Thursday, April 16, 2009

डाकिया: बदलते हुए रूप

पिछले दिनों आफिस में बैठकर कुछ जरूरी फाइलें निपटा रहा था, तभी एक बुजुर्गवार व्यक्ति ने अन्दर आने की इजाजत मांगी। वे अपने क्षेत्र के डाकिये की शिकायत करने आये थे कि न तो उसे बड़े छोटे की समझ है एवं न ही वह समय से डाक पहुंचाता है। बात करते-करते वे अतीत के दिनों में पहुंँच गये और बोले-साहब! हमारे जमाने के डाकिये बहुत समझदार हुआ करते थे। हमारा उनसे अपनापन का नाता था। इससे पहले कि हम अपना पत्र खोलें वे लिखावट देखकर बता दिया करते थे-अच्छा! राकेश बाबू (हमारे सुपुत्र) का पत्र आया है, सब ठीक तो है न। वे सज्जन बताने लगे कि जब हमारे पुत्र का नौकरी हेतु चयन हुआ तो डाकिया बाबू नियुक्ति पत्र लेकर आये और मुझे आवाज लगाई। मेरी अनुपस्थिति में मेरी श्रीमती जी बाहर्र आइं व पत्र को खोलकर देखा तो झूम उठीं। डाकिया बाबू ने पूछा- अरे भाभी, क्या बात है, कुछ हमें भी तो बताओ। श्रीमती जी ने जवाब दिया कि आपका भतीजा साहब बन गया है।

शाम को मैं लौटकर घर आया तो पत्नी ने मुझे भी खुशखबरी सुनाई और पल्लू से पैसे निकालते हुए कहा कि जाइये अभी डाकिया बाबू को एक किलो मोतीचूर लड्डू पहुंँचा आइये। मैंने तुरंत साइकिल उठायी और लड्डू खरीद कर डाकिया बाबू के घर पहुंँचा। उस समय वे रात्रि के खाने की तैयारी कर रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने गले लगकर बेटे के चयन की बधाई दी और जवाब में मैंने लड्डू का पैकेट उनके हाथों में रख दिया। डाकिया बाबू बोले- ‘‘अरे ये क्या कर रहे हैं आप? चिट्ठियाँं बांँटना तो मेरा काम है। किसी को सुख बांटता हूँ तो किसी को दुःख।‘‘ मैंने कहा नहीं साहब, आप तो हमारे घर हमारा सौभाग्य लेकर आये थे, अतः आपको ये मिठाई स्वीकारनी ही पड़ेगी।

ये बताते-बताते उन बुजुर्ग की आंँखों से आँंसू झलक पड़े। और बोले, साहब! जब मेरे बेटे की शादी हुई तो डाकिया बाबू रोज सुबह मेरे घर पर आते और पूछ जाते कि कोई सामान तो बाजार से नहीं मंँगवाना है। इसके बाद वे अपने वर्तमान डाकिया के बारे में बताने लगे, साहब! उसे तो बात करने की भी तमीज नहीें। डाक सीढ़ियों पर ही फेंककर चला जाता है। पिछले दिनों मेरे नाम एक रजिस्ट्री पत्र आया। घर में मात्र मेरी बहू थी। उसने कहा बाबू जी तो घर पर नहीं हैं, लाइये मुझे ही दे दीजिए। जवाब में उसने तुनक कर कहा जब वह आ जाएं तो बोलना कि डाकखाने से आकर पत्र ले जाएं।

मैं उस बुजुर्ग व्यक्ति की बात ध्यान से सुन रहा था और मेरे दिमाग में भी डाकिया के कई रूप कौंध रहे थे। कभी मुझे एक प्रतिष्ठित साहित्यकार की कहानी का वह अंश याद आता, जिसमें डाकिये ने एक व्यक्ति को उसके रिश्तेदार की मौत की सूचना वाला पत्र इसलिए मात्र नहीं दिया, क्योंकि इस दुःखद समाचार से उस व्यक्ति की बेटी की शादी टल सकती थी, जो कि बड़ी मुश्किलों के बाद तय हुई थी। तो कभी विदेश से लौटकर आये एक व्यक्ति की बात कानों में गूँजती कि- कम से कम भारत में अपने यहाँ डाकिया हरेक दरवाजे पर जाता तो है। तो कभी अपने गांँव का वह डाकिया आता, जिसकी शक्ल सिर्फ वही लोग पहचानते थे जो कभी बाजार गये हों। क्योंकि वह डाकिया पत्र-वितरण हेतु कभी गाँव में आता ही नहीं था। हर बाजार के दिन वह खाट लगाकर एक निश्चित दुकान के सामने बैठ जाता और सभी पत्रों को खाट पर सजा देता। गाँव वाले हाथ बांधे खड़े इन्तजार करते कि कब उनका नाम पुकारा जायेगा। जो लोग बाजार नहीं आते, उनके पत्र पड़ोसियों को सौंप दिये जाते। तो कभी एक महिला डाकिया का चेहरा सामने आता जिसने कई दिन की डाक इकट्ठा हो जाने पर उसे रद्दी वाले को बेच दी। या फिर इलाहाबाद में पुलिस महानिरीक्षक रहे एक आई।पी.एस. अधिकारी की पत्नी को जब डाकिये ने उनके बेटे की नियुक्ति का पत्र दिखाया तो वह इतनी भावविह्नल हो गईं कि उन्होंने नियुक्ति पत्र लेने हेतु अपना आंचल ही फैला दिया, मानो मुट्ठी में वो खुशखबरी नहीं संभल सकती थी।

