं उम्मीदों के कारण तो अपने पारिवारिक रिश्ते हमसे दूर हुए थे।

कल तक हम दुनिया में अपना परिवार ढूँढते थे, अपने गौत्र से प्रारम्भ करते हुए, अपनी जाति, धर्म, देश के कारण एक परिवारीय रिश्ता व्यक्तियों से जोड लेते थे। पत्र उन रिश्तों को सहेजने के माध्यम बनते थे। हमारे मन के अन्दर एक दूसरा दार्शनिक व्यक्ति जो बैठा है, उसे हम पत्रों के माध्यम से बाहर निकालते थे। धीरे-धीरे यह दर्शन हम पर हावी होने लगता था और हम श्रेष्ठ सुसंस्कृत मानव बनने की ओर बढते जाते थे। अपने परिवार में व्यापार को कहीं जगह नहीं देते थे। केवल एक-दूसरे का हाथ पकडकर चलने की परम्परा तक ही हम सीमित रहते थे। लेकिन आज हम दुनिया को व्यापार की निगाहों से देख रहे हैं। हम रिश्तों में व्यापार ढूँढ रहे हैं। मेरा रिश्तेदार या परिचित कौन कहाँ बैठा है? उससे मैं कैसे काम निकाल सकता हूँ? बस इसी बात का आकलन रह गया है। जब हम रिश्तों में ही व्यापार ढूँढने निकलेंगे तब हम एक-दूसरे से बचते फिरेंगे। कोई कितना भी प्रिय क्यों न लगे लेकिन यदि मन में यह भय समा जाएगा कि यह मेरे द्वारा अपना कोई नाजायज कार्य कराएगा तब वह रिश्ता न रहकर एक मुसीबत भर रह जाएगा। फिर हमें सभी रिश्तों में केवल स्वार्थ दिखायी देने लगेगा और धीरे-धीरे हम अपने इस परिवार से दूर होते जाएँगे।

सबके मन में प्रेम बसा है, सबके मन में दर्द बसा है। लेकिन इस प्रेम और इस दर्द से कहीं अधिक डर बसा है। अतः हमें इस प्रेम और दर्द को बाहर निकालना है और डर को पीछे धकेलना है। जिनके हाथ में कलम है, कम से कम वे तो शुरुआत कर ही सकते हैं। यदि यह प्रेम सूख गया तब फिर यह दुनिया कितनी वीभत्स हो जाएगी शायद इसकी कल्पना कोई नहीं कर पा रहा है? पत्र इस प्रेम को बाहर निकालने के लिए या उसे जागृत करने के लिए एक सशक्त माध्यम बन सकते हैं। आइए हम सब एक-दूसरे को बिना किसी स्वार्थ के पत्र लिखें। केवल एक ही स्वार्थ हमारे ध्यान में रहे कि इस पत्र को पढने से मुझे सुख मिला। मैं भी ऐसा ही पत्र लिखकर दूसरे को सुखी करूँ। आज दुनिया को मित्रों की आवश्यकता है, हमने अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए मित्र खो दिए हैं। तो उठाइए कलम और अपने शब्दों के द्वारा मित्र बनाइए और दिल पर जमी बर्फ को पिघलाने का प्रयास कीजिए। मैं यहाँ श्री गिरिराज किशोर जी को भी धन्यवाद देती हूँ, जिन्होंने पत्र प्रकाशित करके मेरी पत्रों के प्रति अभिव्यक्ति को शब्द देने के लिए प्रेरित किया। अभाव तो बहुत दिनों से खटक रहा था, लेकिन बिना किसी प्रेरणा के शब्द अभिव्यक्त नहीं होते अतः आप भी किसी की प्रेरणा बनिए और पत्रों के द्वारा मित्र बनाइए। केवल मित्र, लाभ का चिंतन नहीं और मित्र से तो कदापि नहीं ।

डॉ.अजित गुप्ता
(साभार : मधुमती)

Saturday, February 27, 2010

!! होली की शुभकामनायें !!


मानवता की हो पिचकारी.
रंग भरा हो प्यार का.
आओ सब मिलकर खेलें होली.
भीग जाये तन-मन यार का !

!! होली की शुभकामनायें !!

Thursday, February 18, 2010

डाक-विभाग से संबंधित विषयों पर हिंदी पुस्तकें लिखने पर पुरस्कार

डाक-विभाग से संबंधित विषयों पर हिंदी में मौलिक पुस्तकें लिखने पर पुरस्कार योजना आरंभ की गई है. प्रथम पुरस्कार- 20,000/- दितीय पुरस्कार-16,000/- तृतीय पुरस्कार-10,000/- अंतिम तिथि-30 सितम्बर, 2010. विस्तृत सूचना हेतु इस लिंक पर जाएँ-
http://www.indiapost.gov.in/Pdf/Hindi_Puraskar_2009.pdf

Wednesday, February 17, 2010

पत्र-मोबाइल संवाद

आज के इस संचार युग में पत्रों का वर्चस्व मोबाइलों के धुआंधार प्रवेश ने कुछ कम कर दिया है, चारों तरफ हर हाथ में मोबाइल ही मोबाइल नजर आते हैं। ऐसी ही भीड़ में एक बार पत्र की मुलाकात मोबाइल से होती है दोनों में अभिवादन के पश्चात इस तरह साक्षात्कारिक वार्तालाप होता है।

