Saturday, April 11, 2009

पत्र-पेटी

बड़े प्रेम से लिखता हूँ कोई चिट्ठी
टांकता हूँ किसी परिचित का पता-ठिकाना
बाहर निकलने के अवसर की ताक में
रखता हूँ जेब में जतन से

जगह-जगह लगे लोहे के
लाल बक्सों में डालते हुए चिट्ठी
ठिठक जाते हैं पांव
कि पहुँच तो गई न सही-सलामत
बक्से के अन्दर

यकीन नहीं होता बक्से पर
खड़खड़ाता हूँ खिड़की
सोचता हूँ क्षण भर
और चल देता हूँ, चिट्ठी में लिखी गई
बातों को जांचता-परखता

धुंधली पड़ जाती है चिट्ठी डालने की तारीख
कि अचानक मेरे पते और ठिकाने को ढूंढ़ती हुई
प्रवेश करती है एक चिट्ठी
मेरे आंगन में चुपचाप

गदगद हो जाता है मन
कुशल और क्षेम के बाद
यह पढ़ते हुए कि आपकी चिट्ठी मिली

याद आ जाती मुझे
लोहे के लाल बक्से की
और आ जाते हैं आँखों में आंसू छल्-छल्।

विजय प्रताप सिंह
112ए/2, शिलाखाना, तेलियरगंज, इलाहाबाद-211004

4 comments:

शरद कुमार said...

धुंधली पड़ जाती है चिट्ठी डालने की तारीख
कि अचानक मेरे पते और ठिकाने को ढूंढ़ती हुई
प्रवेश करती है एक चिट्ठी
मेरे आंगन में चुपचाप
.....बेहद उम्दा कविता...पढ़कर दिल खुश हो गया.

Ram Shiv Murti Yadav said...

याद आ जाती मुझे
लोहे के लाल बक्से की
और आ जाते हैं आँखों में आंसू छल्-छल्।
....bahut sundar abhivyakti.

Ram Shiv Murti Yadav said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

akdam bak bak bakwas