Tuesday, April 14, 2009

चिट्ठियों का इंतजार

सूचना क्रांति के दौर में
खो चुकी हैं मानवीय संवेदनाएं,
चिट्ठी में दिखती थी कभी
जो मोहक भावनाएं।

याद आते हैं छात्रावास के वे दिन
जब डाकियों के आने की आहट
कर जाती थी अंतर्मन में
एक घनघनाहट,
मां के ममता से भरे वे पत्र
करती अनुनय हर बार।

बेटा, समय से भोजन करियो,
अपनी सेहत का खयाल रखियो
समय से सोइयो,
बुआ तुम्हें याद करत रहिन,
दद्दा हाल पूछत रहेन,
बापू कहिन हैं कि मन लगाय पढ़्यो,
जो काजू-बादाम भेजा है, उन्हीं का नाश्ता करियो।

दो-चार दिन के छुट्टी मा घर चले अइयों,
ढेर भाग-दौड़ जिन करयो
समय से स्कूल आवा-जावा करो,
ढेर पढ़ाई के चक्कर में अपनी सेहत न बरबाद करियो।

गन्ने की फसल अच्छी भई है पर पेराई पड़ी है,
जब तू अइबो तब पेरइबे, नया गुड़ तोहे खियइबे ।

ऐसी चिट्ठियों की लंबी कतार
भावों की विह्वलता से ओतप्रोत,
चली आती थी लगातार,
यद्यपि हर बार वही सीख
मानो मांगती ममता की भीख,
मां को पता नहीं कि बेटा कितना बड़ा हो गया,
मगर मां की नज़र में मैं हमेशा बच्चा ही रह गया।

बापू को रहती थी मेरे आगे बढ़ने की इच्छा,
और बेहतर परिणाम की प्रतीक्षा।
पर मां को सताती थी मेरी सेहत की चिंता।
कितना भी तन्दुरुस्त होकर, मैं गांव जाता,
हमेशा मां का उलाहना ही पाता
लागत है कि तुम खाना-वाना ठीक से नहीं खा रह्यो,
ठीक से ना खइबो तो पढ़ाई छोड़ाय तोहे घर ही मा रखिबो।

फिर भी उन चिट्ठियों का इंतजार
रहता था बार-बार,
क्योकि वह नहीं था सिर्फ कागज़ का एक हिस्सा,
बड़े ही मनोयोग से समेटे पूरे गांव का किस्सा।

गांव से दूर, पर पास रहने का भ्रम
मां के समीप रहने का उपक्रम,
जब कभी मन घबराता, गांव याद आता
पलटकर उन चिट्ठियों को
मन गांव की अमराइयों, खलिहानों
और पगडंडियों में खो जाता,
मां के साथ सारे रिश्तों को मैं बहुत करीब पाता।

पर आज वो मां नहीं
साथ ही नए परिवेश में
वो बात भी नहीं।

औद्योगिक क्रांति का दौर,
सूचना क्रंति का ठौर,
तकनीक के तारों में उलझ
दम तोड़ती भावनाएं,
बिछुड़ गई हैं संवेदनाएं।

कभी उनकी चिट्ठी भी देती थी बहुत राहत
जिसमें प्यार की होती थी तीव्र सनसनाहट
साथ ही बनी रहती थी रिश्ते की गरमाहट।
तन्हाइयों की होती थी वो संगिनी
एक पवित्र रिश्ते की बेशक थी वो बंदिनी।

पर आज जब भी वो दूर होती है,
इन तन्हाइयों को खुशमय बनाने में
वो चिट्ठियां ऊर्जा का काम करती हैं।
संजो कर रखी गई चिट्ठियां देती हैं
बहुत व्यापक शान्ति

बाजारवाद की तीव्र आंधी ने
उड़ाकर रख दी है आत्मीयता,
वायरलेस तकनीक के मध्य
गुम हो गई है सामीप्यता।

मगर इन मोबाइलों में इतनी शक्ति कहां
बेशक समेट ले वो मुठ्ठी में जहां,
पर एक दिन वो रेत बन मुठ्ठी से सरक जाएगी
‘ निर्मेष ’ काम तो अपने पैरों की जमीं ही आएगी।

रमेश कुमार निर्मेश
rameshbhu@hotmail.com
(साभार: http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/msid-3078858,prtpages-1.cms)

4 comments:

Bhanwar Singh said...

सुन्दर भावनाएं...सुन्दर कविता.

Bhanwar Singh said...
This comment has been removed by the author.
Amit Kumar Yadav said...

क्या खूब लिखा...दिल गदगद हो गया यार.

Nirmesh said...

what a wonderful thought
After a very long spel of time I have read a poem which has realy trembled me in my own way
A request for poet to continue such writing in order to protect our value and culture
Thanks once again