पत्र- कहो भाई क्या हाल है, आजकल हर जगह नजर आ रहे हो।

मोबाइल- ये मेरा अहो भाग्य है कि मुझे हर कोई पसन्द कर रहा है, लोग चाहे जहाँ भी रहें मुझे साथ अवश्य रखते है।

पत्र- हाँ भाई तुमने कुछ हद तक मेरी जगह भी ले ली है, अब तो प्रेमी लोग मुझे लिखने की बजाय तुम्हारा ही इस्तेमाल करते है।

मोबाइल- बोरियत यार, ये प्रेमी-प्रेमिका घंटों एक ही विषय पर बातें करते रहते है जैसे आमने-सामने बातें कर रहें हों, समय की महत्ता का ध्यान ही नही रखते.

पत्र- मुझे तो आज भी वो दिन याद है जब लोग हमेशा पहला प्यार नजरों से और उसका इजहार मुझे लिखकर किया करते थे. कुछ लोग तो आज भी यह तरीका बद्स्तूर जारी रखे हुए है।

मोबाइल- ठीक कहते हो भाई मेरा जो भी अस्तित्व हो, पर इतिहास के पन्नों में मेरा नाम कहीं नहीं मिलता है। तुम्हारा नाम तो वहाँ स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है।

पत्र- बहुत गर्व होता है खुद पर जब जानी-मानी हस्तियाँ मुझे लिखकर अपनी प्रसन्नता या आभार व्यक्त करती है और मेरे अंश को पत्रिकाओं/समाचार पत्रों में सजाकर-सवारकर छापा जाता है।

मोबाइल- अरे भाई तुम्हारा वितरण तो डाकिया भी मुझे इस्तेमाल करके करता है।

पत्र- तो इसमे आश्चर्य की क्या बात है. वह प्यार व सम्मान सहित मेरे गंतव्य तक तो मुझे पहुँचाता है। मेरी प्रतीक्षा में आज भी लोग बेचैन रहते हैं मुझे पाकर उन्हे अजीब सुख भरा अहसास होता है तुम्हारे अनावश्यक एवं असमय आने पर तो लोगों का मूड़ भी खराब हो जाता है।

मोबाइल- अरे भाई मुझे तो फिल्मों में भी लिया गया है।

पत्र- बिल्कुल फूहड गानों की तरह लिया गया है जैसे ‘‘हृवाट इज मोबाइल नम्बर करूं क्या डाइल नम्बर’’ या ‘‘मेरे पिया गये रंगून वहाँ से किया है टेलीफून’’ आदि . मुझे देखो कई फिल्मों में मैं फिल्माया गया हूँ .मैने अपनी अभिव्यक्ति से लोगों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ी है जहाँ ‘नाम’ नामक फिल्म में पंकज जी ने इस खूबसूरती से मेरा बखान किया है ‘‘चिट्ठी आई है आई है, चिट्ठी आई है’’, वहीं प्रेमी अपनी प्रेमिका को पत्र भेजकर अपनी भावनाओं का इजहार करता है कि ‘‘मेरा प्रेम पत्र पढ़कर कहीं नाराज न होना‘‘। सरकारी महकमों में आज भी मेरा पूर्णतयः अस्तित्व है. बिना मेरे वहाँ आज भी पूर्ण कार्य सम्भव नहीं है। कोई भी वैधानिक प्रक्रिया मेरे बिना सम्भव नहीं है और तुम कुछ जगहों पर ही अपनी पैठ बना पाये हो

मोबाइल- कुछ भी कहो भाई तुम्हारा जमाना जानेवाला है।

पत्र- नहीं मोबाइल भाई तुम दूध की तरह कुछ दिन और उबल लो, तुम्हारा अस्तित्व शीघ्र ही कम पड़ने वाला है क्योंकि आये दिन मुझे लिखने वाले, पढ़ने वाले यह वार्ता करते रहते है कि जब कभी तुम्हारे माध्यम से बात करना चाहते है तो उन्हें इस प्रकार के स्वर सुनाई देते है।
- इस रूट की सभी लाइने व्यस्त हैं, कृपया थोड़ी देर बात डायल करें।
- जिस नम्बर पर आप सम्पर्क करना चाहते है, वह अभी पहुँच से बाहर है।
- जो नम्बर आपने डायल किया है उसका उत्तर नहीं मिल रहा है।
- यह नम्बर अभी व्यस्त है कृपया प्रतीक्षा करें।
या कभी-कभी डायल करने पर बिना किसी संदेश/वार्ता के ही सम्पर्क टूट जाता है। सम्पर्क टूटने के साथ ही बार-बार प्रयास कर रहे तुम्हारे धारकों के दिल के अरमान भी टुकड़ों में विखर जाते है और वह बेचारा अन्ततः कागज कलम लेकर मेरा ही रूप तैयार करके अपने प्रिय के पास मुझे भेजकर अपना संदेश प्रेषित कर देता है। तुम्हारे ऐसे रूख को देखते हुए लोग फिर मुझे सराहने लगे हें मुझे ही प्रयोग करने लगे है अतः हे मोबाइल भाई अब अपना अलाप बन्द करो।