मैं इस तथ्य का प्रतिपादन नहीं करना चाहता कि हर डाकिया बुरा ही होता है या अच्छा ही होता है। पर यह सच है कि ‘‘डाकिया‘‘ भारतीय सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी है। डाकिया द्वारा डाक लाना, पत्रों का बेसब्री से इंतजार, डाकिया से ही पत्र पढ़वाकर उसका जवाब लिखवाना इत्यादि तमाम महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आप डाकिये के रहन-सहन, वेश-भूषा एवं वेतन पर मत जाइये, क्योंकि उसके परिचित सभी तबके के लोग हैं। कभी-कभी जो काम बड़े अधिकारी भी नहीं करा पाते वह डाकिया चंद मिनटों में करा देता है। कारण डाक विभाग का वह सबसे मुखर चेहरा है। जहाँ कई अन्य देशों ने होम-टू-होम डिलीवरी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाये हैं, या इसे सुविधा-शुल्क से जोड़ दिया है, वहीं भारतीय डाकिया आज भी देश के हर होने में स्थित गाँव में निःशुल्क अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है।

जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया। कल तक लोग थके-हारे धूप, सर्दी व बरसात में चले आ रहे डाकिये को कम से कम एक गिलास पानी तो पूछते थे, पर आज की पीढ़ी डाकिये को एक हरकारा मात्र समझकर पत्र लेने के तत्काल बाद दरवाजा धड़ाम से बन्द कर कर लेती है, फिर भावनात्मकता व आत्मीयता कहाँ? कहांँ गया वह अपनापन जब डाकिया चीजों को ढोने वाला हरकारा मात्र न मानकर एक ही थैले में सुख और दुःख दोनों को बांँटने वाला दूत समझा जाता था?

वे बुजुर्ग व्यक्ति मेरे पास लम्बे समय तक बैठकर अपनी व्यथा सुनाते रहे और मैंने उनकी शिकायत के निवारण का भरोसा भी दिलाया, पर तब तक मेरा मनोमस्तिष्क ऊपर व्यक्त की गई भावनाओं में विचरण कर चुका था।
(कृष्ण कुमार यादव जी का यह आलेख डाक पत्रिका के सितम्बर 2004 अंक में प्रकाशित हुआ था)

9 comments:

Akanksha Yadav said...

Badalte daur men dakiya par sundar alekh.

Shikha Deepak said...

नए दौर में सब कुछ बदल रहा है.........अच्छा आलेख।

RAJNISH PARIHAR said...

जी सच में आजकल तो ये बातें रोमांचित करती है क्यूंकि हमने वो काल देखा है जब डाक का हमारे जीवन में एक अलग स्थान था...!मुझे मेरे जीवन की महत्त्व पूरण.. सूचनाएं डाक से ही मिली...!

Unknown said...

..महत्वपूर्ण विवेचन.

Unknown said...

..महत्वपूर्ण विवेचन.

Dr. Brajesh Swaroop said...

पर आज की पीढ़ी डाकिये को एक हरकारा मात्र समझकर पत्र लेने के तत्काल बाद दरवाजा धड़ाम से बन्द कर कर लेती है, फिर भावनात्मकता व आत्मीयता कहाँ?....सही लिखा आपने. ताली दोनों हाथ से बजती है.

Dr. Brajesh Swaroop said...
This comment has been removed by the author.
Unknown said...

Dakiya per apka lekh pada. dakiya vibhinn roopo se parichit hua.

Raghav said...

aaj ke nai parivesh main jab e-mail ,mobile ka jamana hai tab jo khusbu aur sugnadh dakiya ka laya patro mai hai wo kisi aur mai nahi.


Raghvendra bajpai