मोबाइल बेचारा मायूस होकर ‘‘निराशा की घण्टी’’ बजाता हुआ चला जाता है।

एस0 आर0 भारती

Monday, February 15, 2010

डाकिया की वर्दी फिर से खाकी

आपको डाकिया बाबू की वर्दी याद है. आपने अक्सर डाकिया बाबू को खाकी वर्दी में ही देखा होगा. इस खाकी वर्दी को 2004 में बदलकर नीला कर दिया गया था. पर अब पुन: इसे खाकी कर दिया गया है. इस सम्बन्ध में डाक विभाग ने 9 दिसंबर, 2009 को आदेश जारी कर दिए हैं...तो अब पूर्ववत डाकिया बाबू खाकी वर्दी में ही चिट्ठियां बाँटते नज़र आयेगा !!

Tuesday, February 9, 2010

अब नहीं होता डाकिये का इंतजार


डाकिया

छोड़ दिया है उसने
लोगों के जज्बातों को सुनना

लम्बी-लम्बी सीढियाँ चढ़ने के बाद
पत्र लेकर
झट से बंद कर
दिए गए
दरवाजों की आवाज
चोट करती है उसके दिल पर

चाहता तो है वह भी
कोई खुशी के दो पल उससे बाँटे
किसी का सुख-दुःख वो बाँटे
पर उन्हें अपने से ही फुर्सत कहाँ?

समझ रखा है उन्होंने, उसे
डाक ढोने वाला हरकारा
नहीं चाहते वे उसे बताना
चिट्ठियों में छुपे गम
और खुशियों के राज

फिर वो परवाह क्यों करे?
वह भी उन्हें कागज समझ
बिखेर आता है सीढ़ियों पर

इन कागजी जज्बातों में से
अब लोग उतरकर चुनते हैं
अपनी-अपनी खुशियों
और गम के हिस्से
और कैद हो जाते हैं अपने में।

(जनसत्ता, 6 फरवरी 2010 में प्रकाशित उपरोक्त रिपोर्ट को देखकर बरबस मुझे अपनी यह कविता " डाकिया" याद आ गई. आप भी कुछ कहें !!)

कृष्ण कुमार यादव

Wednesday, February 3, 2010

अमेरिका में हिन्दू-देवी-देवताओं पर डाक टिकट

अमेरिका में एक अटलांटा आधारित कंपनी ने हिंदू देवी-देवताओं के चित्रों वाले पोस्टेज स्टांप जारी किए हैं। कंपनी का प्रमुख भारतीय मूल का एक अमेरिकी नागरिक है।
यूएसए-पोस्टेज डॉट कॉम ने ऐसे स्टांप का पहला सेट जनवरी में पेश किया। इनमें साईंबाबा, वेंकटेश्वर भगवान, माँ लक्ष्मी, मुरुगन, भगवान गणेश, शिव-पार्वती और श्री कृष्ण की तस्वीरें बनी हुई हैं। यूएस पोस्टल सर्विस (यूएसपीएस) के छह वर्ष पुराने एक नियम में धार्मिक मान्यताओं संबंधी पोस्टेज जारी करने की अनुमति दे दी गई थी। उसी के तहत अमेरिका में पहली बार ऐसे पोस्टेज स्टांप जारी किए गए हैं।यूएसपीएस के प्रवक्ता रॉय बेट्स ने कहा यह पोस्टेज स्टांप हमने जारी नहीं किए हैं, लेकिन ये अन्य स्टांप की तरह वैध हैं। हम इन्हें स्टांप नहीं बल्कि पोस्टेज कहते हैं, लेकिन इनका सामान्य स्टांप की तरह उपयोग किया जा सकता है। यूएसए-पोस्टेज डॉट कॉम के उपाध्यक्ष एनार चिलकापती ने कहा कंपनी को पहली बार ऐसे पोस्टेज जारी करने पर गर्व है, जो भारतीय समुदाय के लिए विशेष अपील करने वाले हैं।

Monday, February 1, 2010

डाकिया डाक लाया : हिंदी ब्लॉग जगत के 9 उपरत्नों में दूसरे स्थान पर

आज सुबह यूँ ही कुछ ब्लॉग की सैर करने निकला तो नज़र रवीन्द्र प्रभात जी के "परिकल्पना" पर पड़ी. कुछ देर खंगाला तो वहाँ हम भी चिट्ठी बाँचते नज़र आए. 21 दिसंबर, 2009 को प्रस्तुत वर्ष 2009 : हिंदी ब्लाग विश्लेषण श्रृंखला (क्रम-21) में रवीन्द्र जी ने हमें भी हिंदी ब्लॉग जगत के 9 उपरत्नों में दूसरे स्थान पर शामिल किया है. रवीन्द्र प्रभात जी व उन सभी स्नेही ब्लोगर्स-पाठकों का आभार जिनकी बदौलत हम आज यहाँ पर हैं !!